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जौनपुरवासियों, हमारा शहर केवल गोमती नदी के तट पर बसा कोई शांत नगर नहीं, बल्कि यह एक जीवित विरासत है—जहाँ इतिहास सिर्फ किताबों में नहीं, बल्कि मस्जिदों की दीवारों, दरवाज़ों की मेहराबों और गलियों की खामोशी में गूंजता है। यह वही भूमि है जहाँ शर्की सुल्तानों ने एक अनोखी स्थापत्य शैली को जन्म दिया, जो ना केवल इस्लामी आस्था की सौम्यता को दर्शाती है, बल्कि स्थानीय कारीगरी की प्रतिभा और सांस्कृतिक समरसता को भी अपने भीतर समेटे हुए है। उस दौर में जब दिल्ली सल्तनत की भव्यता, गुजरात की नक्काशी और दक्कन की राजसी बनावटें अपने उत्कर्ष पर थीं, तब जौनपुर ने अपनी अलग पहचान बनाई—एक ऐसी पहचान जो आज भी अटाला मस्जिद की ऊँची मेहराबों और लाल दरवाज़ा मस्जिद की गंभीर चुप्पियों में साफ झलकती है। यह स्थापत्य केवल पत्थरों का जोड़ नहीं, यह एक सोच थी—एक दृष्टिकोण, जो धर्म को सौंदर्य, सामुदायिकता को वास्तुकला और परंपरा को नवाचार से जोड़ता था। जब आप इन मस्जिदों की ओर देखते हैं, तो यूं लगता है मानो इतिहास आपके सामने खड़ा हो, शांत लेकिन मुखर, जैसे कोई बुज़ुर्ग अपनी कहानी सुना रहा हो। हर ईंट, हर मेहराब, हर नक्काशी में वह आत्मा समाई है जिसने जौनपुर को 'शिराज-ए-हिंद' बना दिया—एक ऐसा शहर जो कला, संस्कृति और सूफियाना विरासत की संगम स्थली बन गया।
इस लेख में हम पहले भाग में शहर के इतिहास और शर्की वंश के उदय की बात करेंगे। फिर वास्तुशिल्प विशेषताओं और मेहराबों के स्थापत्य रूपों का विश्लेषण करेंगे। इसके बाद हम प्रमुख मस्जिदों की चर्चा करेंगे और शर्की शैली की तुलना दिल्ली, फारसी और गोथिक प्रभावों से करेंगे। अंत में शैक्षिक और धार्मिक संस्थानों में स्थापत्य समन्वय की पड़ताल करेंगे।
जौनपुर का ऐतिहासिक परिचय और शर्की वंश का उदय
जौनपुर की स्थापना फिरोजशाह तुगलक के समय में हुई थी, लेकिन इस शहर को असली पहचान मिली शर्की वंश के उदय से। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मलिक सरवर शर्की ने स्वतंत्र शासन की नींव रखी, जो आगे चलकर एक सांस्कृतिक आंदोलन में बदल गई। यह युग साहित्य, संगीत, दर्शन और स्थापत्य के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति का युग था। ‘शिराज-ए-हिंद’ की उपाधि फारसी नगर शिराज से तुलना करते हुए दी गई थी, जो उस समय का सांस्कृतिक और साहित्यिक केन्द्र था।
शर्की सुल्तानों ने धार्मिक सहिष्णुता और ज्ञान के प्रचार में गहरी रुचि ली। सुल्तान इब्राहीम शर्की जैसे नरेश खुद विद्वान थे और उनकी रुचि वास्तुकला के साथ-साथ तर्कशास्त्र, संगीत और कविता में भी थी। यह वह दौर था जब जौनपुर की पहचान केवल एक सैन्य शक्ति नहीं, बल्कि एक गूढ़ सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में बनने लगी। मस्जिदों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना के साथ शहर की आत्मा एक नई दिशा में चली गई।
शर्की वास्तुकला की प्रमुख विशेषताएं
शर्की वास्तुकला को समझने के लिए हमें तुगलक शैली से उसकी प्रेरणा को देखना होगा, लेकिन शर्की निर्माण इससे आगे निकलता है। तुगलक शैली के ठोस, आत्मरक्षात्मक ढांचे को शर्की काल में एक कलात्मक, धार्मिक और सौंदर्यपरक दिशा दी गई। मुख्य रूप से शर्की इमारतों के अग्रभाग में 'तोरण' यानी विशिष्ट द्वार शैली देखी जाती है, जो हिंदू मंदिरों से ली गई थी। यह शैली स्थानीय शिल्पकारों की देन थी, जो हिंदू स्थापत्य परंपरा के ज्ञाता थे। ट्रैबीट प्रणाली यानी बीम और ब्रैकेट्स के माध्यम से छतें रखने की तकनीक ने इन इमारतों को मजबूत ही नहीं, बल्कि विशिष्ट बनाया। इसके साथ-साथ, इन इमारतों में गहरे रंग के पत्थर, सादे किन्तु प्रभावशाली सजावटी तत्व, और ज्यामितीय पैटर्न का सधा हुआ प्रयोग हुआ। इन सबका समन्वय स्थानीय कारीगरों और इस्लामी स्थापत्य परंपरा के बीच एक अद्वितीय संवाद को दर्शाता है। यही संवाद जौनपुर की स्थापत्य भाषा को अलग पहचान देता है।
