कैसे पिघलते ग्लेशियर, आने वाले वर्षों में मेरठ के मौसम और जीवन को बदल सकते हैं?

जलवायु और मौसम
27-11-2025 09:18 AM
कैसे पिघलते ग्लेशियर, आने वाले वर्षों में मेरठ के मौसम और जीवन को बदल सकते हैं?

मेरठवासियो, जब आप सर्दियों की ठंडी सुबहों में धुंध और ओस से भीगी हवाओं का आनंद लेते हैं, तो शायद यह कल्पना भी कठिन हो कि उन्हीं हवाओं की जड़ में बसे बर्फ़ीले ग्लेशियर (glacier) किस गति से पिघल रहे हैं। ये हिमनद केवल हिमखंड नहीं हैं - वे हमारी पृथ्वी की धड़कन हैं, जिनसे नदियाँ जन्म लेती हैं, जलवायु का संतुलन बनता है, और जीवन की निरंतरता बनी रहती है। परंतु आज यह धड़कन धीमी पड़ती जा रही है। औद्योगिक विकास, ऊर्जा की अंधाधुंध खपत और बढ़ते कार्बन उत्सर्जन ने वातावरण को इतना गर्म कर दिया है कि सैकड़ों-हजारों वर्षों से जमी बर्फ़ अब थमने का नाम नहीं ले रही। हिमालय की गोद में पिघलते ग्लेशियर न केवल गंगा और यमुना जैसी जीवनदायिनी नदियों को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि मौसम के पैटर्न, वर्षा चक्र और कृषि प्रणाली तक को अस्थिर बना रहे हैं। धरती का तापमान अब औसतन 1.2°C तक बढ़ चुका है - और यह मामूली सा अंतर हमारी पृथ्वी के लिए विनाशकारी बदलावों की शुरुआत साबित हो रहा है। ग्रीनलैंड (Greenland) से लेकर अंटार्कटिका (Antarctica) तक, हर दिशा से बर्फ़ की चुपचाप होती विदाई इस बात का संकेत है कि यदि मानवता ने अब भी दिशा नहीं बदली, तो आने वाली पीढ़ियों को केवल चित्रों में ही हिमालय की बर्फ़ दिखाई देगी।
इस लेख में हम ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के प्रमुख कारणों को समझेंगे। साथ ही, पिछले दो दशकों में किन क्षेत्रों ने सबसे अधिक बर्फ़ खोई है, इसे भी देखेंगे। इसके बाद पर्यावरण और समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को विस्तार से जानेंगे। आगे समुद्री और स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र पर दीर्घकालिक परिणामों का विश्लेषण किया जाएगा। दुनिया भर में चल रहे वैज्ञानिक प्रयासों और नवाचारों की झलक भी मिलेगी। अंत में, यह समझेंगे कि मेरठ जैसे शहर के नागरिक इस वैश्विक संकट से निपटने में कैसे सशक्त भूमिका निभा सकते हैं।

ग्लेशियरों के पिघलने के प्रमुख कारण
औद्योगिक क्रांति ने मानव सभ्यता को अभूतपूर्व विकास दिया - कारखाने, मशीनें, रेल और बिजली ने दुनिया को बदल दिया। लेकिन इसी क्रांति ने हमारी धरती के संतुलन को भी गहराई से प्रभावित किया। जैसे-जैसे कोयले और पेट्रोलियम (petroleum) का उपयोग बढ़ा, वैसे-वैसे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide) और मीथेन (Methane) जैसी ग्रीनहाउस गैसों का स्तर बढ़ने लगा। इन गैसों ने धरती के चारों ओर एक अदृश्य “गर्म चादर” बिछा दी, जो सूर्य की ऊष्मा को बाहर नहीं जाने देती। नतीजतन, पिछले सौ वर्षों में पृथ्वी का औसत तापमान लगभग 1.2°C बढ़ चुका है - और यह वृद्धि भले ही मामूली लगे, परंतु इसके दुष्परिणाम गहरे हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों में यह तापमान सामान्य से दोगुनी गति से बढ़ रहा है, जिसके कारण ग्रीनलैंड, अंटार्कटिका और हिमालय जैसे क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं। इन इलाकों में मौजूद विशाल ग्लेशियर, जो कभी सदियों तक स्थिर रहते थे, अब पीछे हटने लगे हैं। यह सिर्फ़ बर्फ़ का पिघलना नहीं है - यह हमारे जल संसाधनों, हमारे मौसम चक्र और हमारे भविष्य का धीरे-धीरे खत्म होना है। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो 2100 तक दुनिया के एक-तिहाई ग्लेशियर पूरी तरह समाप्त हो सकते हैं।

