मेरठ जानिए, एक ज़माने में सोने के भाव बिकतीं थीं चॉकलेट बनाने के लिए कोको की बीन्स

स्वाद - भोजन का इतिहास
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मेरठ जानिए, एक ज़माने में सोने के भाव बिकतीं थीं चॉकलेट बनाने के लिए कोको की बीन्स

क्या आपको पता है कि चॉकलेट का इतिहास लगभग 4,000 साल पुराना है? इसका सफ़र प्राचीन मेज़ोअमेरिका (Mesoamerica), यानी आज के मेक्सिको से शुरू हुआ था। वहीं, सबसे पहले कोको के पौधे उगाए गए, जिससे चॉकलेट बनती है। 

ओल्मेक सभ्यता (Olmecs) को चॉकलेट का पहला उपभोक्ता माना जाता है। उनके बाद यह ज्ञान माया और एज़्टेक सभ्यता (Aztecs) तक पहुँचा। लेकिन चॉकलेट सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं रही। 16वीं शताब्दी की शुरुआत में,  स्पेन (Spain) के हर्नान कोर्टेस (Hernán Cortés) इसे यूरोप लेकर गए। यही से चॉकलेट पूरी दुनिया में फैलने लगी। अब सवाल उठता है कि चॉकलेट को इसका मौजूदा नाम कैसे मिला? इसे पहले क्या कहा जाता था? और भारत में इसका इतिहास क्या है? आइए, इन सभी पहलुओं को विस्तार से समझते हैं। 

मायासंस्कृति का एक दृश्य जिसमें झागदार चॉकलेट का एक कंटेनर दर्शाया गया है! | चित्र स्रोत : Wikimedia

चॉकलेट की खोज एक मानव सभ्यता के लिए एक रोमांचक सफर साबित हुई! इतिहासकारों के अनुसार चॉकलेट की पहचान सबसे पहले ओल्मेक सभ्यता ने की थी। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने देखा कि चूहे बड़े चाव से कोको के फल खाते हैं। यह देखकर उन्हें समझ आया कि यह फल खाने योग्य हो सकता है। धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि यह पेड़ सिर्फ़ स्वाद के लिए नहीं, बल्कि कई दूसरे उपयोगों के लिए भी खास हो सकता है। ओल्मेक (1500-400 ईसा पूर्व) संभवतः पहले इंसान थे, जिन्होंने चॉकलेट का सेवन किया। हालांकि, उनकी चॉकलेट आज की तरह बार या मिठाई के रूप में नहीं, बल्कि एक पेय के रूप में थी। वे कोको बीन्स को पीसते, पानी में मिलाते और उसमें मसाले, मिर्च और जड़ी-बूटियाँ डालते। इस प्रक्रिया को कोए का सिद्धांत कहा जाता है। उन्होंने भूमध्यरेखीय मेक्सिको में कोको की खेती भी शुरू की।

समय के साथ, माया (600 ईसा पूर्व) और एज़्टेक (400 ईस्वी) सभ्यताओं ने भी कोको की खेती को अपनाया और उन्नत तरीके विकसित किए। उस समय कोको सिर्फ़ खाने-पीने की चीज़ नहीं थी, बल्कि इसका इस्तेमाल मुद्रा के रूप में भी होता था। 400 कोको बीन्स को ज़ोंटली (Zontli) और 8000 को ज़िक्विपिल्ली (Xiquipilli) कहा जाता था। एज़्टेक और  माया सभ्यता (Mayans) के साथ अपने युद्धों के दौरान, चिमीमेकेन लोगों ने जीते गए क्षेत्रों पर कर वसूलने के लिए कोको बीन्स को पसंदीदा माध्यम बनाया।

कोडेक्स टुडेला नामक एक दास्तावेज़ में वर्णित एक एज़्टेक महिला का एक बर्तन से दूसरे बर्तन में चॉकलेट डालकर झाग उत्पन्न करने का दृश्य ! | चित्र स्रोत : Wikimedia

इन प्राचीन सभ्यताओं के लिए कोको सिर्फ़ एक फल नहीं था, बल्कि समृद्धि का भी प्रतीक था। इसका इस्तेमाल धार्मिक अनुष्ठानों में भी किया जाता था। एज़्टेक देवता क्वेटज़ालकोटल (Quetzalcoatl), जो मान्यता के अनुसार कोको के पेड़ को मनुष्यों तक लेकर आए थे, उनकी पूजा में इसका विशेष स्थान था। इतना ही नहीं, कुलीन लोगों के अंतिम संस्कार में भी इसे प्रसाद के रूप में अर्पित किया जाता था।

