मेरठ की धरती, जहाँ शिक्षा, संस्कृति और विचारों की लहरें गंगा की धारा की तरह निरंतर बहती रही हैं, वहाँ ज्ञान केवल पुस्तकों में नहीं, जीवन की हर परत में महसूस किया जाता है। यही कारण है कि जब हम विज्ञान और आत्मा के संबंध पर विचार करते हैं, तो यह चर्चा मेरठ जैसे बौद्धिक नगर से उठना स्वाभाविक है। यहीं की धरती पर “गीता महोत्सव” जैसे आयोजन हमें याद दिलाते हैं कि भारत में ज्ञान सदैव प्रयोग और दर्शन का संगम रहा है - जहाँ प्रयोगशाला और प्रार्थनालय, दोनों एक ही सत्य की खोज में जुड़े हैं।
इस संदर्भ में जब हम जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर (J. Robert Oppenheimer) की ओर देखते हैं, तो वे केवल एक वैज्ञानिक नहीं, बल्कि एक ऐसे साधक प्रतीत होते हैं जो परम सत्य को समझना चाहते थे। परमाणु बम के जनक कहे जाने वाले ओपेनहाइमर ने विज्ञान की निष्ठुरता के बीच मानवता की करुणा खोजी, और उस खोज में उन्हें मार्गदर्शक मिली - भगवद्गीता। युद्ध की विभीषिका के बीच जब संसार उनके निर्णयों पर टिका था, तब उन्होंने वैज्ञानिक सूत्रों में नहीं, बल्कि गीता के श्लोकों में उत्तर खोजा। वे कहते थे - “गीता केवल धर्म की पुस्तक नहीं, बल्कि आत्मा की भाषा है।”
मेरठ में जब गीता महोत्सव के दौरान हजारों लोग कृष्ण और अर्जुन के संवाद को सुनते हैं, तो शायद वही संवाद किसी रूप में ओपेनहाइमर के भीतर भी गूंजा था - “कर्तव्य करो, पर फल की चिंता मत करो।” यही विचार उन्हें उस क्षण स्थिर रख पाया जब ‘ट्रिनिटी टेस्ट’ (Trinity Test) के विस्फोट ने मानव इतिहास की दिशा बदल दी। उन्होंने ज्ञान को केवल शक्ति नहीं, बल्कि जिम्मेदारी के रूप में देखा - ठीक वैसे ही जैसे गीता सिखाती है कि कर्म ज्ञान से बड़ा है, पर ज्ञान कर्म को दिशा देता है। आज के दौर में, जब विज्ञान की गति तेज है पर उसका विवेक अक्सर पीछे छूट जाता है, मेरठ का गीता महोत्सव हमें यह याद दिलाता है कि विज्ञान और अध्यात्म का संवाद कभी रुकना नहीं चाहिए। ओपेनहाइमर की कहानी इसी संवाद का प्रतीक है - एक वैज्ञानिक जो सत्य की खोज में अंततः गीता की ओर लौटा, और जिसने हमें सिखाया कि परमाणु शक्ति से भी बड़ी शक्ति है आत्मबोध की।
इस लेख में हम ओपेनहाइमर के उस व्यक्तित्व को समझेंगे जो विज्ञान और दर्शन के बीच एक सेतु बन गया। हम जानेंगे कि कैसे उन्होंने भगवद्गीता और संस्कृत के अध्ययन से आत्मज्ञान की राह खोजी और कैसे परमाणु परीक्षण के क्षणों में गीता के श्लोक उनके अंतर्मन में गूंजे। आगे हम देखेंगे कि अर्जुन और ओपेनहाइमर के “कर्तव्य और विनाश” के द्वंद्व में क्या समानताएँ थीं, और कैसे भारतीय दर्शन ने पश्चिमी विज्ञान को नैतिक दिशा दी। अंत में, हम समझेंगे कि ओपेनहाइमर की यह विरासत आज भी आधुनिक विश्व को आत्मचिंतन, जिम्मेदारी और संतुलन का संदेश देती है।
