 
                                            समय - सीमा 268
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                                            दीपावली का त्यौहार हमारे भारत वर्ष में काफी धूम-धाम से मनाया जाता है. इस दिन चारों ओर रौशनी ही रौशनी होती है, हम पटाखे जलाते हैं, मिठाइयां खाते हैं और बड़े ही ख़ुशी से यह उत्शव मनाते हैं। हर तरफ हसी ख़ुशी का माहोल होता है पर क्या आपने उन बच्चों के बारे में सोचा है जो इस ख़ुशी के दिन भी उदाश रहते हैं, उनके पास अलग-अलग तरह के मीठे व्यंजन तो दूर कि बात है बल्कि अपना पेट भरने केलिए भी पैसे नहीं होते हैं। हमारे लिए तो यह दीपावली का त्यौहार खुशयां और रौशनी से भरा हुअ होता है परन्तु उनके जीवन में तो अँधेरा ही छाया होता है, क्या फायदा ऐसे दिए का जो किसी के जीवन में उजाला ना कर सके। हम त्योहारों पे कितना पैसा बरबाद करते हैं पर कभी यह नहीं सोचते हैं कि उस में से थोड़े से पैसे बचा के हम उन गरीब और असहाय बच्चों कि भी मदद कर दें, इससे उनकी सारी परेशानियां तो दूर नहीं होंगी परन्तु उनके जीवन में ख़ुशी कि एक छोटी सी किरण तो आएगी, कुछ पल केलिए ही सही पर उनके चेहरे पर मुस्कान की चमक तो आएगी। हमें बस थोड़ी सी ख़ुशी ही तो देनी है उन बच्चों को और उन्हें एहसास दिलाना है कि त्यौहार सिर्फ हमारा ही नहीं उनका भी है।
प्रसिद्ध कवी गोपालदास सक्सेना जिन्हें विशेषतया हम सब ‘नीरज’ नाम से जानते हैं उन्हों नें अपने कविता ‘धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ’ के माध्यम से इस बात को दर्शाने कि चेष्टा कि है। गोपालदास सक्सेना एक हिंदी जगत के बहुत ही सुविख्यात कवी और लेखक थें जिनका जन्म पुरावली (महेवा, उत्तर प्रदेश) में 4 जनवरी 1925 को हुई थी। गोपालदास कि कविताओं नें हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग छाप छोड़ने में कामियाब हुई है। उन्होंने हिंदी साहित्य के साथ-साथ हिंदी फिल्म जगत में भी अपना उत्कृष्ट योगदान दिया है। अलीगढ के धर्म समाज कॉलेज में वे काफी समय तक प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत रहें। 19 जुलाई 2018 को गोपालदास सक्सेना ‘नीरज ‘ का निधन 93 वर्ष की आयु में AIIMS अस्पताल में हो गया।
आप उनकी प्रसिद्ध कविता ‘धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ’ नीचे पढ़ सकते हैं जिसके माध्यम से उन्होंने दीपावली को एक अलग नज़रिए से देखा है और कहा है कि बस दीपक जलानें से हमारे मन का अँधेरा नहीं मिट जाता बल्कि हमें अपने मन के अन्धकार को हटाने केलिए हमें अपने मन से द्वेष और घृणा को हटाना होगा और दूसरों के प्रति प्रेम भाव रखना होगा। जैसे दिया खुद जल के प्रकाश फैलाता है ठीक उसी प्रकार हमें भी दिए के प्रति दूसरों के जीवन से अन्धकार को हटानें का प्रयत्न करना चाहिए।
कविता :
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफन रात का हर चमन पर पड़ा है,
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
सृजन शान्ति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाये
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा,
कि जब प्यार तलावार से जीत जाये,
घृणा बढ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया क़ैद जिसने उसे शक्ति छल से
स्वयं उड़ गया वह धुंआ बन पवन में,
न मेरा-तुम्हारा सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
मगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा,
न फिर अग्नि कोई रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हंसाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
- गोपालदास "नीरज"
संदर्भ :
1. http://lamhon-ke-jharokhe-se.blogspot.com/2009/09/blog-post_28.html 
                                         
                                         
                                         
                                        