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मेरठ, जिसे आज उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख कृषि केंद्र और उपजाऊ गंगा-यमुना दोआब का दिल माना जाता है, सदियों से खेती के नवाचारों और कृषि परंपराओं का गवाह रहा है। यहाँ की धरती ने न केवल देश को भरपूर अन्न दिया है, बल्कि नई-नई तकनीकों और उपकरणों को अपनाकर खेती को समय के साथ आगे भी बढ़ाया है। आज मेरठ के खेतों में ट्रैक्टरों (tractor) की गड़गड़ाहट, सीड ड्रिल मशीन (seed drill machine) की सटीक बुवाई, और आधुनिक स्प्रेयर (sprayer) की तेज़ फुहार आम नज़ारा हैं। लेकिन कभी समय ऐसा भी था जब यहाँ की खेती पूरी तरह बैलों की धीमी चाल, लकड़ी के हल की खरखराहट और साधारण जल-उठाने वाले यंत्रों पर निर्भर थी। मध्यकालीन युग से लेकर मुगल काल तक, कृषि उपकरणों, बुवाई पद्धतियों और सिंचाई तकनीकों में धीरे-धीरे ऐसे बदलाव हुए, जिन्होंने भारतीय खेती को नई दिशा और नई पहचान दी। इन बदलावों ने न केवल उत्पादन क्षमता बढ़ाई, बल्कि किसानों के श्रम को भी कम किया और उनकी उपज को बाज़ार तक पहुँचाने के रास्ते खोले। आइए, मेरठ की मिट्टी और भारतीय कृषि के इस ऐतिहासिक सफर को विस्तार से समझते हैं, जहाँ हल और लोहे के फाल से लेकर साकिया और रहट तक की कहानियाँ हमारे अतीत को जीवंत कर देती हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले मध्यकालीन भारतीय कृषि में हल और लोहे के फाल के विकास के बारे में जानेंगे। इसके बाद, हम बीज बुवाई और सिंचाई तकनीकों में हुए नवाचार को समझेंगे, जिसमें साकिया (फ़ारसी पहिया) जैसी खोज शामिल है। फिर, हम देखेंगे कि मुगल काल की प्रमुख फ़सलें और कृषि विस्तार किस तरह भारत के अलग-अलग हिस्सों में हुए और यूरोपीय व्यापार ने खेती में क्या नए पौधे जोड़े। अंत में, हम जानेंगे विभिन्न क्षेत्रों में जल-उठाने वाले पारंपरिक उपकरणों जैसे कश्मीर का अरघट्टा, पंजाब का अरहत/रहत और बाबर द्वारा वर्णित चरसा का महत्व।

मध्यकालीन भारतीय कृषि में हल और लोहे के फाल का विकास
मध्यकालीन भारत में खेती का सबसे अहम और अनिवार्य औज़ार हल था, जिसे पीढ़ियों से किसान अपने खेत जोतने के लिए इस्तेमाल करते आ रहे थे। शुरुआती समय में हल का फाल लकड़ी या पत्थर से बनाया जाता था। ये फाल अपेक्षाकृत कमज़ोर होते थे और कठोर मिट्टी को गहराई से जोतने में सक्षम नहीं होते थे, जिसके कारण खेत की जुताई अधूरी रह जाती थी और पैदावार भी सीमित रहती थी। समय के साथ जब किसानों ने लोहे के फाल का उपयोग शुरू किया, तो यह बदलाव खेती में क्रांतिकारी साबित हुआ। लोहे का फाल न केवल मज़बूत और टिकाऊ था, बल्कि यह कठोर, चिपचिपी या पथरीली मिट्टी में भी आसानी से धँसकर उसे भुरभुरा कर देता था। गहरी जुताई से मिट्टी में हवा का संचार बढ़ता था, पुराने खरपतवार नष्ट होते थे और बीज के अंकुरण के लिए ज़रूरी नमी एवं पोषण मिट्टी में बेहतर तरीके से संरक्षित होता था। इस तकनीकी सुधार ने खेती की रफ़्तार और उत्पादन, दोनों में उल्लेखनीय वृद्धि की।

