जिसके हाथ में मक्खन, वही खोज रहा घी? श्रीलंका की स्थिति से क्या है खाद्य सुरक्षा हेतु सीख?

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जिसके हाथ में मक्खन, वही खोज रहा घी? श्रीलंका की स्थिति से क्या है खाद्य सुरक्षा हेतु सीख?

दुनियाभर के कई सफल लोगों और महान दार्शनिकों ने "दूसरों की गलतियों से सीखो" की अवधारणा पर बहुत अधिक जोर दिया है! लेकिन वास्तव में हमें, न केवल दूसरे की गलतियों, बल्कि उनकी सफलताओं से भी बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है! इन दोनों कथनों की प्रमाणिकता को साबित करने के लिए, आज हम श्रीलंका और सऊदी अरब के भू-राजनितिक हालातों को समझेंगे की, आखिर क्यों, एक देश प्रबल संभावनाओं के बावजूद, आज भुखमरी और कंगाली का सामना कर रहा है! वही दूसरी ओर बंजर रेगिस्तान में खड़ा, दूसरा देश आज अपनी सफलता के दम पर पूरी दुनियां में एक मिसाल बन गया है! चलिए जानते हैं की, भारत इन दोनों देशों द्वारा लिए गए सही-गलत फैसलों से क्या सीख सकता है?
लगभग 21.5 मिलियन आबादी वाले देश, श्रीलंका,ने 2020 में 333.8 मिलियन डॉलर और 2021 में 317.7 मिलियन डॉलर मूल्य के, डेयरी उत्पादों का आयात किया। इन दो वर्षों में पूरे देश में कुल 89,000 टन दूध पाउडर (Whole Milk Powder (WMP) का आयात किया गया था। जब एक किलो डब्ल्यूएमपी, में पानी मिलाकर, उसे पुनर्गठित किया जाता है, तो लगभग 8.5 लीटर, टोंड दूध में, 3 प्रतिशत वसा और 8.5 प्रतिशत ठोस-गैर-वसा सामग्री प्राप्त होती है। श्रीलंका द्वारा 2020 में आयात किए गए, 89,000 टन पाउडर का, लगभग 2.1 मिलियन लीटर प्रति दिन (MLPD) के बराबर दूध "उत्पादित" होगा। श्रीलंका अपनी गायों और भैंसों से, 1.3 एमएलपीडी दूध पैदा करता है। लेकिन फिर भी वह अपने 60 प्रतिशत से अधिक दूध के लिए, आयात पर ही निर्भर है। हालांकि आज श्रीलंका के पास दैनिक राशन का आयात करने के लिए भी विदेशी मुद्रा भंडार की भारी कमी है! ऐसे में दूध पाउडर का आयात तो भूल ही जाइये।
वहीं दूसरे छोर पर, सऊदी अरब है, जहां 35 मिलियन से अधिक निवासी (आप्रवासी सहित) रहते हैं, और यहां दुनिया की सबसे बड़ी एकीकृत डेयरी कंपनी भी है। यहां की अलमारई कंपनी (Almarai company) के पास रेगिस्तानी क्षेत्र में ही छह डेयरी फार्म हैं, जिनमें एक साथ 3.5 मिलियन लीटर प्रतिदिन (MLPD) से अधिक दूध का उत्पादन करने वाली लगभग 107, 000 होल्स्टीन फ्रीज़ियन (Holstein Friesian) गायें हैं। इन जानवरों को अमेरिका और यूरोप से यहां मंगवाया जाता है। इनके लिए पूरा चारा (प्रति वर्ष लगभग 1.5 मिलियन टन मक्का, सोयाबीन भोजन, बिनौला तिलहन और अन्य सामग्री) भी विदेशों से खरीदी जाती है। कंपनी ने अल्फाल्फा घास (alfalfa grass) उगाने के लिए कैलिफोर्निया, अर्जेंटीना और रोमानिया (California, Argentina and Romania) में हजारों एकड़ जमीन भी खरीदी है, जिसे बाद में मवेशियों को खिलाने के लिए वापस सऊदी अरब में लाया जाता है।
अब इन दोनों देशों के बीच एक बड़े अंतर को देखते हैं:
घर में ही सभी उत्पादन संभावनाओं के बावजूद, एक देश WMP का आयात कर रहा है और आज अनाज- रोटी के लिए भी तरस रहा है। वही इसके विपरीत दूसरा देश, रचनात्मक संभावनाओं का निर्माण करते हुए, अपना सारा दूध घरेलू रूप से उत्पादित करता है!
