जब लखनऊ बना था आज़ादी का गढ़: बेगम हज़रत महल की बहादुरी की दास्तान

उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
25-08-2025 09:29 AM
जब लखनऊ बना था आज़ादी का गढ़: बेगम हज़रत महल की बहादुरी की दास्तान

क्या आप जानते हैं कि 1857 की आज़ादी की पहली लड़ाई केवल मेरठ या दिल्ली तक सीमित नहीं थी? लखनऊ, नवाबों का शहर, तहज़ीब की मिसाल और सांस्कृतिक धरोहर का गढ़, उस समय स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख केंद्र बना था। जब पूरे भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ गुस्सा उबाल पर था, तब लखनऊ में भी चुप्पी नहीं थी। यहाँ की गलियों, इमारतों और किलों ने क्रांति की आवाज़ सुनी, और यहां की जनता ने बेगम हज़रत महल जैसी वीरांगना के नेतृत्व में विद्रोह का बिगुल बजाया। 1857 का यह विद्रोह महज़ एक सैनिक बगावत नहीं था, बल्कि यह जनता, किसानों, सैनिकों, नवाबों और महिलाओं, सभी वर्गों की साझी लड़ाई थी। लखनऊ की गलियों में अंग्रेज़ी अफ़सरों के ख़िलाफ़ नारों की गूंज थी, पुराने महलों में क्रांतिकारियों की बैठकों की सरगर्मी थी और जनता के दिलों में एक ही सपना था, आज़ादी।
इस लेख में हम जानेंगे कि लखनऊ ने किस तरह इस महान आंदोलन में अपनी विशेष भूमिका निभाई, किस तरह से अंग्रेज़ों की नीतियों ने लोगों को विद्रोह के लिए मजबूर किया, और किस तरह बेगम हज़रत महल जैसी साहसी महिला ने इस लड़ाई में नेतृत्व करते हुए इतिहास रच दिया। साथ ही, हम 1857 के विद्रोह के बाद लखनऊ में हुए सामाजिक और राजनीतिक बदलावों को भी समझेंगे।

1857 का विद्रोह - अवध और लखनऊ की ऐतिहासिक भूमिका
जब भी 1857 की क्रांति की बात होती है, अवध और ख़ासकर लखनऊ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उस समय यह इलाका केवल एक सांस्कृतिक केंद्र ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से भी बेहद महत्वपूर्ण था। नवाब वाजिद अली शाह के नेतृत्व में लखनऊ संगीत, नृत्य, साहित्य और स्थापत्य कला का गढ़ बन चुका था। पर जब अंग्रेज़ों ने अचानक 1856 में अवध को अपनी हुकूमत में ले लिया, तो यह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं था, यह पूरे समाज के आत्मसम्मान और परंपराओं पर सीधा हमला था। लखनऊ की दरबार संस्कृति, लोगों की जीवनशैली और नवाबों की पारंपरिक शासन व्यवस्था को जब अंग्रेज़ों ने तोड़ा, तो यहां के आम लोग, ज़मींदार, कवि, कलाकार और सैनिक, सभी वर्गों में आक्रोश उमड़ पड़ा। अवध की यह ऐतिहासिक भूमि बहुत जल्दी ब्रिटिश (British) विरोधी आंदोलन का उग्र केंद्र बन गई, और 1857 का विद्रोह यहां से पूरे उत्तर भारत में फैल गया।

अंग्रेज़ों का नियंत्रण और अवध में जनता का असंतोष
अवध को जब 1856 में अंग्रेज़ों ने अपने अधीन किया, तो नवाब वाजिद अली शाह को बिना किसी स्पष्ट कारण के गद्दी से हटाकर कलकत्ता भेज दिया गया। इस एक घटना ने अवध की आत्मा को झकझोर दिया। लोगों ने इसे राजनीतिक अन्याय ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अपमान के रूप में देखा। इसके बाद, अंग्रेज़ों ने अवध की पारंपरिक सेना को भंग कर दी और नई रेजिमेंट (regiment) बनाई, जिसमें पुराने अनुभवी सैनिकों को जगह ही नहीं मिली। हज़ारों पूर्व सैनिक, जिनके पास हथियार तो थे लेकिन रोज़गार नहीं, अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ एक तैयार ताकत बन गए। इसके साथ ही अंग्रेज़ों ने घरों, महलों और धार्मिक स्थलों को तोड़कर प्रशासनिक भवन बनाए, जिससे लोगों के दिल टूट गए। अंग्रेज़ी अफसरों ने कर वसूली बढ़ाई, व्यापारियों पर नए कानून लादे और ज़मींदारों की ज़मीनें जब्त कीं। इस तरह गांव से लेकर शहर तक अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ गुस्से की आग सुलगने लगी।