ओपेनहाइमर: विज्ञान और दर्शन के बीच खड़ा एक व्यक्तित्व
ओपेनहाइमर वह व्यक्ति थे जिन्होंने विज्ञान को केवल प्रयोगों का विषय नहीं, बल्कि अस्तित्व की गूढ़ भाषा के रूप में देखा। वे हार्वर्ड (Harvard) और केम्ब्रिज (Cambridge) जैसे संस्थानों से निकले एक प्रतिभाशाली भौतिक विज्ञानी थे, जिन्होंने न्यूक्लियर (nuclear) भौतिकी में वह ऊँचाइयाँ छुईं जहाँ केवल कुछ गिने-चुने मस्तिष्क पहुँच पाते हैं। परंतु इस वैज्ञानिक के भीतर एक और दुनिया भी बसी थी - एक ऐसी दुनिया, जो आत्मा, चेतना और अस्तित्व के रहस्यों की खोज में लगी थी। वह कहा करते थे, “विज्ञान और कला दोनों ही सत्य की तलाश हैं - बस उनके रास्ते अलग हैं।” उनका जीवन तर्क और अध्यात्म, दोनों का संगम था। जहाँ एक ओर वे परमाणु संरचना की जटिल गणनाओं में डूबे रहते थे, वहीं दूसरी ओर दार्शनिक ग्रंथों के माध्यम से जीवन के गूढ़ अर्थ को समझने की कोशिश करते थे। वे ध्यान और आत्मचिंतन को उसी गंभीरता से अपनाते थे, जैसे कोई साधक ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए करता है। यही द्वैत - वैज्ञानिक और साधक - उनके व्यक्तित्व की गहराई को परिभाषित करता है। जब मानवता के भविष्य का भार उनके निर्णयों पर आ टिका, तब उन्होंने उत्तर समीकरणों में नहीं, बल्कि अध्यात्म में ढूँढ़ा। उनके लिए विज्ञान ईश्वर की भाषा था - और भगवद्गीता, उस भाषा का अर्थ समझने की कुंजी।

भगवद्गीता से ओपेनहाइमर का पहला परिचय: संस्कृत और आत्मज्ञान की यात्रा
सन् 1933 - जब दुनिया महान मंदी की आर्थिक उथल-पुथल से गुजर रही थी, तब एक युवा पश्चिमी वैज्ञानिक अपने भीतर के शून्य को भरने के लिए पूर्व की ओर देख रहा था। उसी समय ओपेनहाइमर ने संस्कृत सीखने का निर्णय लिया - एक असामान्य कदम जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी। उन्होंने न केवल भाषा सीखी, बल्कि भगवद्गीता को उसके मूल स्वरूप में पढ़ा। यह अध्ययन केवल बौद्धिक जिज्ञासा नहीं, बल्कि आत्मा की खोज थी। उन्होंने अपने पत्रों में लिखा कि “गीता किसी भी ज्ञात भाषा में सबसे सुंदर दार्शनिक गीत है।” गीता के श्लोकों ने उनके भीतर गहरा परिवर्तन किया। उन्होंने उसमें ‘कर्तव्य’ और ‘करुणा’ का वह संतुलन पाया, जो आधुनिक विज्ञान की दौड़ में अक्सर खो जाता है। वे गीता को केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव चेतना का विज्ञान मानते थे। उनके मित्रों ने बताया कि वह गीता की प्रतियाँ उपहार में देते थे और अपने कार्य कक्ष में हमेशा उसकी एक प्रति रखते थे - मानो वह उनके विचारों की दिशा तय करने वाला कम्पास हो। उस समय जब पश्चिमी सभ्यता मशीनों और युद्धों के बीच अपनी आत्मा खो रही थी, ओपेनहाइमर पूर्व के दर्शन में उस आत्मा की खोज में लग गए। संस्कृत और गीता की यह यात्रा, उनके वैज्ञानिक जीवन की सबसे मानवीय परत को उजागर करती है - जहाँ ज्ञान केवल मस्तिष्क का नहीं, बल्कि हृदय का विषय बन जाता है।
