भारत का कैंसर संकट: इलाज से पहले ज़रूरत है हमारी जागरूकता और सहानुभूति

विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
24-09-2025 09:09 AM
भारत का कैंसर संकट: इलाज से पहले ज़रूरत है हमारी जागरूकता और सहानुभूति

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे आस-पास कितने ऐसे परिवार हैं जो कैंसर (cancer) जैसी गंभीर और लंबी बीमारी से चुपचाप लड़ रहे हैं? कहीं जानकारी की कमी उन्हें रोक देती है, तो कहीं सही इलाज तक न पहुँच पाने की मजबूरी उनकी राह कठिन बना देती है। यह बीमारी अब सिर्फ़ बड़े शहरों या बुज़ुर्गों तक सीमित नहीं रही, बल्कि हमारे घरों, पड़ोस और रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी है। हर साल लाखों भारतीय कैंसर का सामना करते हैं, और दुर्भाग्य से कई लोग समय पर इलाज न मिल पाने के कारण अपनी जान गंवा बैठते हैं। इस कठिनाई के बीच यह याद रखना ज़रूरी है कि कैंसर से जूझ रहे लोग केवल “मरीज़” नहीं, बल्कि हमारे अपने समाज का हिस्सा हैं। उन्हें दवाइयों से कहीं अधिक ज़रूरत है सहारे, संवेदनशीलता और अपनापन महसूस कराने की। जब परिवार और समाज उनके साथ मज़बूती से खड़े होते हैं, तो उनकी हिम्मत और जीने की चाह कई गुना बढ़ जाती है। कैंसर से लड़ाई सिर्फ़ अस्पतालों और दवाओं तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। असली जीत तभी संभव है जब हम सब मिलकर जागरूकता फैलाएँ, समय पर पहचान सुनिश्चित करें और इलाज की सुविधाएँ हर व्यक्ति तक पहुँचाएँ। आखिरकार, इस बीमारी से जंग केवल विज्ञान से नहीं, बल्कि उम्मीद, सहानुभूति और सामूहिक प्रयासों से जीती जाती है।
इस लेख में हम कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जुड़ी महत्वपूर्ण पहलुओं की गहराई से पड़ताल करेंगे। सबसे पहले, जानेंगे कि भारत में कैंसर का मौजूदा परिदृश्य क्या है और इससे जुड़ी ताज़ा आँकड़ों की क्या तस्वीर है। फिर चर्चा करेंगे कि किस तरह जागरूकता की कमी और सामाजिक चुनौतियाँ इसकी रोकथाम में बाधा बन रही हैं। आगे हम कैंसर की समय पर पहचान और शुरुआती निदान से जुड़ी समस्याओं को समझेंगे। इसके बाद जानेंगे कि इलाज की उपलब्धता और स्वास्थ्य ढांचे में किस तरह की असमानताएँ मौजूद हैं। अंत में, विचार करेंगे कि इलाज की महंगाई और नीतिगत कमज़ोरियाँ लोगों को किस तरह इस बीमारी से लड़ने में असमर्थ बना रही हैं।

भारत में कैंसर का वर्तमान परिदृश्य और बढ़ते आँकड़े
भारत आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ कैंसर न केवल एक चिकित्सा समस्या है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक संकट का रूप ले चुका है। हालिया आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2022 में देशभर में अनुमानित 14.6 लाख नए कैंसर मामले सामने आए और 8 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु कैंसर से हुई। यह केवल संख्या नहीं, बल्कि लाखों परिवारों की कहानियाँ हैं - जिनमें संघर्ष, आर्थिक तंगी, और समय पर न मिल पाने वाले इलाज का दर्द समाहित है। स्तन कैंसर, ग्रीवा कैंसर, मुंह और फेफड़ों का कैंसर भारत में सबसे आम प्रकार हैं। खासकर स्त्रियों में स्तन और गर्भाशय ग्रीवा का कैंसर तेजी से बढ़ रहा है, जिसके पीछे सामाजिक बदलाव, देर से विवाह, स्तनपान न कराना और बदलती जीवनशैली प्रमुख कारण हैं। पुरुषों में तंबाकू सेवन और प्रदूषण फेफड़ों और मुंह के कैंसर को जन्म दे रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो 2025 तक भारत में कैंसर के मामले 15.7 लाख से अधिक हो सकते हैं। इस बढ़ते बोझ को समझना और समय रहते प्रतिक्रिया देना अब केवल स्वास्थ्य नीति की नहीं, बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व की भी आवश्यकता बन चुका है।

कैंसर की रोकथाम और जागरूकता की गंभीर चुनौतियाँ
कैंसर को अक्सर एक 'अचानक होने वाली' बीमारी माना जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि इसके कई रूपों को समय रहते रोका जा सकता है - बशर्ते लोगों को सही जानकारी और संसाधन मिलें। लेकिन भारत में कैंसर को लेकर जनमानस में जागरूकता बेहद कम है, खासकर ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में। कई महिलाएँ अब भी ग्रीवा कैंसर जैसे आम कैंसर के शुरुआती लक्षणों को नहीं पहचानतीं। इसी तरह, धूम्रपान और तंबाकू के दुष्प्रभावों के बारे में जानने के बावजूद इनका सेवन व्यापक रूप से जारी है। स्कूलों और कॉलेजों में स्वास्थ्य शिक्षा का अभाव, सामाजिक संकोच, और पारिवारिक संवाद की कमी इस जागरूकता को और कमज़ोर बनाते हैं। इसके अतिरिक्त, स्क्रीनिंग (screening) और परामर्श सेवाओं की पहुंच सीमित है, जिससे आम लोग समय पर जांच और इलाज नहीं करवा पाते। अगर रोकथाम और जागरूकता को एक राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाया जाए - जैसे कि घर-घर जागरूकता अभियान, सामुदायिक रेडियो और मोबाइल हेल्थ क्लिनिक (Community Radio and Mobile Health Clinic) - तो कैंसर के मामलों में महत्वपूर्ण कमी लाई जा सकती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि लोगों को न केवल कैंसर से डराया जाए, बल्कि उन्हें सशक्त बनाया जाए कि वे इसे समय रहते पहचान सकें और आवश्यक कदम उठा सकें।

