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लखनऊ के लोग अपनी नफ़ासत और ख़ास अंदाज़ के लिए जाने जाते हैं - यहाँ की तहज़ीब, पहनावा और व्यक्तित्व में एक अलग ही पहचान झलकती है। हाल के वर्षों में, शहर के युवाओं और फ़ैशन पसंद लोगों के बीच एक नया रुझान तेजी से उभर रहा है - स्नीकर्स (sneakers) पहनने का स्टाइल। पहले जहाँ जूते केवल आराम और काम के लिए पहने जाते थे, वहीं अब स्नीकर्स लखनऊ की जीवनशैली, स्टाइल और व्यक्तित्व का अहम हिस्सा बन चुके हैं। चाहे कॉलेज की गलियाँ हों, कैफ़े हों, या हज़रतगंज और गोमती नगर जैसे लोकप्रिय मार्केट - लखनऊ अब स्नीकर्स के रंग में रंगता नज़र आता है।
आज के इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि स्नीकर्स की शुरुआत कब और कैसे हुई, और कैसे यह खेल के जूतों से आगे बढ़कर आधुनिक फैशन की पहचान बन गए। इसके बाद, हम यह जानेंगे कि पॉप-कल्चर (Pop-Culture), फिल्मों, म्यूज़िक और मशहूर हस्तियों ने किस तरह स्नीकर संस्कृति को नई दिशा दी। फिर हम देखेंगे कि आज स्नीकर्स किस तरह व्यक्तिगत अभिव्यक्ति, पहचान और कस्टम डिज़ाइन का माध्यम बन चुके हैं। अंत में, हम यह समझेंगे कि स्नीकर उद्योग कैसे पर्यावरण-अनुकूल और टिकाऊ विकल्पों की ओर बढ़ रहा है, और इस बदलाव का महत्व क्या है।

स्नीकर्स का इतिहास और उनकी शुरुआत
स्नीकर्स की कहानी 19वीं सदी के शुरुआती दौर की है, जब दुनिया तेजी से बदल रही थी और लोग अपने दैनिक जीवन में आराम की नई परिभाषाएँ खोज रहे थे। 1830 के दशक में ब्रिटेन (Britain) में पहली बार कैनवास के ऊपर रबर के मुलायम सोल वाला जूता बनाया गया। यह जूता समुद्र किनारे टहलने के लिए बनाया गया था, क्योंकि रबर का सोल पैरों को नमी से बचाता था और चलते समय आवाज़ भी नहीं होती थी। इसी कारण इन्हें "स्नीक" अर्थात् चुपचाप चलने वाले जूते कहा गया और आगे चलकर इन्हें “स्नीकर्स” नाम मिला। समय के साथ इन्हें खेलों में इस्तेमाल करने के लिए अनुकूलित किया गया और नई तकनीकों तथा नए डिज़ाइनों के साथ इन्हें और विकसित किया गया। धीरे-धीरे स्नीकर्स सिर्फ़ एक साधारण जूता नहीं रहे, बल्कि व्यक्ति की सुविधा, पहचान और जीवनशैली का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए। आज स्नीकर्स पहनना केवल एक जरूरत पूरी करना नहीं है, बल्कि यह आधुनिक संस्कृति और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन चुका है।

खेल के जूतों से फैशन आइकॉन तक स्नीकर्स का सफ़र
एक समय था जब स्नीकर्स केवल एथलीट्स द्वारा मैदान पर पहने जाने वाला फुटवेयर (footwear) माना जाता था, लेकिन 20वीं सदी के मध्य में यह कहानी बदलने लगी। कॉनवर्स (Converse) द्वारा बनाए गए ऑल स्टार (All Star) स्नीकर्स ने बास्केटबॉल खिलाड़ियों और फिर आम युवाओं में लोकप्रियता हासिल की। इसके बाद 1980 में नाइकी (Nike) ने दुनिया को एयर जॉर्डन 1 (Air Jordan 1) दिया, जिसे महान बास्केटबॉल खिलाड़ी माइकल जॉर्डन (Michael Jordan) स्वयं पहनते थे। यह जूता प्रदर्शन की क्षमता से आगे बढ़कर एक पहचान और प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। यही वह मोड़ था जब स्नीकर्स ने खेल के मैदान से फैशन की दुनिया में अपनी जगह बना ली। आज लखनऊ में यह बदलाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। शहर के कॉलेजों, कैफे (cafe), कला आयोजनों और गलियों में युवाओं की शैली में स्नीकर्स एक अहम भूमिका निभा रहे हैं। हज़रतगंज, गोमती नगर, चारबाग़ और सहारा गंज जैसे क्षेत्रों में स्नीकर्स की दुकानें सिर्फ़ खरीदारी की जगह नहीं, बल्कि बातचीत और शैली की समझ के केंद्र बन चुकी हैं। किसी के पैरों में कौन सा मॉडल है, क्या वह लिमिटेड एडिशन (limited edition) है या पुराने क्लासिक कलेक्शन (classic collection) में से - यह सब आज आम चर्चा का विषय है। स्नीकर्स अब लखनऊ की युवा पहचान का हिस्सा हैं।