‘अब मैं मृत्यु बन गया हूं’ - परमाणु परीक्षण और गीता का श्लोक
16 जुलाई 1945, सुबह का सन्नाटा - न्यू मैक्सिको (New Mexico) के रेगिस्तान में इतिहास अपनी सबसे तीखी आवाज़ में बोलने वाला था। यह वह क्षण था जब मानव ने पहली बार अपने ही बनाए विनाश के देवता को जन्म दिया। जब ‘ट्रिनिटी टेस्ट’ के रूप में पहला परमाणु बम विस्फोट हुआ, उस तेजस्वी आग की लपटों ने मानो आकाश को फाड़ दिया। उसी क्षण ओपेनहाइमर के होंठों पर गीता का श्लोक आया -
“दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता…” अर्थात, यदि आकाश में हजारों सूर्यों का प्रकाश एक साथ फूट पड़े, तो वह उस विराट स्वरूप के तेज के समान होगा। वह दृश्य उन्हें भगवद्गीता के विराट रूप की याद दिला गया - जहाँ श्रीकृष्ण अपने विश्वरूप में प्रकट होते हैं, जो सृष्टि और विनाश दोनों का प्रतीक है। ओपेनहाइमर ने उस दृश्य को देखकर कहा, “अब मैं मृत्यु बन गया हूँ, संसार का विनाशक।” परंतु यह वाक्य किसी घमंड का नहीं, बल्कि आत्मबोध का था। उस क्षण वे समझ गए कि वे कृष्ण नहीं, अर्जुन हैं - वह अर्जुन जो युद्ध नहीं चाहता, पर कर्तव्य से भाग भी नहीं सकता। यह केवल एक विस्फोट नहीं था, यह एक आत्मा का टूटना था। वैज्ञानिक के भीतर छिपा मनुष्य उस दिन अपने ही सृजन के बोझ से दब गया। और वहीं से शुरू हुआ उनका आत्ममंथन - जहाँ उन्होंने विज्ञान की शक्ति से अधिक उसकी ज़िम्मेदारी को महसूस किया।
कर्तव्य और विनाश के बीच द्वंद्व: अर्जुन से ओपेनहाइमर तक
ओपेनहाइमर का द्वंद्व उतना ही मानवीय था जितना अर्जुन का। अर्जुन कुरुक्षेत्र के मैदान में अपने ही लोगों के विरुद्ध खड़ा था; ओपेनहाइमर भी एक ऐसे युद्ध में था जिसमें मानवता ही उसका प्रतिद्वंदी थी। वह जानते थे कि परमाणु बम बनाना वैज्ञानिक दृष्टि से उपलब्धि है, पर नैतिक दृष्टि से एक अपराध भी हो सकता है। यही वह जगह थी जहाँ भगवद्गीता ने उन्हें सहारा दिया। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं - “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” - अर्थात, मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल पर नहीं। ओपेनहाइमर ने यही शिक्षा अपने जीवन का मंत्र बना लिया। उन्होंने समझा कि उनका कर्तव्य ज्ञान की खोज है, न कि उसका प्रयोग तय करना। परंतु भीतर का अपराधबोध उन्हें चैन से नहीं रहने देता था। उन्होंने कभी अपनी खोज पर गर्व नहीं किया, बल्कि उसका बोझ उठाया। उन्होंने कहा था, “हम जानते थे कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं रहेगी।” यह वाक्य उस आत्मा की थकान को दिखाता है जो कर्तव्य निभाते हुए भी पीड़ा में थी। इस द्वंद्व ने उन्हें इतिहास का ‘वैज्ञानिक अर्जुन’ बना दिया - जो युद्ध जीतकर भी भीतर से घायल रहा।

