
जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि बदलते मौसम की यह बेचैनी, अचानक गर्मी का बढ़ना या असमय बारिश — यह सब सिर्फ़ मौसम की शरारत नहीं है, बल्कि एक गंभीर संकेत है कि हमारी पृथ्वी और उसका संतुलन गहराते संकट में है। जलवायु परिवर्तन अब कोई दूर-दराज़ का वैज्ञानिक मुद्दा नहीं रहा, यह अब हमारे गांव, खेत, बिजली, रोज़मर्रा की ज़िंदगी और भविष्य तक को सीधे प्रभावित कर रहा है। जौनपुर, जो कभी अपने हरे-भरे खेतों, बरसाती तालाबों और आम के बाग़ों के लिए जाना जाता था, अब गर्मी की लहरों, पानी की कमी और बिजली की बढ़ती मांग से जूझ रहा है। यहाँ के किसान बताते हैं कि गर्मी जल्दी आ जाती है और बारिश देर से होती है, जिससे न केवल फसलें प्रभावित होती हैं, बल्कि पंप चलाने के लिए बिजली की ज़रूरत भी कई गुना बढ़ जाती है। लेकिन जब मौसम अस्थिर हो और बिजली उत्पादन खुद पर्यावरण के भरोसे हो — तो यह ज़रूरत अक्सर अधूरी ही रह जाती है।
भारत जैसे विकासशील देश में, जहाँ ऊर्जा की मांग हर साल बढ़ रही है और अब भी अधिकांश हिस्सों में पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों — जैसे कोयला और जल विद्युत — पर निर्भरता बनी हुई है, वहाँ जलवायु परिवर्तन की चुनौती कहीं ज़्यादा गंभीर हो जाती है। तापमान में थोड़ी सी भी वृद्धि बिजली की खपत को कई गुना बढ़ा देती है, जिससे न केवल उत्पादन तंत्र पर दबाव बढ़ता है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली कटौती जैसी समस्याएँ भी आम हो जाती हैं। जौनपुर जैसे जिलों में यह असर और भी स्पष्ट है, जहाँ ग्रामीण आबादी आज भी कृषि और सीमित संसाधनों पर निर्भर है। जब फसलें सूखती हैं और बिजली नहीं मिलती, तो इसका असर सिर्फ़ खेत पर नहीं, पूरे घर पर पड़ता है — रसोई से लेकर स्कूल तक। ऐसे समय में ज़रूरत है कि हम अपनी ऊर्जा नीतियों को जलवायु के अनुसार ढालें। हमें कोयले और तेल से हटकर सौर ऊर्जा, बायोमास और पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों की ओर देखना होगा, और जौनपुर जैसे ज़िलों में स्थानीय स्तर पर हरित ऊर्जा मॉडल को बढ़ावा देना होगा। इससे न केवल पर्यावरण बचेगा, बल्कि गाँवों में स्वावलंबी ऊर्जा व्यवस्था भी विकसित की जा सकेगी।
इस लेख में हम पढ़ेंगे कि जलवायु परिवर्तन भविष्य में भारत की ऊर्जा खपत को कैसे प्रभावित करेगा और यह ऊर्जा उत्पादन व आपूर्ति के ढांचे को किस प्रकार बदल देगा। हम देखेंगे कि वैश्विक स्तर पर पेरिस समझौते जैसे जलवायु प्रयास कैसे कारगर सिद्ध होंगे और भारत इसमें क्या भूमिका निभाएगा। हम समझेंगे कि भारत को किन ऊर्जा चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा और नीति व संरचना में कौन से परिवर्तन किए जाएंगे। हम जानेंगे कि सतत विकास और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के लिए कौन-कौन से उपाय अपनाए जाएंगे, जिससे ऊर्जा की मांग को पूरा करते हुए जलवायु संतुलन बनाए रखा जा सकेगा। अंततः, हम यह भी महसूस करेंगे कि एक नागरिक के रूप में हमारी क्या भूमिका होगी और हम किस तरह पर्यावरण की रक्षा में सहयोग कर पाएंगे।
जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा खपत पर इसका प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम संबंधी घटनाओं में तीव्रता और अनियमितता बढ़ रही है, जिससे ऊर्जा की खपत के तरीके भी बदल रहे हैं। भीषण गर्मियों में एयर कंडीशनर और कूलिंग उपकरणों की मांग बढ़ती है, जिससे बिजली की आवश्यकता अचानक अधिक हो जाती है। वहीं, सर्दियों में अपेक्षाकृत कम तापमान में तापक उपकरणों की आवश्यकता घट जाती है, जिससे ऊर्जा खपत में मौसमी असंतुलन पैदा होता है। जलवायु परिवर्तन के चलते वर्षा चक्र में बदलाव से