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जौनपुरवासियों, आज हम उस ऐतिहासिक आंदोलन की बात करेंगे जिसने भारत की स्वतंत्रता की दिशा बदल दी - 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन। यह वह समय था जब अंग्रेज़ों के अत्याचार अपनी चरम सीमा पर थे और पूरा देश आज़ादी की एक ही चाह में एकजुट हो रहा था। जौनपुर के कई बहादुर युवाओं, किसानों, शिक्षकों और स्वतंत्रता सेनानियों ने भी इस संघर्ष में अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था। उसी राष्ट्रीय भावना को याद करते हुए आज हम समझेंगे कि यह आंदोलन कैसे शुरू हुआ, किन परिस्थितियों में आगे बढ़ा और देशभर में इसकी लपटें किस तरह फैल गईं।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि अंग्रेज़ शासन की नीतियों ने भारतीय समाज को किस हद तक नुकसान पहुँचाया और क्यों जनता में असंतोष बढ़ता गया। इसके बाद, हम 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत और महात्मा गांधी के “करो या मरो” संदेश की पृष्ठभूमि को समझेंगे। फिर, हम जौनपुर और पूरे उत्तर प्रदेश की भूमिका पर ध्यान देंगे, जहाँ के लोगों ने आंदोलन में साहसिक योगदान दिया। इसके बाद हम देश के विभिन्न हिस्सों - बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत - में हुए जनविद्रोह और गतिविधियों को जानेंगे। अंत में, हम भूमिगत संगठनों, समानांतर सरकारों तथा ब्रिटिश दमन और आंदोलन के परिणामों पर विस्तृत चर्चा करेंगे।
अंग्रेज़ शासन की नीतियाँ और भारत में असंतोष का बढ़ना
ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियाँ धीरे-धीरे भारतीय समाज के हर हिस्से को तोड़ रही थीं। किसानों पर मनमाने कर थोपे गए, जिसके कारण वे उपज का बड़ा हिस्सा अंग्रेज़ों को देने पर मजबूर थे। स्थानीय हस्तशिल्प - खासकर सूत, रेशम, धातु और लकड़ी के उद्योग - विदेशी मशीनों और ब्रिटिश उत्पादों के सामने कमजोर पड़ते गए। लाखों कारीगर बेरोज़गार हो गए और गाँवों की आर्थिक रीढ़ टूटने लगी। व्यापारिक नीतियों ने भारतीय बाजार को ब्रिटिश माल का उपनिवेश बना दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेज़ी को श्रेष्ठ मानकर भारतीयों को अवसरों से वंचित रखा गया। न्याय व्यवस्था में भेदभाव इतना स्पष्ट था कि भारतीयों को समान अधिकार मिलना लगभग असंभव था। इन सबके बीच, संसाधनों की भयानक लूट - जैसे अनाज, वन-संपदा, कपास, कोयला और कर - ने जनता में गहरा आक्रोश भर दिया। यही व्यापक पीड़ा और अन्याय भारत छोड़ो आंदोलन की पहली चिंगारी बनी, जिसने पूरे देश को स्वतंत्रता की मांग के लिए तैयार कर दिया।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत और गांधीजी का “करो या मरो” संदेश
द्वितीय विश्व युद्ध के समय दुनिया अराजकता से घिरी थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार भारत को युद्ध में झोंककर भी उसे स्वतंत्रता के नाम पर कोई गंभीर प्रस्ताव देने को तैयार नहीं थी। क्रिप्स मिशन की असफलता ने भारतीयों का धैर्य पूरी तरह समाप्त कर दिया। इसी माहौल में 8 अगस्त 1942 को बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी ने वह भाषण दिया, जिसने इतिहास का रुख बदल दिया। “करो या मरो” - यह मात्र नारा नहीं था, यह एक भावनात्मक पुकार थी कि अब या तो भारत स्वतंत्र होगा या भारतीय अपने प्राणों की बाज़ी लगा देंगे। भाषण समाप्त होने के कुछ ही घंटों बाद ब्रिटिश प्रशासन इतना भयभीत हो गया कि उसने गांधीजी, नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद जैसे शीर्ष नेताओं को तत्काल गिरफ्तार कर लिया। जनता को लगा कि नेता जेल में हैं, इसलिए अब आंदोलन जनता स्वयं चलाएगी। इसके बाद भारत छोड़ो आंदोलन एक नेता-रहित, लेकिन जनता-प्रेरित राष्ट्रव्यापी क्रांति बन गया, जिसने अंग्रेज़ शासन की नींव हिला दी।

जौनपुर और उत्तर प्रदेश की भूमिका: जनता, छात्रों और नेताओं का योगदान
