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कचौरी एक मसालेदार गहरा तला हुआ नाश्ता है‚ जो भारतीय उपमहाद्वीप से
उत्पन्न हुआ‚ जिसे भारतीय प्रवासीयों व सूरीनाम (Suriname)‚ त्रिनिदाद
(Trinidad)‚ टोबैगो (Tobago) और गुयाना (Guyana) जैसे दक्षिण एशिया
(South Asian) के कई हिस्सों में भी खाया जाता है। कचौरी की उत्पत्ति भारत के
हिंदी पट्टी क्षेत्र में हुई थी। इन राज्यों में यह आमतौर पर पीली मूंग दाल या
उड़द की दाल‚ बेसन‚ काली मिर्च‚ लाल मिर्च पाउडर‚ नमक और अन्य मसालों के
पके हुए मिश्रण से भरे हुए आटे से बनी एक गोल चपटी गेंद होती है।
“अर्धकथानाक” (Ardhakathanaka)‚ जीवनी के लेखक बनारसीदास ने भी 1613
में‚ इंदौर में कचौड़ी खरीदने का उल्लेख किया था। पुरानी दिल्ली और राजस्थान के
कोटा की सड़कों पर भी समोसे के आने से काफी पहले‚ विभाजन के बाद कचौरी
परोसी जाती थी। कचौरियों को व्यापारियों के नाश्ते के रूप में जाना जाता है।
माना जाता है कि मारवाड़ी लोगों ने इसे दुनिया के सामने पेश किया था।
यह
समुदाय इसे पूरे देश में ले गया क्योंकि उन्होंने व्यापार और वाणिज्य के लिए
भारत की लंबाई और चौड़ाई की यात्रा की। स्ट्रीट फूड आमतौर पर बाजारों के
आसपास विकसित होते थे ताकि व्यापारी व्यवसाय करते समय अपना पेट भर
सकें। प्राचीन काल में व्यापार मार्ग राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से होकर गुजरते थे।
मुख्य रूप से शाकाहारी होने के कारण‚ वे स्थानीय रूप से उपलब्ध किसी भी
भोजन के साथ अपने मसालों को मिला देते थे।
प्राचीन ज्ञान के अनुसार‚ ठंडा करने वाले मसाले जैसे; धनिया और सौंफ‚ तथा
हल्दी की स्टफिंग कचौरियों में डाले जाते थे‚ ताकि रेगिस्तान की भीषण गर्मी के
बावजूद इस लजीज नाश्ते को खाया जा सके। कई लोग कहते हैं कि मारवाड़ का
दिल वहीं है जहां कचौरियों का जन्म हुआ था। हालांकि मारवाड़ी इस आकर्षक
भारतीय स्ट्रीट फूड के प्रवर्तक रहे हैं‚ लेकिन समय के साथ‚ मूल कचौरी ने अपना
आकार बार-बार बदला है और विभिन्न स्वादों और सामग्रियों के साथ इसे फिर से
परिभाषित किया गया है।
राजस्थान‚ मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में “प्याज की कचौरी” भी
बनाई जाती है‚ यह ऐसी सामग्रीयों से बनाई जाती है जो मौसम पर निर्भर नहीं
होती है। प्याज को पूरे सालभर के लिए स्टोर किया जा सकता है‚ और कचौरी में
इस्तेमाल होने वाले आलू की थोड़ी सी मात्रा भी पूरे साल अच्छी रहती है। इस
कचौरी की फिलिंग कटे हुए प्याज से बनी होती है‚ जिसे बहुत सारे भारतीय
मसालों के साथ मिश्रित किया जाता है। आम तौर पर इसे इमली की मीठी चटनी
के साथ परोसा जाता है।
एक अन्य संस्करण में सभी कचौरियों का राजा “राज कचोरी”‚ एक तरह से कचौरी
का सबसे लोकप्रिय संस्करण है‚ जिसे चाट की श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया गया
है‚ शायद गोल गप्पे की तरह इसके फूले हुए अकार के कारण। राज कचौरी की
उत्पत्ति बीकानेर में हुई और अब यह देश के हर हिस्से में पाई जाती है। इसे
चटनी‚ दही और अनार के बीज के साथ गार्निश करके परोसा जाता है। दिल्ली
संस्करण में इसे “खस्ता कचोरी” के नाम से जाना जाता है‚ जहां इसे आलू‚
नारियल और चीनी के मिश्रण से बनाया जाता है तथा इमली‚ पुदीना या धनिया
से बनी चटनी के साथ परोसा जाता है। एक सरल प्रकार की कचौरी “नागोरी
कचौरी” है‚ इस संस्करण में कोई स्टफिंग नहीं होती‚ बल्कि आटे में स्वाद के लिए