पिछले दो दशकों में ग्लेशियरों की द्रव्यमान हानि: क्षेत्रीय विश्लेषण
नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन ने दुनिया को झकझोर दिया। इसके अनुसार, 2000 से 2019 के बीच हर साल औसतन 267 अरब टन बर्फ़ दुनिया के ग्लेशियरों से गायब हुई है। यह हानि इतनी बड़ी है कि अगर इसे पानी में बदला जाए, तो पूरा भारत कई वर्षों तक इससे अपनी जल आवश्यकताएँ पूरी कर सकता है। क्षेत्रीय स्तर पर देखें तो अलास्का सबसे आगे है, जहाँ कुल बर्फ़ हानि का लगभग 25% हिस्सा हुआ है। इसके बाद ग्रीनलैंड और कनाडा के आर्कटिक क्षेत्र आते हैं, जिनका संयुक्त योगदान लगभग 23% है। वहीं, हिमालय और मध्य एशिया के पर्वतीय क्षेत्र भी पीछे नहीं - उन्होंने लगभग 8% द्रव्यमान खोया है। यह आँकड़ा भारत के लिए विशेष रूप से गंभीर है, क्योंकि हिमालयी ग्लेशियर ही गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र जैसी जीवनदायिनी नदियों का मूल स्रोत हैं। यदि यह प्रवृत्ति नहीं रुकी, तो आने वाले दशकों में उत्तर भारत की नदियाँ - जिनसे करोड़ों लोगों की आजीविका जुड़ी है - मौसमी बन जाएँगी। यह न केवल जल संकट को जन्म देगा, बल्कि कृषि, उद्योग और सामाजिक स्थिरता को भी गहराई से प्रभावित करेगा।

ग्लेशियरों के पिघलने से पर्यावरण और समाज पर प्रभाव
ग्लेशियरों का पिघलना धरती के लिए केवल एक वैज्ञानिक चिंता नहीं है - यह मानवीय अस्तित्व से जुड़ा संकट है। इसका पहला और सबसे स्पष्ट असर समुद्र के स्तर में वृद्धि के रूप में सामने आ रहा है। पिछले छह दशकों में समुद्र का स्तर लगभग 2.7 सेंटीमीटर बढ़ चुका है, जिससे तटीय शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता, और मनीला के डूबने का ख़तरा बढ़ गया है। दूसरा बड़ा प्रभाव है मीठे पानी की कमी। ग्लेशियर ही वह “प्राकृतिक जल भंडार” हैं जो धीरे-धीरे पिघलकर नदियों को जीवन देते हैं। लेकिन जब ये तेज़ी से पिघलने लगते हैं, तो प्रारंभिक वर्षों में अचानक बाढ़ें आती हैं, और बाद के वर्षों में नदियाँ सूखने लगती हैं। तीसरा प्रभाव जैव विविधता पर पड़ रहा है। ध्रुवीय भालू, पेंगुइन, और बर्फ़ीली मछलियाँ अपने आवास खो रही हैं। यह पारिस्थितिकी का गहरा संकट है, क्योंकि जब एक प्रजाति खत्म होती है, तो पूरी खाद्य श्रृंखला प्रभावित होती है। इसके अलावा, इन परिवर्तनों से कृषि, मछली पालन और स्थानीय अर्थव्यवस्था भी खतरे में हैं। बदलते मौसम चक्रों ने किसानों को अनिश्चितता की ओर धकेल दिया है। यह केवल उत्तरी ध्रुव या पहाड़ों का नहीं, बल्कि हर नागरिक के जीवन का संकट है।

