रामपुर की खोती महक: गंधों के ज़रिए बदलते शहर और बिखरती यादें

गंध- ख़ुशबू व इत्र
20-08-2025 09:31 AM
रामपुर की खोती महक: गंधों के ज़रिए बदलते शहर और बिखरती यादें

रामपुरवासियों, क्या आपने कभी महसूस किया है कि गर्मी के दिनों में सड़क के किनारे बहता नाला ज़्यादा दुर्गंध देने लगता है, या पुराने बाज़ार की खुशबू अब वैसी नहीं रही? रामपुर जैसे ऐतिहासिक और तेजी से शहरी हो रहे शहर में गंध के अनुभव धीरे-धीरे बदलते जा रहे हैं, कभी वो स्वादिष्ट बिरयानी की महक, कभी आम के बागों की मिट्टी की गंध, और अब… कभी-कभी सिर्फ डीज़ल (diesel), प्लास्टिक (plastic) और सीवर (sewer) की मिलीजुली गंध। यह बदलाव सिर्फ संवेदनात्मक नहीं, बल्कि सामाजिक, पर्यावरणीय और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है। आज जब शहरीकरण अपने चरम पर है, तब यह समझना ज़रूरी है कि गंध हमारे शहरी जीवन, यादों, और सामाजिक असमानताओं को कैसे प्रभावित कर रही है। 
इस लेख में हम गंध और शहर के जटिल संबंधों को चार महत्वपूर्ण पहलुओं के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे।हम जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे प्रदूषण और तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण ने हमारी गंध सूंघने की शक्ति को कमज़ोर किया है। फिर हम यह भी देखेंगे कि गंध का हमारे समाज की आर्थिक असमानताओं से क्या रिश्ता है, क्या एक अमीर और गरीब मोहल्ले में सांस लेने का अनुभव अलग होता है? इसके बाद हम गंध के आधार पर बनाए जा रहे शहरी डिज़ाइन, जैसे स्मेलस्केप्स और स्मेलमैप्स (smellscapes and smellmaps), के विचार को समझने की कोशिश करेंगे, जो शहरी अनुभव को एक नया दृष्टिकोण दे रहे हैं। अंत में हम गर्मी, ऊष्मा द्वीप और उनके कारण बढ़ती दुर्गंध के प्रभाव पर ध्यान देंगे, यह केवल नाक का मसला नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता का प्रश्न है।

शहरीकरण और हमारी घ्राण शक्ति का क्षरण
कभी आम, गुलाब, चंदन और देसी पकवानों की सोंधी खुशबू से पहचाने जाने वाले शहर आज प्रदूषण, डीज़ल, वाहन धुएं और रसायनों की तीव्र, कृत्रिम गंध से भरते जा रहे हैं। आधुनिक शहरी जीवनशैली ने केवल हमारे वातावरण को ही नहीं बदला, बल्कि हमारी इंद्रियों को भी कुंद करना शुरू कर दिया है। विज्ञान यह स्पष्ट करता है कि जब हम लंबे समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं, तो हमारी घ्राण शक्ति, यानी सूंघने की प्राकृतिक क्षमता - धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है। इसके विपरीत, ग्रामीण इलाकों में आज भी मिट्टी की ताज़ी गंध, बारिश की बूंदों से उठती सौंधी महक और पकते फलों की सुगंध अनुभव की जा सकती है। शहरों में न केवल प्राकृतिक गंधें घट रही हैं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक जुड़ाव का वह ताना-बाना भी टूटने लगा है जो महक के माध्यम से बनता था। अब वह समय याद आता है जब मोहल्लों की सुबह रसोइयों से आती मसालेदार महक या बाग़ों की ताज़गी पूरे वातावरण को जीवन से भर देती थी, लेकिन आज इनकी जगह गाड़ियों के हॉर्न, निर्माण सामग्री की धूल और प्लास्टिक की गंध ने ले ली है। यह परिवर्तन केवल गंध का नहीं, स्मृति और संवेदना के ह्रास का संकेत भी है।

