चंदौसी का गणेश चौथ मेला: गणपति भक्ति और गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल

विचार I - धर्म (मिथक/अनुष्ठान)
27-08-2025 09:30 AM
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चंदौसी का गणेश चौथ मेला: गणपति भक्ति और गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल

मेरठवासियों को गणेश चतुर्थी के पावन अवसर पर शुभकामनाएँ!
मेरठ से लगभग तीन घंटे की दूरी पर बसा चंदौसी नगर, हर साल भाद्रपद माह की चतुर्थी तिथि पर एक ऐसे आयोजन का साक्षी बनता है, जो केवल धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक समरसता का प्रतीक बन चुका है। गणेश चतुर्थी के इस अवसर पर आयोजित गणेश चौथ मेला न केवल विशाल रथयात्राओं, भव्य मूर्तियों और श्रद्धा की झलकियों से भरा होता है, बल्कि इसमें शामिल हर धर्म, जाति और आयु के लोग, आपसी भाईचारे की एक मजबूत तस्वीर पेश करते हैं। गणेश मंदिर से अर्श उल्ला खान बाबा की मजार तक जाने वाली चादरपोशी की परंपरा यह साबित करती है कि यह मेला केवल पूजा या उत्सव का आयोजन नहीं, बल्कि गंगा-जमुनी तहज़ीब की ज़िंदा मिसाल है।
इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे चंदौसी का गणेश चौथ मेला सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक बन चुका है और किन परंपराओं से यह लगातार लोगों को जोड़ता आ रहा है। सबसे पहले, हम देखेंगे कि यह मेला सन 1962 से श्री गणेश मेला परिषद के मार्गदर्शन में कैसे निरंतर आयोजित हो रहा है और समय के साथ इसकी सामाजिक भूमिका कैसे मजबूत हुई है। फिर, हम जानेंगे कि कोरोना काल के बाद 2022 में जब मेला दोबारा शुरू हुआ, तो उसमें नई ऊर्जा और उत्साह की क्या झलकियाँ थीं। इसके बाद, हम रेलवे की विशेष तैयारियों और लाखों श्रद्धालुओं की भागीदारी की चर्चा करेंगे, जो इस आयोजन को स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर पर ले जाती है। अंत में, हम मिलेंगे डॉक्टर गिरिराज किशोर से, जो पिछले 60 वर्षों से अपनी कला और भक्ति से हर साल 20 फीट ऊंची गणेश प्रतिमा बनाकर इस मेले को एक अलग ही पहचान देते हैं।

मेरठ के निकट चंदौसी का गणेश चौथ मेला: एक सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल
मेरठ से लगभग तीन घंटे की दूरी पर स्थित चंदौसी नगर हर साल गणेश चतुर्थी के मौके पर एक ऐसा मेला आयोजित करता है, जो धार्मिक आस्था से कहीं आगे जाकर सामाजिक समरसता का प्रतीक बन चुका है। यहां की गलियों में जब गणेश वंदना गूंजती है, तो हर घर का आंगन रोशनी से भर उठता है, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। इस मेले की सबसे खास बात यह है कि इसमें हर मज़हब, हर समुदाय के लोग बिना किसी भेदभाव के हिस्सा लेते हैं। गणेश मंदिर से शुरू होकर अर्श उल्ला खान बाबा की मजार तक की चादरपोशी की परंपरा इस आयोजन को एक अद्भुत सांप्रदायिक सौहार्द का रूप देती है। न सिर्फ़ दर्शनार्थी, बल्कि आयोजन की तैयारियों में भी हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई एक साथ काम करते हैं यही वह भारत है जिसे हम सपनों में देखते हैं और चंदौसी में जीते हैं।

सन 1962 से अनवरत परंपरा: श्री गणेश मेला परिषद की भूमिका
इस अनोखे मेले की नींव सन 1962 में श्री गणेश मेला परिषद द्वारा रखी गई थी। तब से लेकर आज तक, यह परिषद न केवल इस आयोजन की संरचना करती है, बल्कि इसकी आत्मा को भी जीवित रखे हुए है। 62 वर्षों से निरंतर जारी इस परंपरा ने आज मेले को सिर्फ़ एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक संस्था का रूप दे दिया है। परिषद की सबसे बड़ी विशेषता है, इसकी समावेशिता। हर साल मेले का उद्घाटन किसी एक विशिष्ट व्यक्ति द्वारा नहीं, बल्कि चार प्रमुख धर्मों के प्रतिनिधियों द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। यह नज़ारा दर्शकों को भावुक कर देता है, जब एक मंच पर विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ दीप प्रज्वलन करते हैं। यह मेला न केवल आस्था का पर्व है, बल्कि यह बताता है कि जब नीयत नेक हो, तो परंपरा भी एक नई मिसाल बन सकती है।