अब प्रश्न उठता है की आखिर सऊदी अरब उन गायों से अपना दूध बनाने के लिए इतना कष्ट क्यों उठा रहा है, जिन्हे 50 डिग्री सेल्सियस रेगिस्तानी तापमान से बचाने के लिए पंखे और पानी की बूंदों का छिड़काव भी किया जाता है? इसका उत्तर है "खाद्य सुरक्षा"। दरअसल सऊदी सहित, कई फारसी देशों ने भी अलमारई मॉडल की नकल की है! वह, हरे चारे की खेती के लिए आवश्यक भूमि, पानी या जलवायु नहीं होने के बावजूद दूध जैसे बुनियादी भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए, किसी भी कीमत का भुगतान करने के लिए तैयार हैं। वही इसके विपरीत, श्रीलंका के पास सुपर आयातक कहलाने के बजाय, डेयरी महाशक्ति बनने के लिए सभी प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं। एक प्रसिद्ध तमिल कहावत है: ("कैले वेन्नई, अनल नेरुक्कु अलायरन अर्थात जिसके हाथ में मक्खन है, वही घी खोज रहा है।)" वास्तव में श्रीलंका ने, मक्खन को अपनी उंगलियों से फिसलने दिया। अब इस पूरी प्रक्रिया से सीख लेते हुए भारत के लिए भी कुछ महत्वपूर्ण सबक हैं।
दरअसल हम भी खाद्य तेलों के लिए, दूसरे देशों से अत्यधिक आयात पर वैसे ही निर्भर है, जैसे श्रीलंका डेयरी उद्योग के लिए रहा है।
भारत सालाना 13.5-14.5 मिलियन टन, वनस्पति तेल का आयात करता है, जो उसकी कुल खपत का लगभग 60 प्रतिशत है। हालांकि कुछ समय पहले तक, यह मायने नहीं रखता था, क्यों की तब तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें भी कम थी और आयात बिल भी, 2012-13 में 9.85 बिलियन डॉलर से गिरकर 2019- 20 में 9.67 बिलियन डॉलर हो गया था। भारतीय उपभोक्ताओं ने 2019 में आयातित पाम, सोयाबीन और सूरजमुखी तेल के लिए कमोबेश उतना ही भुगतान किया जितना की 2012 में किया गया था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कहानी पूरी तरह से बदल गई है! दरसल अधिकांश तेलों की खुदरा कीमतें दोगुनी या उससे अधिक हो गई हैं। भारत के वनस्पति तेल आयात का मूल्य, 2021-22 में रिकॉर्ड 19 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। इसने भारत के लिए, आवश्यक खाद्य वस्तुओं के आयात पर अत्यधिक निर्भरता के खतरों को उजागर कर दिया है। हालांकि भारत श्रीलंका की तरह विदेशी मुद्रा संकट का सामना नहीं कर रहा है, यही कारण है की हम इसे उच्च वैश्विक कीमतों पर भी आयात कर रहे है। लेकिन यह भारतीय अर्थव्यवस्था और उपभोक्ताओं के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं है की, उन्हें इतनी बड़ी कीमत पर तेल की खरीदारी करनी पड़े। वह भी तब जब संभावनाएं हमारे पक्ष में हो सकती हैं।
हमने खाद्य तेल की कम कीमतों को हल्के में लिया था, ठीक उसी तरह जैसे श्रीलंका के लोगों ने आयातित पाउडर से "उत्पादित" दूध को हल्के में लिया था। श्रीलंका और सऊदी अरब की आबादी से कई गुना अधिक आबादी वाले देश के रूप में, भारत को बुनियादी खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भरता की रणनीति बनाने की सख्त जरूरत है।

संदर्भ
https://bit.ly/3aHjpnx

चित्र संदर्भ
1. श्रीलंका में सरकार विरोधी प्रदर्शन 2022, को दर्शाता एक चित्रण (Wikimedia)
2. दूध पाउडर, को दर्शाता एक चित्रण (OpenFoodFacts)
3. सऊदी अरब में अलमारई अल बदिया फार्म को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
4. ताड़ गुठली से बना ताड़ के तेल को दर्शाता एक चित्रण (Wikimedia)