जलविद्युत परियोजनाएं भी प्रभावित हो रही हैं, जिससे उनकी उत्पादन क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। समुद्र स्तर में वृद्धि और तटीय क्षेत्रों में आने वाले तूफान, तटीय बिजली संयंत्रों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। इन सभी कारकों के कारण ऊर्जा बुनियादी ढांचे को फिर से सोचने और उसे अधिक लचीला व सतत बनाने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है। ऊर्जा वितरण नेटवर्क पर भी इसका असर पड़ा है, जिससे कई क्षेत्रों में बार-बार बिजली कटौती की स्थिति बनती है। साथ ही, ऊर्जा संयंत्रों की मरम्मत और रखरखाव की लागत भी बढ़ती जा रही है। इन सभी परिवर्तनों को देखते हुए, ऊर्जा प्रणाली की दीर्घकालिक योजना अब जलवायु अनुकूलन के बिना अधूरी मानी जाती है। इसके अतिरिक्त, ऊर्जा नीति नियोजन में अब मौसम के पूर्वानुमानों और पर्यावरणीय जोखिमों को भी एकीकृत किया जा रहा है ताकि अप्रत्याशित मांगों को बेहतर ढंग से संभाला जा सके।
वैश्विक जलवायु समझौते और भारत की भूमिका
2015 के पेरिस जलवायु समझौते ने वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे बनाए रखने और इसे 1.5 डिग्री तक सीमित करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विश्व के सभी देशों को ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तन करना अनिवार्य है। भारत ने इस दिशा में संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए विकास और पर्यावरण के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की है। भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए व्यापक नीतियाँ लागू की हैं, जिनके अंतर्गत 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 30–35% तक घटाने और कुल विद्युत उत्पादन में 40% भागीदारी नवीकरणीय स्रोतों से प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत ने "कॉमन बट डिफरेंशिएटेड रिस्पॉन्सिबिलिटी" की अवधारणा को प्रमुखता दी है, जिसमें विकासशील देशों के लिए लचीली जलवायु नीति की बात की गई है। अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन जैसी पहल भारत की अग्रणी भूमिका को दर्शाती है। साथ ही, भारत तकनीकी सहयोग और वित्तीय समर्थन के लिए विकसित देशों से निरंतर संवाद करता रहा है। इस प्रकार, भारत ने वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धताओं में एक सक्रिय भागीदार के रूप में अपनी भूमिका स्थापित की है। इसके अतिरिक्त, भारत ने राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC) और राज्य स्तरीय कार्य योजनाएं भी लागू की हैं, जो इसकी प्रतिबद्धता को और गहराई प्रदान करती हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियां
भारत की ऊर्जा मांग तेजी से बढ़ रही है, लेकिन इसका अधिकांश हिस्सा अब भी पारंपरिक जीवाश्म ईंधनों जैसे कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस पर निर्भर है। इन स्रोतों से भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जिससे जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण दोनों की समस्या गहराती है। ग्रामीण भारत का बड़ा हिस्सा अब भी लकड़ी, गोबर और कोयले जैसे ईंधनों का उपयोग करता है, जिससे आंतरिक वायु प्रदूषण के कारण महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। तेजी से हो रहे शहरीकरण और औद्योगीकरण ने ऊर्जा की मांग को और बढ़ा दिया है, जिससे कोयले पर निर्भरता में वृद्धि हुई है। अनुमान है कि 2030 तक कोयले का उपयोग तीन गुना बढ़ सकता है, जिससे भारत का कार्बन उत्सर्जन भी अत्यधिक बढ़ेगा। इसके साथ ही, ऊर्जा की पहुंच और उपलब्धता में असमानता भी एक बड़ी चुनौती है, जिससे कई क्षेत्रों में बिजली की आपूर्ति बाधित होती है। ऊर्जा अवसंरचना का आधुनिकीकरण अभी भी धीमी गति से हो रहा है, जिससे यह बदलते जलवायु परिवर्तनों के अनुकूल नहीं बन पा रहा है। इस प्रकार, भारत को एक ओर ऊर्जा आपूर्ति को सुनिश्चित करना है और दूसरी ओर, पर्यावरणीय दायित्वों का भी निर्वहन करना है। इसके अलावा, नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाने की राह में वित्तीय, तकनीकी और संस्थागत बाधाएं भी मौजूद हैं, जिन्हें दूर करना आवश्यक है।