लखनऊ की 1857 के विद्रोह के दौरान की पेंटिंग को संदर्भित करता एक चित्रण

चर्बी वाले कारतूस और मच्छी भवन की फाँसी - विद्रोह की चिंगारी
1857 की क्रांति की सबसे बड़ी चिंगारी बनी चर्बी वाले कारतूसों की कहानी। जब लखनऊ छावनी में तैनात भारतीय सैनिकों को नए इनफील्ड राइफल (infield rifle) के कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी मिलने का शक हुआ, तो यह धार्मिक असहिष्णुता की सीमा पार कर चुका था। 2 मई 1857 को लखनऊ के कई सैनिकों ने इन कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। इसके बदले में, अंग्रेज़ों ने 20 सैनिकों को मच्छी भवन किले के सामने फाँसी पर चढ़ा दिया। यह खबर जंगल की आग की तरह फैली और लखनऊ में जनता सड़कों पर उतर आई। लोग समझ गए थे कि अंग्रेज़ केवल शासन करने नहीं आए हैं, बल्कि उनकी संस्कृति और आस्था को भी कुचलना चाहते हैं। इस घटना ने लखनऊ को दिल्ली, मेरठ और कानपुर जैसे स्थानों के साथ 1857 के महासंग्राम में अग्रिम मोर्चे पर ला खड़ा किया।

बेगम हज़रत महल - लखनऊ की नायिका और स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना
अगर 1857 के विद्रोह की नायिकाओं की बात करें, तो बेगम हज़रत महल का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। वे सिर्फ एक नवाबी बेगम नहीं थीं, बल्कि एक योद्धा, रणनीतिकार और प्रेरणा की मूर्ति थीं। जब वाजिद अली शाह को निर्वासित कर दिया गया, तब बेगम ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने पुत्र बिरजिस क़द्र को अवध का शासक घोषित किया और खुद 'रानी माँ' बनकर शासन की बागडोर संभाली। उन्होंने न सिर्फ सैनिकों को संगठित किया, बल्कि गरीबों और किसानों को भी इस संघर्ष से जोड़ा। अपने आभूषण तक बेच दिए, ताकि शहर की सुरक्षा के लिए किलेबंदी करवाई जा सके। अंग्रेज़ों को लखनऊ से पीछे हटने पर मजबूर कर देना कोई मामूली बात नहीं थी। जब 1858 में अंग्रेज़ों ने फिर से हमला किया और शहर पर कब्ज़ा किया, तब भी हज़रत महल पीछे नहीं हटीं। नेपाल में निर्वासन के दौरान भी उन्होंने अंग्रेज़ी शासन को कभी स्वीकार नहीं किया और आख़िरी सांस तक स्वतंत्रता के लिए लड़ती रहीं। वे भारत की आज़ादी की कहानी में एक अमर प्रतीक बन गईं।

विद्रोह के बाद लखनऊ में राजनीतिक और सामाजिक बदलाव
1857 के विद्रोह को अंग्रेज़ों ने कुछ ही महीनों में दबा तो दिया, लेकिन इसका असर कई दशकों तक भारतीय समाज और राजनीति पर रहा। इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) को सत्ता से हटा दिया और भारत पर सीधे "ब्रिटिश क्राउन" (British Crown) का शासन शुरू हुआ। भारतीय सेना को नए तरीके से संगठित किया गया और वे रेजिमेंटें जो विद्रोह में शामिल थीं, उन्हें भंग कर दिया गया। ब्रिटिश शासन ने यह भी महसूस किया कि भारतीयों को पूरी तरह नजरअंदाज़ करना खतरनाक है। इसलिए 1861 की नई विधान परिषद में भारतीयों को पहली बार नामित किया गया। लखनऊ में शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्थानों की स्थापना हुई, मेडिकल कॉलेज (medical college), विश्वविद्यालय, और पुस्तकालयों ने एक नए मध्यम वर्ग को जन्म दिया, जो पढ़ा-लिखा था और धीरे-धीरे राष्ट्रवाद की भावना से भरने लगा। इस बदलाव का असर लखनऊ की संस्कृति पर भी पड़ा। जहां पहले नवाबी तहज़ीब थी, वहीं अब धीरे-धीरे अंग्रेज़ी आधुनिकता ने जगह लेनी शुरू कर दी। हज़रतगंज जैसे इलाके दोनों संस्कृतियों का मेल बनकर उभरे। इस तरह लखनऊ ने अपनी सांस्कृतिक पहचान को कायम रखते हुए खुद को नए युग के साथ जोड़ा।

संदर्भ-

https://shorturl.at/MS2TO 
https://shorturl.at/l4dOb 

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