पॉप-कल्चर, सेलिब्रिटीज़ और स्नीकर ट्रेंड का प्रभाव
आज सोशल मीडिया, म्यूज़िक वीडियो, फिल्में और वेब सीरीज़ (web series) फैशन को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। रैप और हिप-हॉप कल्चर (Hip-hop Culture) ने स्नीकर्स को सिर्फ़ एक जूते की जगह एक बयान, एक एटिट्यूड (attitude) और एक ऊर्जा का प्रतीक बना दिया है। रणवीर सिंह की मुक्त और साहसिक फैशन शैली, दिलजीत दोसांझ की सहज पर आधुनिक लुक, विराट कोहली और केएल राहुल की स्पोर्टी पर्सनैलिटी (sporty personality) - इन सबने स्नीकर्स को भारत में ट्रेंड और प्रतिष्ठा का दर्जा दिया है। लखनऊ का युवा भी इस प्रभाव से अछूता नहीं है। कॉलेज फेस्ट्स (college fests) में, स्ट्रीट फोटोग्राफी (street photography) के बैकड्रॉप्स (backdrops) में, डांस बैटल्स (dance battles) में और नए उभरते रैप सीन में स्नीकर्स एक आम दृश्य हैं। स्नीकर्स पहनना अब केवल अच्छा दिखने के लिए नहीं, बल्कि अपनी सोच, पसंद और स्टाइल की भाषा बोलने जैसा है। हर व्यक्ति कह रहा होता है - “मेरे जूते मुझे बयान करते हैं, बिना कुछ कहे।”
व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के रूप में स्नीकर और कस्टमाइज़ेशन का चलन
लखनऊ में स्नीकर्स सिर्फ़ खरीदे नहीं जाते, बल्कि नए रूप में जन्म भी लेते हैं। शहर में कस्टम स्नीकर्स की कला तेजी से बढ़ रही है। अमीनाबाद, जानकीपुरम, अलीगंज और गोमती नगर क्षेत्रों में युवा कलाकार स्नीकर्स को कैनवास की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। वे जूतों पर हाथ से पेंटिंग, इलस्ट्रेशन (Illustrations), कालिग्राफी (Calligraphy), ग्रैफिटी (Graffiti) और स्थानीय सांस्कृतिक तत्वों को उकेरते हैं। कोई अपने नाम के शुरुआती अक्षर बनवाता है, कोई लखनऊ की रूमी दरवाज़ा या बारा इमामबाड़ा की झलक जोड़ता है, तो कोई अपनी यादों और भावनाओं को रंगों में उतारता है। इस तरह का स्नीकर सिर्फ़ पहनने की चीज़ नहीं रहता। वह एक स्मृति, एक भावना और पहचान बन जाता है। लोग गर्व से कहते हैं - “ये मेरे जूते नहीं, यह मेरी कहानी है।”

पर्यावरण-अनुकूल स्नीकर: उद्योग में उभरती स्थिरता
जैसे-जैसे दुनिया पर्यावरण के प्रति अधिक जागरूक हो रही है, फैशन की दिशा भी बदल रही है। बड़े ब्रांड अब समझ रहे हैं कि खूबसूरत दिखने वाले जूतों के साथ-साथ धरती को सुरक्षित रखना भी ज़रूरी है। नाइकी (Nike), एडिडास (Adidas), प्यूमा (Puma), वेजा (Veja) और ऑलबर्ड्स (Allbirds) जैसी कंपनियाँ आज पुनर्नवीनीकृत प्लास्टिक, बायो-बेस्ड (bio-based) सामग्रियों और वेगन (vegan) लेदर (leather) का उपयोग कर नई डिज़ाइनें बना रही हैं, जिससे प्रदूषण और कार्बन (carbon) उत्सर्जन कम हो सके। लखनऊ के युवा भी इस बदलाव को गंभीरता से अपना रहे हैं। कॉलेजों और कैफ़े (cafe) संस्कृति में अब यह बातचीत आम है कि “स्टाइल तभी सुंदर है, जब वह संवेदनशील भी हो।” स्नीकर्स अब केवल फैशन का प्रतीक नहीं, बल्कि भविष्य और धरती के लिए लिए गए ज़िम्मेदार कदम का चिन्ह हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/3p7vrf86
https://tinyurl.com/mu4srb58
https://tinyurl.com/4ubuuw2x
https://tinyurl.com/38zaa4d9
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