नीति, संरचना और भविष्य के उपाय
भारत ने 1980 के दशक से ही ऊर्जा क्षेत्र में विविधता और स्थायित्व लाने की दिशा में कदम बढ़ाए। 1992 में गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोत मंत्रालय की स्थापना हुई, जिसे 2006 में नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के रूप में परिवर्तित किया गया। इस मंत्रालय का उद्देश्य अक्षय ऊर्जा स्रोतों की हिस्सेदारी बढ़ाना, शोध एवं विकास को बढ़ावा देना और निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित करना है। वर्तमान में भारत में सौर, पवन और जैव ऊर्जा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, जिससे न केवल ऊर्जा का स्वच्छ उत्पादन संभव हुआ है, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा भी सुनिश्चित हुई है। स्मार्ट ग्रिड, ऊर्जा दक्षता सुधार और हरित भवनों जैसी योजनाओं के माध्यम से ऊर्जा संरचना को आधुनिक और टिकाऊ बनाया जा रहा है। सरकार ने ऊर्जा क्षेत्र में निवेश को आकर्षित करने के लिए कई वित्तीय प्रोत्साहन योजनाएँ भी शुरू की हैं। सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल को बढ़ावा देकर सरकार ने ऊर्जा क्षेत्र में नवाचार को भी स्थान दिया है। भविष्य के लिए, यह आवश्यक होगा कि नीति निर्धारण जलवायु अनुकूलन, आपदा प्रबंधन और ऊर्जा समावेशन को ध्यान में रखकर किया जाए। साथ ही, अनुसंधान संस्थानों, उद्योग और नीति निर्माताओं के बीच बेहतर तालमेल भी भविष्य की ऊर्जा चुनौतियों का समाधान प्रदान कर सकता है।
पर्यावरणीय जिम्मेदारी और सतत विकास के लिए रास्ते
भारत के संविधान का अनुच्छेद 48-ए स्पष्ट रूप से पर्यावरण संरक्षण को राज्य का कर्तव्य मानता है। इस दिशा में भारत ने नीति और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर कई प्रयास किए हैं। अक्षय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना, स्वच्छ ईंधन को प्रोत्साहन देना और ऊर्जा दक्षता को सुधारना इनमें प्रमुख हैं। भारत सरकार ने निजी क्षेत्र को पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों में निवेश के लिए प्रेरित किया है, जिससे हरित नवाचार को बल मिला है। नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सौर और पवन ऊर्जा के माध्यम से न केवल प्रदूषण को कम किया जा सकता है, बल्कि ऊर्जा की मांग को भी टिकाऊ तरीके से पूरा किया जा सकता है। साथ ही, जन-जागरूकता अभियान और शिक्षा के माध्यम से नागरिकों को पर्यावरणीय जिम्मेदारियों के प्रति सजग बनाया जा रहा है। पर्यावरणीय न्याय और विकासशील समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित कर, सतत विकास की अवधारणा को व्यवहार में लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। यह जरूरी है कि नागरिक, सरकार और उद्योग एक साथ मिलकर कार्य करें, जिससे ऊर्जा विकास और पर्यावरण संरक्षण दोनों संतुलित रूप से आगे बढ़ सकें। इसके साथ ही, सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के संदर्भ में भारत की प्रतिबद्धता को स्थानीय और राष्ट्रीय योजनाओं में समाहित करना भी आवश्यक हो गया है।
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