कोरोना के बाद नई शुरुआत: 2022 के आयोजन की प्रमुख झलकियाँ
कोरोना महामारी ने जैसे पूरे देश को रोक दिया था, वैसे ही चंदौसी का यह ऐतिहासिक मेला भी दो वर्षों तक थम गया। लेकिन जब 2022 में यह आयोजन फिर से शुरू हुआ, तो लोगों का जोश और भावनाएं मानो कई गुना बढ़ गई थीं। मेले की तैयारियों में शहर भर के लोग एक परिवार की तरह जुट गए। कलाकारों ने महीनों मेहनत कर झांकियां तैयार कीं, युवा स्वयंसेवकों ने रथ यात्रा को व्यवस्थित किया, और गृहणियों ने भोग की परंपरा को नई ऊर्जा दी। यह केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि एक सामाजिक पुनर्जन्म जैसा अनुभव था, जिसमें हर मुस्कुराता चेहरा मानो यही कह रहा था कि कठिनाइयाँ आईं, पर हमारी परंपरा न रुकी और न झुकी। यह आयोजन एक उदाहरण बना कि कैसे संस्कृति और श्रद्धा, विपरीत परिस्थितियों में भी हमें फिर से जोड़ सकते हैं।

रेलवे की विशेष तैयारी और लाखों भक्तों की भागीदारी
हर साल जब गणेश चौथ का मेला नजदीक आता है, तो चंदौसी शहर एक विशाल तीर्थक्षेत्र में बदल जाता है। दूर-दराज़ से लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं, कोई पैदल, कोई बस से, और अधिकतर ट्रेन से। उनकी सुविधा का विशेष ध्यान रखते हुए उत्तर रेलवे, खासकर मुरादाबाद मंडल, हर साल अतिरिक्त कोच की व्यवस्था करता है। 2022 और 2023 में तो ऋषिकेश, हरिद्वार, अलीगढ़ और बरेली की ट्रेनों में विशेष इंतज़ाम किए गए। यह केवल ट्रैफिक मैनेजमेंट (traffic management) नहीं, बल्कि उस सम्मान का संकेत है जो इस मेले को सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से प्राप्त है। श्रद्धालुओं के लिए बनाए गए अस्थाई शौचालय, मेडिकल स्टॉल (medical stall) और जल-सेवा केंद्र यह दिखाते हैं कि यह आयोजन जन-आस्था से संचालित होने वाला, लेकिन प्रशासनिक दृष्टि से भी सुव्यवस्थित आयोजन है।

गिरिराज किशोर की 20 फीट गणेश प्रतिमा: कला, परंपरा और नवाचार का संगम
हर साल मेले की आत्मा बनकर सामने आती है एक अनोखी मूर्ति, जो सिर्फ़ मिट्टी और रंगों से बनी आकृति नहीं, बल्कि साधना का मूर्त रूप है। 84 वर्षीय डॉक्टर गिरिराज किशोर, जिन्होंने 1962 से अब तक हर वर्ष खुद अपने हाथों से गणेश प्रतिमा बनाई है, आज भी उसी लगन से इस परंपरा को निभा रहे हैं। उनकी मूर्तियों में हर बार कोई नया नवाचार होता है, कभी चांदी की परत, कभी रंगीन शीशे, तो इस बार हजारों घुंघरुओं से सजी 20 फीट ऊंची मूर्ति। यह न केवल कला का चमत्कार है, बल्कि उस पीढ़ी की मेहनत और श्रद्धा का परिचायक भी, जिसने बिना किसी प्रचार के एक शहर को सांस्कृतिक रूप से विश्व मानचित्र पर रख दिया। गिरिराज जी कहते हैं, “यह सिर्फ़ मूर्ति नहीं, मेरा प्रण है कि जब तक सांस है, गणपति मेरे हाथों से हर साल आएंगे।”

संदर्भ- 

https://short-link.me/15-63