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भारत में लोक नाट्य (Folk Theatre) एक बहुआयामी कलारूप है, जिसमें संगीत, नृत्य, अभिनय, पद्य-पाठ, महाकाव्य और वीरगाथाओं की प्रस्तुति, चित्र और मूर्तिकला, धार्मिक अनुष्ठान और ग्रामीण उत्सवों का समन्वय देखा जा सकता है। इसकी जड़ें स्थानीय संस्कृति में गहराई से समाई हुई हैं और यह स्थानीय पहचान व सामाजिक मूल्यों को अभिव्यक्त करता है। मनोरंजन के माध्यम के रूप में लोक नाट्य न केवल जनमानस को आनंदित करता है, बल्कि पीढ़ियों से भारत में अंतर-व्यक्तिगत, सामुदायिक और अंतर-ग्राम संप्रेषण का प्रभावी साधन भी रहा है। विशेष रूप से, इसने सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरूकता फैलाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
लोक नाट्य की सबसे सशक्त शैलियों में से एक 'स्वांग' (Swang) है, जिसकी उत्पत्ति हरियाणा में मानी जाती है। कहा जाता है कि किशनलाल भट्ट ने स्वांग के समकालीन रूप की नींव रखी थी, लेकिन इसका सबसे प्रसिद्ध नाम दीपचंद बहमन का है, जो सोनीपत के शिरी खुंडा गाँव से थे। उन्हें हरियाणा का 'शेक्सपियर' (Shakespeare) या 'कालिदास' कहा जाता है। स्वांग की विशिष्टता यह है कि इसके मंचन के लिए आधुनिक नाट्यशालाओं की भांति जटिल मंच-सज्जा, परदा या श्रृंगार-कक्ष की आवश्यकता नहीं होती। खुले मैदान, आँगन या मंदिर की बालकनी में भी इसका प्रदर्शन संभव है। यह भी उल्लेखनीय है कि स्वांग के कलाकार ध्वनि विस्तारक यंत्र (लाउडस्पीकर - loudspeaker) का प्रयोग नहीं करते। संवादों में रस लाने के लिए एकतारा, खड़ता, ढोलक, सारंगी और हारमोनियम (harmonium) जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
पहले वीडियो के ज़रिए हम स्वांग की परंपरा और प्रस्तुति की झलक देखेंगे।
स्वांग की एक रोचक विशेषता यह रही है कि बीसवीं शताब्दी से पहले स्त्री पात्रों की भूमिका पुरुष निभाते थे। लेकिन अब समय के साथ महिलाओं ने भी स्वांग में भाग लेना शुरू किया है, और उन्होंने अपने महिला केंद्रित "सांघ" विकसित किए हैं जिनमें वे पुरुष पात्रों की भूमिकाएँ भी निभाती हैं।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में स्वांग जैसी लोक नाट्य शैलियाँ अलग-अलग नामों से जानी जाती हैं - जैसे ब्रज की रासलीला, गुजरात का भवई, मध्यप्रदेश की पंडवानी, महाराष्ट्र का तमाशा, मैसूर का यक्षगान और उत्तराखंड का पांडव नृत्य। इन सभी में कथानक के स्तर पर पौराणिक प्रेम, लोकप्रिय इतिहास और धार्मिक उपदेशों के साथ-साथ सामाजिक और नैतिक मूल्य भी अंतर्निहित होते हैं। स्वांग, इन सभी शैलियों की भाँति, अच्छाई की बुराई पर विजय की स्थायी छवि के साथ समाप्त होता है, जिससे दर्शकों में आशा, प्रेरणा और नैतिक शिक्षा का संचार होता है। इस प्रकार, स्वांग केवल लोक-मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि लोक-जीवन की आत्मा है, जो संस्कृति, शिक्षा और संवाद का जीवंत माध्यम बनकर आज भी समाज में अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है।
नीचे दिए गए वीडियो के माध्यम से हम स्वांग के बारे में और अधिक जानेंगे।
संदर्भ-
https://short-link.me/15Hw1
https://short-link.me/1a4eo
https://short-link.me/15Hwa
https://short-link.me/1a4eD
https://short-link.me/1a4eI
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