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छोटे सिर तथा मुलायम खोल वाला कछुआ, जिसे सॉफ्टशेल टर्टल (Softshell turtle) कहा जाता है, कछुए की एक बड़ी प्रजाति है, जिसकी लंबाई 110 सेंटीमीटर से भी अधिक हो सकती है! यह प्रजाति वंश चिट्रा (Chitra) की तीन प्रजातियों में से एक है तथा वैज्ञानिक तौर पर इसे चिट्रा इण्डिका (Chitra indica) के नाम से जाना जाता है।लगभग 400 लाख वर्ष से भी पहले इन तीनों प्रजातियों में अन्य सभी जीवित कछुओं से विभिन्नता उत्पन्न होने लगी।यह वो समय था, जब अंतिम बार मनुष्यों के पूर्वज तथा तामारिन्स (Tamarins) और कैपुचिन (Capuchin) बंदरों के पूर्वज एक ही थे। कछुए की यह लुप्तप्राय प्रजाति इस्लामिक गणराज्य के सतलज और सिंधु नदी घाटी और भारत की गंगा, गोदावरी, महानदी और नेपाल (Nepal) और बांग्लादेश (Bangladesh) की नदी घाटियों में पायी जाती है। ट्राईऑनीसाइकिडे (Trionychidae) परिवार की एक बहुत बड़ी, जलीय प्रजाति है।यह प्रजाति रेतीले धरातल के साथ स्पष्ट, बड़ी या मध्यम नदियों में रहना पसंद करती है। इसके ऊपरी शरीर का रंग कहिया (ऑलिव -Olive) या कहिया-हरा होता है तथा खोल या कवच 1.1 मीटर तक हो सकता है। खोल के ऊपर की त्वचा को केरापेस (Carapace) कहा जाता है, जिस पर रीढ की हड्डी जैसी एक मध्य रेखा (मिडलाइन-Midline) मौजूद होती है, जिसे केरापेसियल पट्टी भी कहा जाता है। केरापेस में आगे के हिस्से पर मौजूद घंटी नुमा पैटर्न (Bell-like pattern) इसमें अनुपस्थित होता है। सिर और गर्दन पर मौजूद धारियों पर गहरे रंग के धब्बे मौजूद होते हैं। इसका रंग नदियों में पायी जाने वाली वनस्पतियों से मिलता-जुलता है, इस प्रकार यह शारीरिक सरंचना इन्हें शिकारियों से सुरक्षा प्रदान करती है।उनके आहार में मछली, मेंढक, क्रस्टेशियंस (Crustaceans) और मोलस्क (Molluscs) शामिल हैं। अपनी विशिष्ट आकारिकी के कारण यह अपने शिकार पर घात लगाकर हमला करती है। मध्य भारत में यह प्रजाति मानसून के दौरान प्रजनन करती है, जबकि बाकी हिस्सों में इसका प्रजनन शुष्क मौसम के दौरान होता है।यह करीब 65-193 अंडे दे सकती है। 1900 के दशक के दौरान अन्य प्रजातियों की तुलना में इसका उपभोग बहुत अधिक मूल्यवान नहीं था, लेकिन 1980 के दशक तक भारत में खपत के लिए इनका व्यापार महत्वपूर्ण संख्या में किया गया।कछुए की यह विचित्र प्रजाति अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और भोजन के लिए किये जाने वाले शिकार का सामना कर रही है।
उनके अंडों को उन समुद्र तटों से आसानी से पाया जा सकता, जहां वे लेटे होते हैं। वे स्थान जहां ये जीव अंडे देते हैं, बांधों के निर्माण से लगातार बाढ़ और अन्य समस्याओं से ग्रसित हैं। प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ ने इसे रेड लिस्ट (Red List) में लुप्तप्राय जीव के रूप में सूचीबद्ध किया है। इसके अलावा 1972 के भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची II में भी इसे रखा गया है। यह भारतीय उपमहाद्वीप के नदी पारिस्थितिक तंत्र में व्यापक रूप से पायी जाती है, किंतु यह प्रजाति अपनी सीमा में कहीं भी उच्च घनत्व पर मौजूद नहीं है।इसका आहार और निवास विशेष हैं, इसलिए मानव द्वारा होने वाली गतिविधियों का इसके भोजन और आवास पर जो असर पड़ता है, वह इस प्रजाति के लिए अनुपयुक्त हो जाता है।यह प्रजाति मानव शोषण (मांस और अन्य भागों के लिए) और अपने नदी आवासों में परिवर्तन होने के कारण संकटग्रस्त है।छोटे सिर और नरम खोल वाले कछुओं का इसके निचले खोल पर पाये जाने वाले हल्के पीले रंग के जिलेटिनस (Gelatinous) पदार्थ (कैलिपी - Calipee) तथा तंतु-उपास्थि (Fibrocartilage) के लिए बड़े पैमाने पर शिकार किया जाता है। उबालने और सुखाने के बाद, इसे पारंपरिक दवाओं और सूप के निर्माण के लिए बांग्लादेश या नेपाल होते हुए चीन (China) भेज दिया जाता है। 30 किलोग्राम वाले एक वयस्क कछुए से 650 ग्राम कैलिपी प्राप्त किया जा सकता है। गंगा नदी के तट पर रहने वाला स्थानीय समुदाय इस प्रजाति के अंडे और मांस का सेवन भारी मात्रा में करता है।बंदी प्रजनन कार्यक्रम (Captive breeding programme)के अलावा भारत में इस प्रजाति के संरक्षण के लिए कोई ठोस संरक्षण उपाय नहीं किए गए हैं, हालांकि पूर्वोत्तर भारत में स्थित मंदिरों के तालाब नरम खोल वाले कछुओं के लिए एक सुरक्षित आवास के रूप में उभरे हैं।पर्यावरणीय डीएनए (Environmental DNA - eDNA) निष्कर्षण ने असम के मंदिर में मौजूद तालाबों में कछुओं की विशिष्ट प्रजातियों की उपस्थिति दर्ज की है।इन तालाबों में विशिष्ट किस्मों की उपस्थिति की पुष्टि करने के लिए वैज्ञानिकों ने पर्यावरणीय डीएनए को निकालने की तकनीक विकसित की है, ताकि विशिष्ट किस्मों की उपस्थिति की पुष्टि की जा सके। यहां चिट्रा इंडिका समेत एन. निग्रीकन्स (N. nigricans) और निल्सनिया गैंगेटिका (Nilssonia gangetica) की पुष्टि भी की गयी है। ईडीएनए परीक्षण शारीरिक रूप से नमूनों को इकट्ठा किए बिना एक क्षेत्र की जैव विविधता का पता लगाने हेतु एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभर रहा है।
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