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भगवान विष्णु ने गोकुल के कृष्ण के रूप में अवतार लेकर जितनी लीलायें रची हैं, उतनी तो शायद उनके
सभी रूपों को एकजुट करके भी न बने! कृष्ण कभी, बड़ी ही मासूमियत से गोकुल में माखन चुरा लेते थे, और
कभी रौद्र रूप धारण करके अपने ही अत्याचारी मामा, कंस का वध कर देते थे! इन दो रूपों के साथ ही, श्री
कृष्ण की रासलीलाओं के, कई किस्से-कहानियां भी बेहद लोकप्रिय हैं! कृष्ण की रास लीलाओं से जुड़ी लोक
कथाओं और नृत्य को कृष्ण भक्ति परंपराओं में आत्मीय प्रेम का सबसे सुंदर चित्रण माना जाता है।
रासलीला ब्रज भाषा में लिखे गए भक्ति साहित्य पर आधारित है , जो अपनी मधुरता और भक्ति भाव के
लिए प्रसिद्ध है। कृष्ण के जीवन की लगभग हर महत्वपूर्ण घटना को लीला या नाटक में बदल दिया गया
है।
यदि हम परिभाषा के रूप में समझें तो, रास लीला, रास नृत्य या कृष्ण तांडव, कृष्ण की पारंपरिक कहानी का
हिस्सा मानी जाती हैं, जो विभिन्न हिंदू धर्मग्रंथों जैसे कि, भागवत पुराण और गीता गोविंदा जैसे साहित्य में
वर्णित है। इनमें कृष्ण को राधा और उनकी सखियों (गोपियों) के साथ नृत्य करते हुए प्रदर्शित किया जाता
हैं। कथक का भारतीय शास्त्रीय नृत्य भी, 'ब्रज की रासलीला और मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य' (वृंदावन) से ही
विकसित हुआ, जिसे नटवारी नृत्य भी कहा जाता है, तथा जिसे 1960 के दशक में कथक नर्तक उमा शर्मा
द्वारा पुनर्जीवित किया गया था।
शब्द, रस का अर्थ "सौंदर्यशास्त्र" और लीला का अर्थ "कार्य," होता है! कृष्ण भक्ति परंपराओं में, रास-लीला
को आत्मीय प्रेम का सबसे सुंदर चित्रण माना जाता है। इन परंपराओं में, भौतिक दुनिया में मनुष्यों और
आध्यात्मिक दुनिया में भगवान कृष्ण के बीच रोमानी या रोमांटिक प्रेम को, आत्मा के मूल, परमानंद
आध्यात्मिक प्रेम के प्रतिबिंब के रूप में देखा जाता है। भागवत पुराण में वर्णित है कि, “जो कोई भी
ईमानदारी से रास लीला को सुनता है, या उसका वर्णन करता है, वह कृष्ण की शुद्ध प्रेमपूर्ण भक्ति (शुद्ध-
भक्ति) को प्राप्त करता है।”
रास लीला, कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मणिपुरी और कुचिपुड़ी संस्कृतियों में एक लोकप्रिय विषय रहा
है। रास लीला भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पुष्टिमार्ग या वल्लभ संप्रदाय और अन्य संप्रदायों तथा मथुरा,
उत्तर प्रदेश में वृंदावन, नाथद्वारा के क्षेत्रों में, लोक रंगमंच का एक लोकप्रिय रूप है।
यह पश्चिम बंगाल के नादिया जिले में गौड़ीय वैष्णववाद में भी देखा जाता है, जिसे रास उत्सव के लिए भी
जाना जाता है। रास लीला (रास महोत्सव) को असम के राज्य, त्योहार के रूप में भी मनाते है, जिसे आमतौर
पर नवंबर के अंत या दिसंबर की शुरुआत में मनाया जाता है। रास महोत्सव के दौरान, हर साल कई हजार
भक्त असम के पवित्र मंदिरों में जाते हैं।
विभिन्न परंपराओं के अनुसार, रास-लीला या तो लड़के और लड़कियों द्वारा या केवल लड़कियों द्वारा की
जाती है। इस नृत्य को डंडी (लाठी) पकड़कर, और अक्सर लोक गीतों और भक्ति संगीत के साथ किया जाता