गंध और सामाजिक-आर्थिक असमानता का संबंध
गंधें केवल निजी अनुभव नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक वास्तविकताओं की गहराई से जुड़ी होती हैं। जिस तरह गंध हमारी भावनाओं और स्मृतियों को प्रभावित करती है, उसी तरह वह यह भी दर्शाती है कि हम किस सामाजिक-आर्थिक स्थान पर खड़े हैं। किसी शहर की अमीर और गरीब बस्तियों में अगर सांस ली जाए, तो यह भिन्नता स्पष्ट हो जाती है, एक ओर डियोडरेंट (deodorant), परफ्यूम (perfume) और साफ़-सुथरे घरों की गंध होती है, वहीं दूसरी ओर सीवर, कचरे, जलते प्लास्टिक और सड़ती नमी की दुर्गंध सांसों में भर जाती है। यह अनुभव केवल एक इंद्रिय का नहीं, बल्कि एक सामाजिक सत्य का दर्पण है। आज शहरी नियोजन में 'स्मेलमैप्स' जैसे उपकरण यह सिद्ध कर रहे हैं कि शहर की गंध हमें वहाँ की सामाजिक संरचना, पर्यावरणीय विषमता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के स्तर को समझने में मदद कर सकती है। अगर नीतियाँ इन गंध संकेतों को ध्यान में रखकर बनाई जाएँ, तो शहरी जीवन को और अधिक न्यायसंगत और संतुलित बनाया जा सकता है। गंधें इस बात की गवाही बन जाती हैं कि कहाँ जीवन सहज है और कहाँ संघर्षमय।

शहरी वातावरण में गंध अनुभव के नए विमर्श: स्मेलस्केप्स और स्मेलमैप्स
गंध की दुनिया अब केवल इंद्रिय अनुभव नहीं, बल्कि शहरी अध्ययन और डिज़ाइन का भी हिस्सा बनती जा रही है। ‘स्मेलस्केप्स’ और ‘स्मेलमैप्स’ जैसे विचार इस ओर इशारा करते हैं कि अब शहरों की योजना बनाते समय केवल दृश्य और ध्वनि नहीं, बल्कि गंध के अनुभव को भी महत्व दिया जा रहा है। जैसे किसी शहर का नक्शा बनाया जाता है, वैसे ही अब गंधों के आधार पर भी नक्शे बनाए जा रहे हैं, जहाँ हर मोहल्ले की अपनी अलग पहचान, अलग स्मृति, और अलग सांस्कृतिक गंध होती है। कोई इलाका इत्र की मधुर सुगंध से जुड़ा हो सकता है, तो कोई मसालों, पकवानों या धार्मिक अनुष्ठानों की सुगंध से। गंधों के ये नक्शे केवल वातावरण की जानकारी नहीं देते, बल्कि स्मृति, आत्मीयता और स्थानिक अनुभव को संरचित करते हैं। शहरी डिज़ाइन यदि गंध को एक अनुभवात्मक और सामाजिक कारक मानने लगे, तो शहर न केवल अधिक संवेदनशील बल्कि समावेशी और स्मृतिपरक भी बन सकते हैं। यह विमर्श हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हमारी नाक से जुड़ा अनुभव भी एक सांस्कृतिक दस्तावेज़ बन सकता है।

गर्मी, शहरी ऊष्मा द्वीप और गंध की तीव्रता
गर्मियों में जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है, वैसे-वैसे गंध की तीव्रता भी अधिक हो जाती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो गर्मी में गंध अणु अधिक ऊर्जा के साथ गतिशील होते हैं, जिससे वे न केवल अधिक दूर तक फैलते हैं बल्कि अधिक तेज़ महसूस भी होते हैं। यही कारण है कि गर्म दिनों में सीवर, कूड़े और प्लास्टिक जैसी दुर्गंधें अधिक तीव्र और असहनीय हो जाती हैं। शहरी ऊष्मा द्वीप, यानी शहरों के वे क्षेत्र जो आसपास की तुलना में अधिक गर्म होते हैं, में यह प्रभाव और भी प्रबल होता है। गर्म हवा, सीमित हरियाली और बढ़ती जनसंख्या के कारण इन क्षेत्रों में नालियों से आती बदबू, सीलन और पसीने की गंध मानसिक असहजता और चिड़चिड़ापन उत्पन्न कर सकती हैं। शोध बताते हैं कि लंबे समय तक ऐसी गंधों के संपर्क में रहना अवसाद, बेचैनी, और एकाग्रता में कमी जैसे मानसिक स्वास्थ्य संकटों का कारण बन सकता है। इसलिए गंध केवल वातावरण का सौंदर्य पक्ष नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता से जुड़ा एक गंभीर प्रश्न बन चुकी है।

संदर्भ-

https://shorturl.at/Eqg7T 

https://shorturl.at/fCMQL 

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