शीघ्र पहचान और निदान में मौजूद बाधाएँ
कैंसर के इलाज में सबसे महत्वपूर्ण हथियार उसका समय पर पता लगाना है, लेकिन भारत में इसका सबसे बड़ा अभाव भी यहीं है। कई बार बीमारी तब तक बढ़ चुकी होती है जब तक मरीज अस्पताल पहुँचता है, और तब इलाज बेहद महंगा और जटिल हो जाता है। यह स्थिति इसलिए पैदा होती है क्योंकि देश के अधिकांश क्षेत्रों में स्क्रीनिंग की सुविधाएँ या तो सीमित हैं या उपलब्ध ही नहीं हैं। जहां सुविधाएँ मौजूद हैं, वहां प्रशिक्षित स्टाफ (staff), नियमित उपकरणों की मरम्मत, और जागरूकता की कमी के कारण वे भी उपयोग में नहीं आ पाते। इसके अलावा, सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में कैंसर की जांच को प्राथमिकता नहीं दी जाती। स्क्रीनिंग कार्यक्रम केवल कुछ स्थानों तक ही सीमित हैं और आम जनमानस तक इनकी जानकारी नहीं पहुँचती। कई बार सामाजिक संकोच या गलत धारणाएँ भी लोगों को समय रहते जाँच नहीं कराने देतीं। यह स्थिति तब तक नहीं सुधरेगी जब तक कैंसर की जांच को सामुदायिक स्वास्थ्य का नियमित हिस्सा न बनाया जाए - जैसे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में नियमित कैंसर जांच, आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण, और मोबाइल डायग्नोस्टिक यूनिट्स (Mobile Diagnostic Units) का संचालन। साथ ही, शुरुआती लक्षणों की पहचान करने और गंभीरता को समझाने के लिए जन संवाद को मज़बूती देना ज़रूरी है।

उपचार की असमानता और चिकित्सा बुनियादी ढांचे की कमी
भारत में कैंसर उपचार सेवाएं क्षेत्रीय और सामाजिक असमानताओं से जूझ रही हैं। देश में उपलब्ध कैंसर उपचार केंद्रों में से लगभग 40% महानगरों में केंद्रित हैं, जिससे छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों के मरीजों को इलाज के लिए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। रेडियोथेरेपी (radiotherapy), कीमोथेरेपी (chemotherapy) और सर्जिकल (surgical) सेवाएं हर जगह नहीं उपलब्ध हैं - और जहां हैं भी, वहां या तो अत्यधिक भीड़ होती है या उपकरण पुराने हो चुके होते हैं। भारत में प्रति मिलियन (million) जनसंख्या पर केवल 0.4 रेडियोथेरेपी यूनिट है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह संख्या कम से कम 1 होनी चाहिए। यह साफ संकेत है कि हम बुनियादी ढांचे की दृष्टि से पीछे हैं। यही नहीं, कैंसर उपचार के लिए प्रशिक्षित डॉक्टरों, नर्सों और तकनीशियनों की भारी कमी है। मेडिकल कॉलेजों और नर्सिंग स्कूलों में विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रमों की कमी भी इस समस्या को और गहरा करती है। यदि भारत को इस संकट से उबरना है, तो उसे कैंसर उपचार को प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली का हिस्सा बनाना होगा और हर जिले में क्षेत्रीय कैंसर केंद्र स्थापित करने होंगे। साथ ही, टेलीमेडिसिन (Telemedicine) और ई-हेल्थ प्लेटफॉर्म (E-Health Platform) जैसे तकनीकी उपायों के ज़रिए दूरदराज के क्षेत्रों तक विशेषज्ञता पहुंचानी होगी।

उपचार की सामर्थ्यता और बेहतर नीति की आवश्यकता
कैंसर के इलाज की लागत आज भी अधिकांश भारतीय परिवारों के लिए एक आर्थिक आपदा के समान है। दवाएं, जांच, यात्रा, हॉस्पिटल चार्ज (hospital charge) और देखभाल - सब मिलाकर यह खर्च लाखों में पहुँच जाता है। कई परिवार अपनी बचत, ज़मीन और जेवर तक बेचकर इलाज करवाते हैं, और तब भी पूरा इलाज नहीं हो पाता। आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं ने कुछ राहत जरूर दी है, लेकिन इसकी पहुंच हर मरीज तक नहीं हो पाई है - खासकर उन तक जो अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करते हैं या जिनके पास पहचान पत्र नहीं है। इसके अलावा, निजी अस्पतालों में इलाज बेहद महंगा होता है और बीमा योजनाएँ हर प्रकार की सेवाओं को कवर नहीं करतीं। इसी वजह से बहुत से मरीज इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं। नीति-निर्माताओं को कैंसर के इलाज को स्वास्थ्य का मौलिक अधिकार मानते हुए मुफ्त या रियायती इलाज की व्यवस्था करनी चाहिए। इसके अलावा, गैर-सरकारी संगठनों, धर्मार्थ संस्थाओं और कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) के ज़रिए सामुदायिक सहयोग तंत्र बनाना आवश्यक है। एक समावेशी, न्यायसंगत और सहानुभूतिपूर्ण स्वास्थ्य नीति ही कैंसर की लड़ाई में देश को आगे ले जा सकती है।

संदर्भ-
https://shorturl.at/r8TX5 

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