समुद्री और स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र पर दीर्घकालिक परिणाम
ग्लेशियरों को अक्सर केवल “बर्फ़ के पहाड़” समझ लिया जाता है, लेकिन वे पृथ्वी के जलवायु संतुलन के स्तंभ हैं। जब ये पिघलते हैं, तो महासागरों की लवणता, तापमान और धाराओं में बदलाव आता है। यह बदलाव जेट स्ट्रीम्स (Jet Stream) और मॉनसून प्रणालियों तक को प्रभावित करता है। इन परिवर्तनों के कारण, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में चक्रवातों की तीव्रता बढ़ रही है, मानसून अनियमित हो रहा है, और सूखे की घटनाएँ आम हो रही हैं। स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र पर भी इसका असर दिखाई देता है - पर्वतीय क्षेत्रों में जल स्रोत सूखने लगे हैं, जिससे कृषि उत्पादन घट रहा है और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाएँ संकट में हैं। यह असंतुलन सामाजिक असमानता को और बढ़ा सकता है। अमीर देशों के पास अनुकूलन के साधन हैं, परंतु गरीब और विकासशील देशों के लोग - जैसे भारत, नेपाल और बांग्लादेश - सबसे अधिक प्रभावित होंगे। भविष्य का जलवायु न्याय इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या हम आज इस असमानता को पहचानते हैं और इसे सुधारने के लिए कदम उठाते हैं।

ग्लेशियरों को बचाने के वैश्विक समाधान और वैज्ञानिक प्रयास
जब खतरा वैश्विक हो, तो समाधान भी वैश्विक होना चाहिए। वैज्ञानिक अब ग्लेशियर संरक्षण के लिए अनेक नवोन्मेषी प्रयोग कर रहे हैं। ग्रीनलैंड के याकबशौवेन ग्लेशियर (Jakobshavn Glacier) के सामने एक विशाल बांध बनाने की परियोजना चल रही है, ताकि बर्फ़ को समुद्र में बहने से रोका जा सके। इंडोनेशियाई वास्तुकार फ़ारिस राजक कोतहातुहा ने “कृत्रिम हिमखंडों” का विचार प्रस्तुत किया, जिसमें पिघले पानी को एकत्र कर उसे डीसैलिनेट करके पुनः जमाया जाता है - ताकि आर्कटिक क्षेत्र में नई बर्फ़ की परतें बन सकें। दूसरी ओर, विश्वभर के देश नेट ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्य की दिशा में बढ़ रहे हैं। 2050 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को शून्य के करीब लाने का संकल्प लिया गया है। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन (Electric Vehicles), और हरी अवसंरचना जैसे कदम इस दिशा में उम्मीद की किरण हैं। परंतु तकनीकी उपायों के साथ-साथ, सबसे बड़ा समाधान मानव व्यवहार में परिवर्तन है। जब तक हम उपभोग पर अंकुश नहीं लगाएँगे और प्रकृति के साथ सामंजस्य नहीं बनाएँगे, तब तक कोई भी वैज्ञानिक आविष्कार स्थायी समाधान नहीं दे सकेगा।

जलवायु परिवर्तन से निपटने में आम नागरिकों की भूमिका और मेरठ का योगदान
अब सवाल यह है - क्या मेरठ जैसा शहर कुछ कर सकता है? जवाब है, हाँ, और वह भी बहुत कुछ। जलवायु परिवर्तन से लड़ाई केवल बड़ी नीतियों की नहीं, बल्किव्यक्तिगत जिम्मेदारी की लड़ाई भी है। मेरठ जैसे औद्योगिक और शैक्षिक नगर में, यदि हर घर बिजली की खपत कम करे, यदि लोग निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक परिवहन अपनाएँ, तो हज़ारों टन कार्बन उत्सर्जन रोका जा सकता है। शहर के स्कूल और कॉलेज ग्रीन क्लब बना सकते हैं, जहाँ बच्चे जलवायु शिक्षा सीखें और पेड़ लगाने के अभियान चलाएँ। नगर निगम वर्षा जल संचयन, कचरा प्रबंधन, और सोलर लाइटिंग (Solar Lighting) जैसी पहलों को अपनाकर स्थानीय स्तर पर बदलाव ला सकता है। छोटे कदम - जैसे प्लास्टिक का कम उपयोग, वृक्षारोपण, और ऊर्जा बचत - मिलकर बड़े परिवर्तन में बदल सकते हैं।

संदर्भ- 
https://tinyurl.com/mvnrbzxx
https://tinyurl.com/3bmd5a88
https://tinyurl.com/36vs4nfr
https://tinyurl.com/5cj276zv
https://tinyurl.com/y5kyrdzz 



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