है। रासलीला या कृष्ण लीला में युवा और बाल कृष्ण की, गतिविधियों का मंचन होता है। कृष्ण की
मनमोहक अदाओं और मुरली का जादू ऐसा था कि, गोपियां अपनी सुधबुध गंवा बैठती थीं। माखन चुराना,
मटकी फोड़ना, गोपियों के वस्त्र चुराना, जानवरों को चरने के लिए गांव से दूर-दूर छोड़ कर आना ही, उनकी
प्रमुख शरारतें थी, जिन पर पूरा वृन्दावन मोहित था।
जन्माष्टमी के मौके पर कान्हा की इन सारी अठखेलियों को एक धागे में पिरोकर यानी उनको नाटकीय रूप
देकर रासलीला या कृष्ण लीला खेली जाती है। इस दौरान जगह-जगह रासलीलाओं का मंचन होता है,
जिनमें सजे-धजे श्री कृष्ण को अलग-अलग रूप धारण करवाकर, राधा के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते
हुए दिखाया जाता है।
रासलीला का वर्णन करने के लिए एक बहुत ही सुंदर कहानी बेहद प्रचलित है। किवदंती है की, जब कृष्ण
आठ वर्ष की आयु में गोकुल से वृंदावन चले गए, तो वे गाँव के लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गए। यह
होली के त्योहार के समय था, जब एक शाम को पूर्णिमा के दिन, गांव के लड़के और लड़कियां यमुना नदी के
तट पर एकत्र हुए। वे खेलने लगे और एक दूसरे पर पानी और रेत फेंकने का आनंद उठाने लगे। कुछ समय
बाद, वे नाचते , विपुल और हर्षित अवस्था में पहुंच गए। लेकिन धीरे-धीरे, एक के बाद एक, सभी बच्चे
थकान से चूर होते गए। जब कृष्ण ने यह देखा तो उन्होंने अपनी बांसुरी निकाली और बजाने लगे। उनका
नाटक इतना मंत्रमुग्ध कर देने वाला था कि हर कोई उनके इर्द-गिर्द इकट्ठा हो गया और लगभग आधी रात
तक झूमता रहा। रास लीला की यह पहली घटना मानी जाती है, जहां लोगों का एक साधारण आनंदमय
मिलन, दिव्य अवस्था में पहुंच गया।
कृष्ण की कहानी को समर्पित रासलीला, भक्तिमय नाटक का एक रूप भी है। यह दिल्ली के दक्षिण के क्षेत्रों
में, कृष्ण के जीवन से संबंधित गांवों और शहरों में विकसित हुआ। इसके मुख्य पात्र, कृष्ण, उनकी प्रिय
राधा, और गोपियां , और चरवाहों की भूमिका, युवा लड़कों द्वारा निभाई जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि
कृष्ण के जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को रासलीला के रूप में निभाने की परंपरा लगभग तीन सौ साल पहले
कृष्ण की पौराणिक कथाओं से जुड़े क्षेत्रों में शुरू हुई थी। माना जाता है कि तीन महत्वपूर्ण विष्णु भक्ति
संत, घुमंद देव, हितिवंश और नारायण भट्ट ने इस परंपरा को पुरानी लोक परंपराओं और कथक नृत्य
तकनीक के आधार पर बनाया है। रासलीला आज भी एक जीवंत परंपरा है, जो मुख्य रूप से शौकिया समूहों
द्वारा दिल्ली के दक्षिण के क्षेत्रों में, और वृंदावन आदि में विभिन्न प्रकार के धार्मिक उत्सवों के दौरान की
जाती है।
संदर्भ
https://bit.ly/3NedPY9
https://bit.ly/3PWmsrU
https://bit.ly/3zdx1Rr
चित्र संदर्भ
1. गोपियों संग रासलीला करते कृष्ण को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. मणिपुरी नृत्य में रासलीला को दर्शाता एक चित्रण (Wikimedia)
3. रासलीला मंचन को दर्शाता एक चित्रण (Wikimedia)
4. कृष्ण रासलीला की छवि को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. रासलीला के पात्रों को दर्शाता एक चित्रण flickr)