बीज बुवाई और सिंचाई तकनीकों में नवाचार
मध्यकालीन दौर में किसानों ने केवल हल और फाल के रूप में ही नवाचार नहीं किए, बल्कि बीज बुवाई की प्रक्रिया में भी महत्वपूर्ण सुधार लाए। पहले बीज बिखेरकर बोए जाते थे, जिससे पौधों की बढ़वार असमान होती थी और कई बार बीज नष्ट भी हो जाते थे। धीरे-धीरे किसानों ने बीजों को समान दूरी और उचित गहराई पर बोने की तकनीक विकसित की। इससे फसल की कतारें सीधी और व्यवस्थित बनने लगीं, जिससे देखभाल और निराई-गुड़ाई आसान हो गई। इसके साथ ही सिंचाई के तरीकों में भी बड़ी प्रगति हुई। कुओं से पानी निकालने के पारंपरिक, श्रमसाध्य तरीकों के स्थान पर साकिया या फ़ारसी पहिया जैसी यांत्रिक पद्धतियां प्रचलित हुईं। इस यंत्र में बैलों की सहायता से जुड़े हुए घड़े या बर्तन घुमाए जाते थे, जो लगातार पानी खींचकर खेतों में पहुँचा देते थे। यह तरीका पुराने हाथ से खींचने वाले उपायों की तुलना में तेज़, निरंतर और कम मेहनत वाला था, जिससे सिंचाई की क्षमता कई गुना बढ़ गई।
मुगल काल की प्रमुख फ़सलें और कृषि विस्तार
मुगल काल भारतीय कृषि के लिए विविधता और विस्तार का काल रहा। इस दौर में खेती सिर्फ़ अनाजों तक सीमित नहीं रही, बल्कि नकदी फसलों और मसालों का भी बड़ा महत्व बढ़ा। उत्तर और मध्य भारत में गेहूँ की भरपूर खेती होती थी, जबकि पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में चावल मुख्य आहार फसल के रूप में उगाया जाता था। शुष्क और कम वर्षा वाले इलाकों जैसे गुजरात और खानदेश में बाजरा किसानों की पसंदीदा फसल थी, क्योंकि यह कम पानी में भी अच्छी उपज देता था। इसके अलावा, कपास, गन्ना, नील और अफीम जैसी नकदी फसलें किसानों के लिए अतिरिक्त आय का स्रोत बनीं। यूरोपीय व्यापारियों, विशेषकर पुर्तगालियों के आगमन के बाद, भारत में तंबाकू, अनानास, पपीता और काजू जैसे नए पौधे भी आए, जिन्होंने कृषि परिदृश्य को और समृद्ध किया। मसाले, खासकर काली मिर्च, और कॉफी (coffee) उस समय के समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक माने जाते थे और इनका उत्पादन व्यापार के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहुँचने लगा।

विभिन्न क्षेत्रों में जल-उठाने वाले पारंपरिक उपकरण
भारत जैसे विशाल और भौगोलिक रूप से विविध देश में, अलग-अलग क्षेत्रों ने अपनी आवश्यकताओं और पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार जल-उठाने की विशिष्ट पद्धतियां विकसित कीं। उदाहरण के लिए, कश्मीर में अरघट्टा नामक पहिया-आधारित यंत्र का उपयोग होता था, जो गाँवों और खेतों में पानी वितरण के लिए अत्यंत उपयोगी था। पंजाब और आस-पास के इलाकों में अरहत या रहत का प्रचलन था, जिसमें बर्तनों की श्रृंखला और पिन-ड्रम गेयरिंग सिस्टम (Pin-drum gearing system) का प्रयोग करके कुएँ से लगातार पानी निकाला जाता था। यह व्यवस्था मज़बूत, लम्बे समय तक चलने वाली और बड़े पैमाने पर सिंचाई के लिए उपयुक्त थी। बाबर ने अपने संस्मरण ‘बाबरनामा’ में चरसा नामक उपकरण का उल्लेख किया है, जिसमें बैलों के सहारे एक लकड़ी के कांटे और रस्सियों की सहायता से कुएँ से पानी निकाला जाता था। ये सभी उपकरण, चाहे वे तकनीकी रूप से साधारण हों, किसानों की मेहनत को कम करने और सिंचाई की दक्षता बढ़ाने में अमूल्य भूमिका निभाते थे।
संदर्भ-