मेहराब का स्थापत्य महत्व और विविध रूप
मेहराब सिर्फ एक स्थापत्य तत्व नहीं है, बल्कि वह एक बौद्धिक चुनौती और सौंदर्यबोध का उदाहरण है। इसकी उत्पत्ति रोमन और बीजान्टिन परंपराओं से मानी जाती है, जिसे इस्लामी दुनिया ने कई रूपों में विकसित किया। जौनपुर की मस्जिदों में प्रयोग हुई मेहराबें कई वैश्विक स्वरूपों का समावेश दिखाती हैं—जैसे घोड़े की नाल जैसी स्पैनिश शैली की मेहराब, नुकीली और चार-केंद्रीय मेहराबें जो फारसी और ममलुक प्रभाव दर्शाती हैं। शर्की इमारतों में इन मेहराबों का सबसे बड़ा योगदान यह था कि वे वास्तु संरचना के साथ-साथ धार्मिकता और सौंदर्य का प्रतीक बन गईं। इन मेहराबों का निर्माण एक प्रकार की गणितीय जटिलता से होता था जिसमें हर कोण और घटक का सटीक भार संतुलन जरूरी था। यही कारण है कि इन इमारतों ने समय की मार झेली और आज भी खड़ी हैं—गौरव के साथ।
जौनपुर की प्रमुख शर्की मस्जिदें और उनकी वास्तुकला
शर्की मस्जिदें केवल इबादत के स्थान नहीं थीं—वे शक्ति, संस्कृति और कला की प्रयोगशाला थीं।
अटाला मस्जिद, जो शर्की स्थापत्य का शिखर मानी जाती है, एक अधूरे मंदिर ढांचे पर बनी थी। इसके मुख्य द्वार का तोरण और ऊपर उठती हुई छतें स्थापत्य सृजन की पराकाष्ठा हैं।
खालिस मुखलिस मस्जिद अपेक्षाकृत सादी मगर अत्यंत संतुलित रचना है। इसका सौंदर्य उसकी सादगी में है।
जहांगीरी मस्जिद धनुषाकार मेहराबों और महीन कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है, जो तत्कालीन शिल्प की परिपक्वता को दर्शाती है।
लाल दरवाजा मस्जिद को स्त्रियों के धार्मिक स्थल के रूप में बनाया गया था, जिसमें ज़नाना कक्ष जैसी संरचनाएं विशिष्ट हैं।
जामी मस्जिद, जिसे बारी मस्जिद भी कहते हैं, अपनी ऊँचाई, चबूतरे और विशाल प्रवेश द्वारों के लिए जानी जाती है। ये मस्जिदें आज भी न सिर्फ धार्मिक पहचान हैं, बल्कि स्थापत्य शिक्षण का केंद्र भी बन सकती हैं।
शर्की शैली और उसकी तुलनात्मक विशेषता
जब हम शर्की शैली को दिल्ली की तुगलक वास्तुकला से तुलना करते हैं, तो शर्की शैली कहीं अधिक कलात्मक और सजीव लगती है। तुगलक शैली कठोर और संरचनात्मक रही, जबकि शर्की शैली में सौंदर्य, स्थानीय कला और भव्यता का समावेश था। यूरोपीय गोथिक शैली की ऊँचाई और मेहराबों के आकारों से कुछ समानताएं जरूर दिखाई देती हैं, विशेषकर ऊंचे प्रवेश द्वारों और ट्रैसरियों में। वहीं फारसी और अब्बासिड परंपराओं से लिए गए आभूषणशैली और चौकटी निर्माण ने इसे अंतरराष्ट्रीय स्पर्श दिया। हालांकि इन सभी प्रभावों के बावजूद, शर्की स्थापत्य पूरी तरह से स्थानीय मिट्टी में रचा-बसा था। इसकी पहचान 'बाहरी प्रभावों का समन्वित स्थानीय पुनःसृजन' के रूप में की जा सकती है।
शिक्षा, संस्कृति और धार्मिक संस्थान
शर्की शासकों ने केवल मस्जिदें ही नहीं बनवाईं, उन्होंने मदरसों की एक परंपरा शुरू की जो जौनपुर को ज्ञान का केन्द्र बनाती है। जामिया हुसैनिया जैसे संस्थान तात्कालिक बौद्धिक विमर्श के केन्द्र थे। इन संस्थानों में इस्लामी दर्शन, कानून, गणित और खगोलशास्त्र जैसे विषय पढ़ाए जाते थे, जिनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों वर्गों के छात्र शामिल होते थे। वास्तुकला में भी यह समन्वय स्पष्ट था—जहां मस्जिदों के अंदरूनी खंभे मंदिर निर्माण शैली की याद दिलाते हैं। धार्मिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक कार्यों, चर्चा सभाओं और न्यायिक कार्यों के लिए भी मस्जिदें केंद्र थीं। इस तरह शर्की मस्जिदें सिर्फ पूजा स्थल नहीं, एक जीवंत सार्वजनिक जीवन का हिस्सा थीं।
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