भारतीय दर्शन और पश्चिमी विज्ञान का संगम
ओपेनहाइमर के जीवन में वह क्षण आया जब पश्चिम और पूर्व, तर्क और श्रद्धा, ज्ञान और चेतना - सभी एक बिंदु पर आ मिले। उनके माध्यम से पहली बार पश्चिमी विज्ञान ने पूर्वी अध्यात्म की ओर देखा। उन्होंने सिद्ध किया कि विज्ञान और दर्शन दो विरोधी ध्रुव नहीं, बल्कि एक ही वृक्ष की दो शाखाएँ हैं - जहाँ एक शाखा ज्ञान देती है और दूसरी, दिशा। भारतीय दर्शन ने उन्हें यह सिखाया कि “ज्ञान का उद्देश्य शक्ति नहीं, बल्कि आत्मचेतना है।” गीता ने उनके वैज्ञानिक मस्तिष्क को नैतिकता की कसौटी पर परखा। उन्होंने विज्ञान को केवल प्रगति का साधन नहीं, बल्कि आत्म-समझ का मार्ग माना। यही कारण है कि उन्होंने कहा था, “विज्ञान में नैतिकता तभी जीवित रह सकती है जब वह आत्मचेतना से जुड़ी हो।” उनके विचारों ने यह नया दृष्टिकोण दिया कि तकनीक का विकास तभी सार्थक है जब वह मानवता की सेवा में हो। आज जब विश्व कृत्रिम बुद्धिमत्ता, जैविक अभियांत्रिकी और अंतरिक्ष तकनीक की नई सीमाएँ पार कर रहा है, ओपेनहाइमर का यह दृष्टिकोण और भी प्रासंगिक हो जाता है - कि विज्ञान का हृदय तब तक जीवित नहीं रह सकता जब तक उसमें संवेदना की धड़कन न हो।
ओपेनहाइमर की विरासत: गीता की शिक्षाएँ और आधुनिक विश्व के लिए संदेश
ओपेनहाइमर की विरासत केवल परमाणु बम या विज्ञान तक सीमित नहीं रही - उनकी सबसे बड़ी विरासत वह विचार है कि “ज्ञान बिना संवेदना विनाशक है।” गीता की शिक्षाओं ने उन्हें सिखाया कि सच्चा कर्तव्य वही है जो मानवता के कल्याण से जुड़ा हो। उन्होंने दिखाया कि विज्ञान को दिशा देने के लिए केवल तकनीकी कौशल नहीं, नैतिक आत्मचेतना भी जरूरी है। आज जब हम विज्ञान की नई-नई सीमाएँ लाँघ रहे हैं - परमाणु शक्ति से लेकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता तक - ओपेनहाइमर की चेतावनी और गीता की शिक्षाएँ पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनका जीवन हमें बताता है कि आधुनिक सभ्यता को केवल तेज दिमाग नहीं, बल्कि संवेदनशील आत्माएँ चाहिए। मेरठ जैसे शहर, जहाँ युवा वैज्ञानिक बनने का सपना देखते हैं, उनके लिए यह संदेश अत्यंत प्रासंगिक है - कि ज्ञान का मूल्य उसकी उपयोगिता से नहीं, बल्कि उसके उद्देश्य से तय होता है। ओपेनहाइमर की कहानी इस सत्य को उजागर करती है कि जब विज्ञान दर्शन से मिलता है, तब मानवता अपने सबसे उजले रूप में प्रकट होती है। और यही वह संदेश है जो आज भी गूंजता है - एक ऐसे युग में जहाँ हर ‘खोज’ के साथ एक ‘जिम्मेदारी’ जुड़ी होती है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/4fn9hvzy
https://tinyurl.com/2s3asj9u
https://tinyurl.com/4a6brhbf
https://tinyurl.com/3ms2mrww
https://tinyurl.com/4xczdh4x
https://tinyurl.com/374jnvnv
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