जौनपुर और उत्तर प्रदेश ने इस आंदोलन की ज्वाला को तेज़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जौनपुर के युवाओं, छात्रों, शिक्षकों और स्वतंत्रता सेनानियों ने शहर और गाँवों में रैलियाँ निकालीं, अंग्रेज़ों के प्रतीक माने जाने वाले कार्यालयों का बहिष्कार किया और ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ जोरदार नारे लगाए। कई घरों में गुप्त सभाएँ होने लगीं, जहाँ युवक यह तय करते थे कि आंदोलन को कैसे आगे बढ़ाया जाए। उत्तर प्रदेश के बड़े शहर - कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, वाराणसी - इस आंदोलन के केंद्र बन गए। जगह-जगह बाजार बंद कराए गए, अधिवक्ताओं ने अदालतों का बहिष्कार किया, और छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़कर स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लिया। जौनपुर और पूर्वांचल के कई लोगों को गिरफ्तार किया गया; कुछ ने जेल से बचने के लिए भूमिगत रहकर आंदोलन संचालित किया। इस क्षेत्र की भागीदारी ने साबित किया कि स्वतंत्रता का जज़्बा केवल बड़े शहरों में ही नहीं, बल्कि छोटे जिलों और गाँवों में भी उतना ही प्रबल था।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आंदोलन का प्रभाव और जनविद्रोह
भारत छोड़ो आंदोलन का प्रभाव पूरे देश में ऐसे फैला जैसे दमन के वर्षों से दबा हुआ जनआक्रोश अचानक फूट पड़ा हो। बिहार में जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और कांग्रेस समाजवादी नेताओं ने भूमिगत नेटवर्क बनाकर ब्रिटिश शासन को खुली चुनौती दी। बंगाल में छात्रों, मजदूरों और किसानों ने मिलकर डाकघर, पुलिस थानों और रेलवे लाइनों पर कब्ज़ा जमाया। महाराष्ट्र, विशेषकर सतारा, पूणे और खानदेश में जनता ने गुरिल्ला शैली में सरकारी संपत्तियों पर हमले शुरू कर दिए। गुजरात में अहमदाबाद के लोगों ने “आजाद सरकार” स्थापित कर अंग्रेज़ों को संकेत दिया कि भारत स्वयं सक्षम है। दक्षिण भारत - विशेषकर मद्रास प्रेसीडेंसी - में भी हड़तालें, विरोध प्रदर्शन और श्रमिक-आंदोलन तेजी से फैल गए। यह वह दुर्लभ समय था जब भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम - सभी एक ही संकल्प के साथ खड़े थे: अंग्रेज़ भारत छोड़ो।

भूमिगत आंदोलन, समानांतर सरकारें और गुप्त संगठनों की गतिविधियाँ
जब अंग्रेज़ों ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ कीं, तब आंदोलन का असली रूप सामने आया—भूमिगत संघर्ष। जेपी नारायण और लोहिया नेपाल सीमा के जंगलों में रहकर पूरे देश में संदेश भेजते थे। बलिया (उत्तर प्रदेश) में चित्तू पांडेय की मॉडल समानांतर सरकार ने ब्रिटिश अधिकारियों को हटाकर प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। महाराष्ट्र के सतारा जिले में “प्रताप सरकार” नामक समानांतर शासन चला। कई जगहों पर भूमिगत सेनाएँ बनीं, जिन्हें “आज़ाद दस्ता” जैसे नाम दिए गए। इन संगठनों ने ब्रिटिश संचार व्यवस्था—टेलीग्राफ, रेलवे, पोस्ट—को बाधित कर प्रशासन को पंगु किया। भूमिगत पत्रिकाएँ—Do or Die, Free India, Congress Gazette—रातों में चुपचाप बांटी जाती थीं। इनके जरिए जनता को प्रेरणा, दिशा और साहस मिलता था। इतिहास में यह पहला अवसर था जब भारत ने व्यवस्थित और मजबूत भूमिगत नेटवर्क के साथ विदेशी शासन को चुनौती दी।
ब्रिटिश दमन, गिरफ्तारियाँ और आंदोलन का परिणाम
ब्रिटिश शासन ने आंदोलन को कुचलने की हर संभव कोशिश की—कर्फ्यू, फायरिंग, लाठीचार्ज, संपत्ति जब्ती और सामूहिक गिरफ्तारियाँ। 1942 के अंत तक करीब 60,000 लोग जेलों में बंद थे, जिनमें छात्र, किसान, महिलाएँ, पत्रकार, शिक्षक और साधारण नागरिक शामिल थे। हजारों घायल हुए, सैकड़ों शहीद हुए। लेकिन दबाव बढ़ने के बजाय जनता का संकल्प और कठोर होता गया। यह आंदोलन भले ही तात्कालिक रूप से दबा दिया गया हो, लेकिन ब्रिटिश सरकार की नींव डगमगा चुकी थी। अंग्रेज़ों को समझ आया कि भारत पर शासन अब असंभव है। यही कारण था कि आंदोलन शुरू होने के सिर्फ पाँच वर्ष बाद—15 अगस्त 1947—भारत स्वतंत्र हो गया। भारत छोड़ो आंदोलन वह निर्णायक मोड़ था जिसने भारत की स्वतंत्रता को अनिवार्य बना दिया।
संदर्भ -
https://tinyurl.com/2bh4ozw2
https://tinyurl.com/25msrx6k
https://tinyurl.com/2s4a4xzx
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