मेसो-अमेरिका में जनसंख्या बढ़ने के साथ कोको का उत्पादन भी बढ़ता गया। लेकिन, अभी तक यह फल आम लोगों की पहुंच में नहीं था। यह केवल उच्च वर्ग और युद्ध के दौरान सैनिकों के लिए विशेष रूप से उपलब्ध था। इस दौरान, कोको के पुनः स्फूर्तिदायक और ताकत बढ़ाने वाले गुणों को व्यापक रूप से पहचाना जाने लगा था। इस तरह, एक साधारण फल से शुरू हुई कोको की यात्रा धीरे-धीरे एक मूल्यवान वस्तु, मुद्रा और शक्ति का प्रतीक बन गई।

आज जिसे हम "चॉकलेट" कहते हैं, वह हमेशा से इसी नाम से मशहूर नहीं थी। एज़्टेक सभ्यता में इसे "ज़ोकोलाटल" कहा जाता था, जिसका मतलब होता है "कड़वा पानी"। उस समय की चॉकलेट, आज की तरह मीठी नहीं थी, बल्कि यह एक कड़वा पेय हुआ करती थी। ओल्मेक सभ्यता की तरह, एज़्टेक भी इसे राजघरानों के लिए खास पेय और देवताओं का उपहार मानते थे।

लगभग 1680-1780 के दौरान, एक अज्ञात स्पेनिश कलाकार द्वारा बनाए गए इस चित्र में एक आदमी कोको पाउडर से चॉकलेट बना रहा है | चित्र स्रोत : Wikimedia

कोको बीन्स (Cocoa Beans) का महत्व इतना ज्यादा था कि एज़्टेक लोग इसे सोने से भी ज्यादा कीमती मानते थे। वे इन बीन्स का इस्तेमाल मुद्रा की तरह करते थे, यानी सामान खरीदने के लिए कोको बीन्स का लेन-देन होता था।

एज़्टेक लोगों का चॉकलेट से इतना गहरा लगाव था कि कहा जाता है, उनके राजा मोंटेज़ुमा II (Montezuma II) हर दिन गैलन भर चॉकलेट पीते थे! यह सिर्फ़ स्वाद के लिए नहीं था, बल्कि वे इसे ऊर्जा बढ़ाने और कामोत्तेजक के रूप में इस्तेमाल करते थे।

17वीं सदी की इस तस्वीर में एक तुर्क, एक चीनी और एक एज़्टेक व्यक्ति कॉफ़ी, चाय और चॉकलेट का लुत्फ़ उठाते हुए दिखाई दे रहे हैं। लगभग उसी समय, यूरोपीय लोगों ने पहली बार इन पेय पदार्थों की खोज की थी। | चित्र स्रोत : Wikimedia

यूरोप तक चॉकलेट कैसे पहुंची?

यूरोप में चॉकलेट कब और कैसे पहुंची, इसे लेकर कई कहानियाँ प्रचलित हैं। लेकिन   ज़्यादातर इतिहासकार मानते हैं कि स्पेन वह पहला यूरोपीय देश था, जहाँ चॉकलेट पहुंची।

- एक कहानी के मुताबिक, जब  क्रिस्टोफ़र कोलंबस (Christopher Columbus) 1502 में अमेरिका की यात्रा पर गए, तो उन्होंने एक व्यापारिक जहाज को रोककर कोको बीन्स की खोज की। वापस लौटते समय, वे इन बीन्स को स्पेन ले आए।

- एक दूसरी कहानी बताती है कि जब स्पेनिश विजेता हर्नान कोर्टेस एज़्टेक साम्राज्य पहुंचे, तो उन्हें वहाँ के लोगों ने चॉकलेट का स्वाद चखाया। जब कोर्टेस स्पेन लौटे, तो वे कोको बीन्स को अपने साथ ले आए और इसे एक राज़ की तरह छिपाकर रखा।

- एक और कहानी के अनुसार, 1544 में ग्वाटेमाला के  मायंस ने स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय को भिक्षुओं के ज़रिए चॉकलेट गिफ्ट में भेजी। इस तरह, चॉकलेट धीरे-धीरे स्पेन में लोकप्रिय होती गई।