नमक मिलाया जाता है। यह कुरकुरी और नमकीन कचौरी कुछ हद तक नवरात्रि
के त्योहार के दौरान बनाई जाने वाली पूरियों के समान है। जिसे घी से बने मीठे
हलवे के साथ परोसा जाता है। यह सबसे उत्तम मीठे और नमकीन संयोजनों में से
एक है।
निविदा अरहर मटर या लिलवा के नाम पर बनी “लिलवा कचोरी” सर्दियों में थोड़े
समय के लिए ही बाजार में आती है। गुजराती लोगों द्वारा बनाई जाने वाली
“लिलवा कचोरी” तथा एक अर्धचंद्राकार कचौरी‚ जिसे “लिलवा न घुगरा” कहा जाता
है। दोनों में एक ही सामग्री का उपयोग किया जाता है‚ लेकिन ये आकार में भिन्न
होते हैं। उत्तर प्रदेश की एक स्वादिष्ट‚ अनोखी और मौसमी कचौरी “बड़ियों की
कचौरी” है‚ बड़ियां धूप में सुखाई हुई दाल की पकौड़ी हैं‚ जिन्हें कद्दूकस की हुई
सब्जियों से बनाया जाता है। इस कचौरी में स्टफिंग के रूप में तली हुई और क्रश
की हुई बड़ियां का उपयोग किया जाता है‚ जिसका स्वाद इसे अनूठा बनाता है।
उत्तर से “हींग कचौरी” ने एक अन्य सुगंधित संस्करण के साथ बंगाल की यात्रा भी
की है। उड़द की दाल की स्टफिंग के बावजूद‚ यह हींग की विशिष्ट सुगंध के
कारण अपना नाम बरकरार रखता है‚ जो एक भारतीय उमामी की तरह है। बंगाल
में भी इसकी काफी सराहना की जाती है। उड़द की दाल भरवां हींग कचौरी को
आमतौर पर एक करी के साथ परोसा जाता है जो कि भौगोलिक स्थिति के आधार
पर आलू या कद्दू आधारित हो सकती है। उत्तर प्रदेश और दिल्ली के कुछ हिस्सों
में‚ यह “बेदमी पूरी” के रूप में विकसित हो गया है। यह मैदे की जगह मोटे गेहूं
के आटे से बनता है‚ और ज्यादा बड़ा व क्रिस्पी होता है। यह मूल रूप से एक
मजबूत‚ भूख को तृप्त करने वाला नाश्ता है।
“बनारसी कचौरी” अन्य किस्मों की तुलना में अधिक नरम होती हैं। जो मुख्य रूप
से पूरे गेहूं के आटे और बहुत कम स्टफिंग के साथ बनाई जाती है। बनारसी
कचौरी की सब्जीयों में पालक‚ कद्दू‚ परवल और यहां तक कि बैंगन जैसी मौसमी
सब्जियों का भी इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें मटर या काले चने के साथ भी
परोसा जाता है।
अन्य कचौरी जिन्होंने भारतीय पाक कला पर अपनी छाप छोड़ी है‚ वे ज्यादातर
घर पर बनी और मौसमी हैं। महाराष्ट्र की “शेगांव कचौरी” ने अपने अनोखे तरीके
से परोसे जाने की वजह से एक खास जगह बनाई है। बंगाल की हल्की “मटर
कचौरी” आलू दम के साथ एक विशिष्ट रूप है। बिहार की “सत्तू कचौरी”‚ जिसे
ज्यादातर चटनी और चोखा के साथ परोसा जाता है‚ लिट्टी से ली गई है‚ लेकिन
इसने अपने दम पर अपनी पहचान बनाई है।
इन कचौरियों की अच्छी बात यह है कि तली हुई चीजें होने के बावजूद भी ये
खराब नहीं होतीं हैं‚ और एक व्यक्ति अपनी ऊर्जा के स्तर को गिराए बिना शाम
तक पेट भर सकता है। हालांकि इन कचौरियों को घर पर भी बनाया जा सकता है‚
लेकिन ये बाजार के नाश्ते के रूप में अधिक मिलती हैं। लगभग 50 साल पहले
तक‚ घर पर नाश्ता बहुत कम ही पकाया जाता था क्योंकि लोग रसोई के ईंधन के
लिए मिट्टी के तेल या जलाऊ लकड़ी पर निर्भर थे।
संदर्भ:
https://bit.ly/3aqLqwf
https://bit.ly/3ltOUnQ
https://bit.ly/3v3ydCV
https://bit.ly/3FMazQu
चित्र संदर्भ
1. हरे मटर की खस्ता कचोरी का एक चित्रण (youtube)
2. राज कचौरी का एक चित्रण (youtube)
3. हल्दीराम राज कचौरी का एक चित्रण (wikimedia)
4. कोलकाता की क्लब कचौरी का एक चित्रण (wikimedia)
5. तेल में तली जा रही कचौरियों का एक चित्रण (youtube)