जब विज्ञान ने तोड़ी सीमाएँ: क्या जानवरों के अंग इंसानों के शरीर में काम कर सकते हैं?

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28-11-2025 09:28 AM
जब विज्ञान ने तोड़ी सीमाएँ: क्या जानवरों के अंग इंसानों के शरीर में काम कर सकते हैं?

जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी कल्पना की है कि किसी इंसान के शरीर में किसी जानवर का दिल, गुर्दा या फेफड़ा लगाया जा सकता है - और वह व्यक्ति फिर से ज़िंदगी जी सके? यह सुनने में किसी विज्ञान-फंतासी फ़िल्म का दृश्य लगता है, लेकिन आज यह विज्ञान की दुनिया में एक सच्चाई बन रहा है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अब उस दिशा में बढ़ चुका है, जहाँ मानव अंगों की कमी को दूर करने के लिए जानवरों के अंगों का उपयोग किया जा रहा है। इस प्रक्रिया को कहा जाता है ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन (Xenotransplantation) - यानी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में अंग या ऊतक का प्रत्यारोपण। दुनिया भर में ऐसे लाखों मरीज हैं जिन्हें नया दिल, जिगर या गुर्दा चाहिए, लेकिन मानव दाताओं की कमी से उनकी ज़िंदगी थम जाती है। इस गंभीर समस्या ने वैज्ञानिकों को सोचने पर मजबूर किया कि क्या इंसान के जीवन को बचाने के लिए किसी दूसरे जीव की मदद ली जा सकती है? और यहीं से शुरू हुई ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन की यात्रा - जानवरों के अंगों को इंसानों के शरीर में प्रत्यारोपित करने की कोशिश। जौनपुर जैसे शहरों में, जहाँ लोग नई तकनीकों और वैज्ञानिक खोजों को उत्सुकता से अपनाते हैं, यह विषय चर्चा का हिस्सा बनना स्वाभाविक है। लेकिन यह विचार जितना आश्चर्यजनक और संभावनाओं से भरा हुआ है, उतना ही संवेदनशील भी - क्योंकि इसमें विज्ञान, नैतिकता और धार्मिक मान्यताओं के बीच एक जटिल संतुलन छिपा है। क्या यह इंसानियत की जीत है या प्रकृति की सीमाओं का अतिक्रमण? यही सवाल आज पूरी दुनिया, और अब हमारे भारत में भी, गहराई से पूछा जा रहा है।
आज हम इस अनोखी चिकित्सा प्रक्रिया के बारे में क्रमवार जानेंगे। पहले समझेंगे कि ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन क्या है और आखिर इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी। फिर जानेंगे कि क्यों सूअर इंसानों के लिए सबसे उपयुक्त ‘डोनर’ (donor) जानवर माने जाते हैं और उनके अंगों को कैसे जीन-संशोधित (gene-modified) कर इंसानों के शरीर के अनुकूल बनाया जा रहा है। इसके बाद, हम ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन के इतिहास और दुनिया के चर्चित प्रयोगों की रोचक झलक देखेंगे। अंत में, हम भारत में इसकी वर्तमान स्थिति, कानूनी चुनौतियों और इससे जुड़े नैतिक व स्वास्थ्य संबंधी जोखिमों पर भी चर्चा करेंगे।

ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन क्या है और इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी?
ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ वैज्ञानिक एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में अंग, ऊतक या कोशिकाएँ प्रत्यारोपित करने का प्रयास करते हैं। इसका उद्देश्य उन मरीजों को नई ज़िंदगी देना है जिन्हें मानव अंगों की अनुपलब्धता के कारण उपचार नहीं मिल पाता। वर्तमान में विश्वभर में लाखों लोग दिल, गुर्दे, फेफड़े या लीवर ट्रांसप्लांट (Liver Transplant) का इंतज़ार कर रहे हैं, लेकिन दाता की कमी से हर साल हज़ारों जानें चली जाती हैं। यही समस्या वैज्ञानिकों को पारंपरिक सीमाओं से परे सोचने के लिए प्रेरित करती है। जानवरों के अंगों का उपयोग एक वैकल्पिक समाधान बनकर उभरा है, जहाँ जीव विज्ञान, जीन इंजीनियरिंग और प्रतिरक्षा विज्ञान मिलकर मानवता के लिए नई उम्मीदें जगा रहे हैं।

क्यों सूअर बने इंसानों के लिए सबसे उपयुक्त ‘डोनर’ जानवर?
कई वर्षों तक वैज्ञानिकों ने बंदर, बकरियों, गायों और यहां तक कि खरगोशों पर भी प्रयोग किए, लेकिन अंततः सूअर इस प्रक्रिया के लिए सबसे आदर्श साबित हुए। सूअर के अंग आकार, संरचना और कार्य के स्तर पर मानव अंगों से बेहद मिलते-जुलते हैं। उनका दिल, गुर्दा, फेफड़े और त्वचा प्रत्यारोपण के लिहाज़ से सबसे उपयुक्त पाए गए हैं। इसके अलावा, सूअर को पालन-पोषण करना आसान है, वे तेज़ी से प्रजनन करते हैं और चिकित्सा प्रयोगों के लिए सुलभ रहते हैं। हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों ने जीन एडिटिंग तकनीक - विशेषकर CRISPR-Cas9 - की मदद से सूअरों के जीन में ऐसे बदलाव किए हैं जो मानव शरीर में प्रतिरोधक प्रतिक्रिया को कम करते हैं। इन “जीन-संशोधित सूअरों” के अंग अब पहले से कहीं अधिक संगत और सुरक्षित माने जा रहे हैं। इस वैज्ञानिक प्रगति ने ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन को कल्पना से वास्तविकता की दिशा में आगे बढ़ा दिया है।

ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन का इतिहास और दुनिया के चर्चित केस
ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन की कहानी एक सदी से भी पुरानी है। 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में डॉक्टरों ने बंदरों और चिम्पांज़ियों के अंगों को इंसानों में प्रत्यारोपित करने की कोशिश की, लेकिन इम्यून सिस्टम (Immune System) के अस्वीकार कर देने के कारण कोई भी प्रयोग लंबे समय तक सफल नहीं हुआ। फिर भी इस दिशा में अनुसंधान बंद नहीं हुआ। 1990 के दशक में वैज्ञानिकों ने पहली बार सूअर के ऊतक का प्रयोग मानव रोगों जैसे डायबिटीज़ और पार्किंसन के उपचार में किया। और फिर 2022 में चिकित्सा इतिहास बना - जब अमेरिका के मैरीलैंड विश्वविद्यालय (Maryland University) के डॉक्टरों ने 57 वर्षीय मरीज डेविड बेनेट (David Bennett) के शरीर में एक जीन-संशोधित सूअर का दिल प्रत्यारोपित किया। यह दिल कई सप्ताह तक काम करता रहा, जो मानव चिकित्सा के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इसी तरह गुर्दे और त्वचा ट्रांसप्लांट के छोटेपैमाने पर हुए सफल प्रयोगों ने ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन को वैज्ञानिक विमर्श का केंद्र बना दिया है।

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नैतिक और धार्मिक बहस: क्या जानवरों के अंग लगाना सही है?
ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन जितना वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, उतना ही यह नैतिक और धार्मिक विवादों का विषय भी है। विरोधियों का तर्क है कि इंसान को प्रकृति की सीमाओं से आगे नहीं बढ़ना चाहिए - हर प्रजाति का जीवन अपने दायरे में रहना चाहिए। कई धार्मिक परंपराएँ, विशेष रूप से इस्लाम और यहूदी धर्म, सूअर को अपवित्र मानती हैं, जिससे इस प्रक्रिया पर गहरा विरोध होता है। वहीं दूसरी ओर, समर्थक यह मानते हैं कि यदि इससे मानव जीवन बचता है, तो यह एक मानवीय कार्य है, न कि अनैतिक। उनका कहना है कि जिस प्रकार वैक्सीन (vaccine), कृत्रिम अंग या टेस्ट ट्यूब बेबी (test tube baby) तकनीक ने प्रारंभ में विरोध झेला, वैसे ही ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन को भी समय के साथ स्वीकार्यता मिलेगी। यह बहस विज्ञान और नैतिकता के उस संगम को उजागर करती है जहाँ ‘जीवन की रक्षा’ और ‘प्रकृति का सम्मान’ एक-दूसरे से टकराते हैं।

भारत में ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन की स्थिति और कानूनी चुनौतियाँ
भारत में ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन का इतिहास उतना ही रोचक है जितना विवादास्पद। 1997 में असम के प्रसिद्ध सर्जन डॉ. धनीराम बरुआ ने एक मरीज के शरीर में सूअर का दिल प्रत्यारोपित करने का दावा किया था। यह घटना भारत में सनसनी बन गई, लेकिन वैज्ञानिक समुदाय और सरकार ने इसे अवैध और अनैतिक बताया। डॉ. बरुआ को गिरफ़्तार कर लिया गया, और तब से यह विषय भारत में विवादों के घेरे में रहा। आज भारत में इस तकनीक के लिए कोई स्पष्ट कानूनी ढांचा मौजूद नहीं है। नेशनल ऑर्गन ट्रांसप्लांट एक्ट (National Organ Transplant Act) केवल मानव से मानव अंगदान को नियंत्रित करता है। ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन जैसे प्रयोगों पर न तो ठोस दिशानिर्देश हैं, न ही सुरक्षा मानक। हालांकि, हाल के वर्षों में आईसीएमआर (ICMR) और बायोटेक्नोलॉजी (Biotechnology) विभाग ने इस दिशा में संभावनाएँ तलाशनी शुरू की हैं। आने वाले समय में भारत यदि इस तकनीक को अपनाता है, तो यह चिकित्सा क्षेत्र में एक बड़ा कदम होगा।

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छिपे खतरे: नई बीमारियाँ और संक्रमण का डर
ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन के साथ सबसे बड़ी चिंता ज़ूनोटिक संक्रमणों की है - यानी ऐसी बीमारियाँ जो जानवरों से इंसानों में फैल सकती हैं। सूअरों के शरीर में पाए जाने वाले वायरस, विशेष रूप से पीईआरवी (PERV - Porcine Endogenous Retroviruses), संभावित खतरा पैदा करते हैं। यदि ये वायरस मानव शरीर में सक्रिय हो जाएँ, तो वे नई और अज्ञात बीमारियाँ फैला सकते हैं। इसके अलावा, मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली इन अंगों को “विदेशी तत्व” मानकर अस्वीकार भी कर सकती है, जिससे गंभीर जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं। यही कारण है कि वैज्ञानिक लगातार इस दिशा में सुरक्षा परीक्षण और जीन संशोधन पर काम कर रहे हैं ताकि संक्रमण और प्रतिरोध दोनों को नियंत्रित किया जा सके। यह सावधानी न केवल मरीज की सुरक्षा के लिए आवश्यक है, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

संदर्भ- 
https://tinyurl.com/ynnscumt 
https://tinyurl.com/4ydpkrjy 
https://tinyurl.com/mrx6xxrd 
https://tinyurl.com/4emnsy8t 
https://tinyurl.com/2n9ew89r 



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