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जब ऐतिहासिक स्मारकों की बात होती है, तो क़ुतुब मीनार और उसके आसपास का परिसर भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और वास्तुकला विरासत का एक अद्वितीय प्रतीक है। यह स्थल न केवल भारत की धार्मिक विविधता का आईना है, बल्कि विभिन्न ऐतिहासिक कालों और शासकों के योगदान का भी प्रमाण है। यहाँ हिंदू, जैन और इस्लामी स्थापत्य का अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है, जो इस स्मारक को विशेष बनाता है। क़ुतुब मीनार सिर्फ एक विशाल मीनार नहीं है, बल्कि इसके परिसर में मौजूद शिलालेखों के माध्यम से हमें उस समय की राजनीति, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक प्रथाओं की भी जानकारी मिलती है। फ़ारसी, अरबी और नागरी लिपियों में खुदे ये शिलालेख न केवल मीनार के निर्माण की कहानी बयां करते हैं, बल्कि शासकों के नाम, उनके उपाधियों और मीनार निर्माण में लगे समय की भी जानकारी देते हैं। इसके साथ ही, यहाँ उकेरी गई क़ुरान की आयतें और लौह स्तंभ जैसी संरचनाएँ इस स्थल की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समृद्धि को और उजागर करती हैं।
आज हम क़ुतुब मीनार और उसके परिसर में मौजूद शिलालेखों के इतिहास और स्थापत्य कला के संगम को जानेंगे। ये शिलालेख सिर्फ स्थापत्य की मिसाल नहीं हैं, बल्कि इतिहास की कई कहानियाँ भी बताते हैं। कुछ शिलालेख महत्वपूर्ण घटनाओं और शासकों की जानकारी देते हैं, तो कुछ फ़ारसी, अरबी और नागरी लिपियों में खुदे हैं, जो अपनी भाषा और शैली की वजह से खास हैं। लौह स्तंभ और क़ुरान की आयतें इस स्थल की सांस्कृतिक समृद्धि को और उजागर करती हैं।
क़ुतुब मीनार परिसर में पाए जाने वाले प्रमुख शिलालेख
क़ुतुब मीनार परिसर में मौजूद शिलालेख इस स्मारक की पूरी कहानी को बयां करते हैं। लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर पर की गई नक्काशी, ज्यामितीय और अरबस्क डिज़ाइन, और हिंदू व जैन स्थापत्य प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, इल्तुतमिश का मक़बरा, जो 1235 ईस्वी में बनाया गया था, लाल बलुआ पत्थर का साधारण चौकोर कक्ष है। इसके प्रवेश द्वारों और भीतरी हिस्सों पर सारासेनिक शैली में उकेरे गए शिलालेख और नक्काशी मौजूद हैं, जो उस समय की स्थापत्य शैली और शासक की महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक हैं। अलाई दरवाज़ा, जो कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का दक्षिणी प्रवेश द्वार है, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा हिजरी 710 (ई.स. 1311) में निर्मित किया गया था। वहीं, अलाई मीनार, जो क़ुतुब मीनार के उत्तर में स्थित है, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा पहले की मीनार से दुगना ऊँचा बनाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, लेकिन केवल इसकी पहली मंज़िल ही पूरी हो सकी। ये सभी शिलालेख और निर्माण कार्य उस समय के राजनीतिक और स्थापत्य महत्व को बखूबी दर्शाते हैं।
फ़ारसी-अरबी और नागरी लिपियों का ऐतिहासिक महत्व
क़ुतुब मीनार पर उकेरे गए फ़ारसी-अरबी और नागरी शिलालेख इस स्मारक की निर्माण कथा को स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं। फ़ारसी और अरबी लिपियों में नस्क़ह शैली की इस्लामी कैलीग्राफ़ी में शासकों के नाम, उनके उपाधियाँ और निर्माण काल दर्ज हैं। ये शिलालेख न केवल मीनार की भव्यता को दर्शाते हैं, बल्कि उस समय की सामाजिक और सांस्कृतिक परिपाटियों का भी प्रमाण हैं। वहीं, नागरी लिपि में लिखे शिलालेख, जैसे “पृथ्वी निरप,” चौहान राजपूत शासक पृथ्वीराज का संकेत देते हैं। ये शिलालेख हमें उस समय के राजनीतिक परिदृश्य और स्थानीय शासकों की पहचान के बारे में जानकारी देते हैं। फ़ारसी-अरबी और नागरी शिलालेख, दोनों ही स्थापत्य और ऐतिहासिक जानकारी का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं, जो मीनार और उसके परिसर के महत्व को और बढ़ाते हैं।
लौह स्तंभ और इसके शिलालेख
क़ुतुब मीनार परिसर में स्थित लौह स्तंभ भी एक अद्भुत ऐतिहासिक संरचना है। इसे चौथी शताब्दी में विष्णुपद पहाड़ी पर भगवान विष्णु के ध्वज के रूप में स्थापित किया गया था। इसके शीर्ष पर गरुड़ की मूर्ति भी स्थापित थी। यह स्तंभ लगभग 98 प्रतिशत लोहे का है और आज तक इसमें जंग नहीं लगी है, जो उसकी उन्नत धातु विज्ञान तकनीक को दर्शाता है। लौह स्तंभ पर मौजूद शिलालेख राजा चंद्र की स्मृति और चंद्रगुप्त मौर्य द्वितीय से संबंधित विवरण देते हैं, जिससे यह स्तंभ लगभग 375-415 ईस्वी का माना जाता है। इसके अलावा, इस पर बाद के काल में 1052 ई. (संवत 1109), 1515 ई., 1523 ई., 1710 ई., 1826 ई., और 1831 ई. की तिथियों में भी शिलालेख दर्ज किए गए हैं। ये सभी शिलालेख भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों का प्रतीक हैं और इस परिसर की ऐतिहासिक समृद्धि को दर्शाते हैं।
क़ुरान की आयतें और अन्य उकेरे गए विवरण
क़ुतुब मीनार के विभिन्न हिस्सों पर उकेरी गई क़ुरान की आयतें और अन्य शिलालेख भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। मीनार की छठी मंज़िल पर छह क्षैतिज पट्टियाँ हैं, जिन पर नस्क़ह शैली में क़ुरान की आयतें, ग़ियाथ अल-दीन और मु'इज्ज़ अल-दीन की उपाधियाँ अंकित हैं। इसमें सूरा II (आयतें 255-260), सूरा LIX (आयतें 22-23) और सूरा XLVIII (आयतें 1-6) शामिल हैं। कुछ शिलालेखों में मोहम्मद ग़ोरी और घ़ोरीद सुलतान की प्रशंसा भी की गई है। ये आयतें और शिलालेख न केवल धार्मिक महत्व रखते हैं, बल्कि उस समय के शासन और स्थापत्य कला की समझ भी प्रदान करते हैं। इनके माध्यम से हम यह जान सकते हैं कि मीनार और उसके आसपास के निर्माण कार्य केवल भव्य स्थापत्य तक सीमित नहीं थे, बल्कि उनमें धार्मिक और सांस्कृतिक संदर्भ भी समाहित थे।
संदर्भ -
https://tinyurl.com/4fwv37wy
https://tinyurl.com/yc6prmjj
https://tinyurl.com/3nfw8sxj
https://tinyurl.com/48f9k6ww
https://tinyurl.com/4xhwzpyw
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