चॉकलेट चाहे किसी भी तरीके से स्पेन पहुंची हो, लेकिन 1500 के दशक के अंत तक यह स्पेनिश दरबार की पसंदीदा चीज़ बन गई थी। 1585 में स्पेन ने औपचारिक रूप से चॉकलेट का आयात शुरू किया। इसके बाद, जब इटली और फ्रांस जैसे देशों के लोग अमेरिका पहुंचे, तो वे भी कोको बीन्स अपने देश लेकर गए।

18 वीं सदी में जाँ-एत्येन लियोतार (Jean-Etienne Liotard) द्वारा बनाई गई एक पेंटिंग में चॉकलेट का सेवन करती एक महिला (1744) का दृश्य | चित्र स्रोत : Wikimedia

धीरे-धीरे पूरे यूरोप में चॉकलेट का क्रेज़ फैलने लगा। इसकी मांग इतनी ज्यादा बढ़ गई कि विशाल चॉकलेट बागान बनाए गए, जहाँ हजारों गुलामों से काम करवाया गया। एज़्टेक लोग कड़वी चॉकलेट पीते थे, लेकिन यूरोपीय लोग इसे और स्वादिष्ट बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इसमें गन्ने की चीनी, दालचीनी और दूसरे मसाले मिलाकर हॉट चॉकलेट (Hot Chocolate) तैयार की। धीरे-धीरे लंदन, एम्स्टर्डम (Amsterdam) और अन्य यूरोपीय शहरों में अमीरों के लिए "चॉकलेट हाउस" (Chocolate House) खुलने लगे। यहाँ लोग बैठकर चॉकलेट ड्रिंक का आनंद लेते थे, जैसे आज हम कैफ़े में बैठकर पीते हैं।

चित्र स्रोत : Wikimedia

भारत में चॉकलेट का सफर: कब और कैसे हुई शुरुआत?

चॉकलेट का जो स्वाद आज हमें इतना पसंद है, उसकी शुरुआत भारत में अठारहवीं सदी के अंत में हुई थी। अंग्रेज जब भारत पर शासन कर रहे थे, तब वे अपने उपनिवेशों का इस्तेमाल कोको उगाने के लिए करने लगे। उन्हें चॉकलेट बहुत पसंद थी, और इसकी मांग लगातार बढ़ रही थी। दुनिया के कई हिस्सों में उन्होंने कोको की खेती शुरू करवाई। पश्चिमी  अफ़्रीका की मिट्टी कोको के लिए बेहतरीन साबित हुई, लेकिन भारत में स्थिति अलग थी। दक्षिण भारत में   अंग्रेज़ों ने क्रिओलो नाम की कोको किस्म लाने की कोशिश की, लेकिन यह यहां की जलवायु के अनुकूल नहीं हो सकी। हालांकि, श्रीलंका में यह किस्म पाई जा सकती है।

भारत में कोको की खेती बड़े पैमाने पर 1960 के दशक में शुरू हुई। इसका श्रेय कैडबरी को जाता है, जिसने विश्व बैंक और केरल कृषि विश्वविद्यालय के सहयोग से इस दिशा में काम किया। कैडबरी और अन्य संस्थानों ने देखा कि दक्षिण भारत के गर्म और आर्द्र जंगलों में कोको की अच्छी संभावनाएं हैं। इसके बाद, स्थानीय किसानों को कोको की खेती के बारे में जागरूक किया गया। वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने रिसर्च करके यह समझने की कोशिश की कि कौन-सी किस्में भारतीय जलवायु के लिए बेहतर हो सकती हैं और  ज़्यादा उपज दे सकती हैं। आज भारत में बड़े पैमाने पर कोको की खेती हो रही है। हालांकि, भारत अभी भी चॉकलेट उत्पादन के मामले में पश्चिमी देशों या  अफ़्रीका जितना आगे नहीं है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में इसमें   ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है। 

 

संदर्भ: 

https://tinyurl.com/274drfvr
https://tinyurl.com/29rfso3z
https://tinyurl.com/26dv9db9
https://tinyurl.com/245sgovg
https://tinyurl.com/2xtkcuv2

मुख्य चित्र: एक व्यक्ति के हाथ में कोको बीन्स (Wikimedia)