रामपुर के लोगों, क्या आप जानना चाहेंगे, आज भारत की कितनी प्रतिशत महिलाएं आत्मनिर्भर हैं?

अवधारणा II - नागरिक की पहचान
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रामपुर के लोगों, क्या आप जानना चाहेंगे, आज भारत की कितनी प्रतिशत महिलाएं आत्मनिर्भर हैं?

 
पर अब नहीं मैं अबला कहलाऊँगी,

सबला बनकर जग को दिखलाऊँगी।

न्याय-अन्याय की पहचान करूँगी,

अपनी शक्ति का सम्मान करूँगी।

आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey (PLFS)) की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2023 में भारत में 37% महिलाएँ किसी न किसी तरह का रोज़गार कर रही थीं और आय अर्जित कर रही थीं। वहीं, उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 32.1% था।

अगर बात करें श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) की, तो यह उन लोगों का प्रतिशत दर्शाता है जो 15 साल या उससे अधिक उम्र के हैं और या तो किसी काम में लगे हैं या काम की तलाश कर रहे हैं। आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (International Women’s Day) के मौके पर, हम भारत में महिलाओं की रोज़गार में भागीदारी को करीब से समझेंगे। साथ ही, हम श्रम बल से जुड़े कुछ अहम आँकड़ों पर नज़र डालेंगे और जानेंगे कि अर्थव्यवस्था के बढ़ने के बावजूद महिलाएँ कार्यबल से बाहर क्यों हो रही हैं। इसके अलावा, हम उन संभावित कदमों पर भी चर्चा करेंगे जो महिला श्रम बल भागीदारी को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।

पी एल एफ़ एस (PLFS 2021-22) की हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर में सुधार हुआ है। भले ही यह अब भी पुरुषों की तुलना में कम है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में इसमें अच्छा खासा इजाफा हुआ है। फिलहाल, लगभग एक-तिहाई महिलाएँ श्रम बल का हिस्सा बन चुकी हैं। 2021-22 में कामकाजी उम्र (15 वर्ष और उससे अधिक) की 32.8% महिलाएँ कार्यबल में थीं, जबकि 2017-18 में यह भागीदारी सिर्फ़ 23.3 प्रतिशत थी। यानी इस दौरान 9.5 प्रतिशत अंकों की बढ़ोतरी हुई।

इस बढ़ोतरी में सबसे ज़्यादा योगदान ग्रामीण इलाकों का रहा, जहाँ महिला श्रम बल भागीदारी दर 2017-18 के 24.6% से बढ़कर 2021-22 में 36.6% हो गई। दूसरी ओर, शहरी इलाकों में यह बढ़ोतरी धीमी रही। 2017-18 में यह दर 20.4% थी, जो 2021-22 में बढ़कर 23.8% हो गई, यानी सिर्फ़ 3.4 प्रतिशत अंकों की बढ़ोतरी हुई।
 

चित्र स्रोत : wikimedia 

आइए, अब आपको भारत में श्रम बल से जुड़े कुछ अहम तथ्यों से रूबरू कराते हैं:

ग्रामीण क्षेत्र:

  • ग्रामीण क्षेत्रों में 15 साल और उससे अधिक उम्र की 36.6% महिलाएँ, रोज़गार कमा रही हैं, जबकि पुरुषों की भागीदारी 78.2% है।
  • 15-59 वर्ष की आयु में महिला श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) 39.3% है, जबकि पुरुषों के लिए, यह 82.1% है।
  • कुल एल  एफ़ पी आर (15 वर्ष और उससे अधिक) 57.5%, और 15-59 वर्ष आयु वर्ग में 60.8% है।

शहरी क्षेत्र:

  • शहरी क्षेत्र में 15 साल और उससे अधिक उम्र की 23.8% महिलाएँ आय अर्जित कर रही हैं, जबकि पुरुषों की भागीदारी 74.7% है।
  • 15-59 वर्ष आयु वर्ग में महिला एल  एफ़ पी आर 26.5%, जबकि पुरुषों के लिए यह 81.2% है।
  • कुल एल  एफ़ पी आर (15 वर्ष और उससे अधिक) 49.7%, और 15-59 वर्ष आयु वर्ग में 54.5% है।

स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट 2023 (State of Working India Report 2023) के अनुसार, भारत में महिलाओं की श्रम भागीदारी में अहम बदलाव हो रहे हैं। जैसे कि: 

  • ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी तेज़ी से बढ़ी है, जबकि शहरी इलाकों में यह अपेक्षाकृत धीमी रही है।
  • रोज़गार में लैंगिक असमानता कम हो रही है, जो अर्थव्यवस्था में आ रहे बड़े बदलावों का परिणाम है।
  • कम शिक्षित वृद्ध महिलाएँ, श्रम बल से बाहर हो रही हैं, जबकि युवा और अधिक शिक्षित महिलाएँ इसमें शामिल हो रही हैं।
  • वेतनभोगी नौकरियों में, महिलाओं की संख्या बढ़ रही है, जबकि अनौपचारिक और अस्थायी मज़दूरी वाले कामों में उनकी भागीदारी घट रही है।
  • कृषि क्षेत्र में महिलाओं की संख्या कम हो रही है, जबकि सेवा क्षेत्र में उनकी हिस्सेदारी बढ़ रही है।
  • वेतनभोगी नौकरियों में बढ़ती भागीदारी से लिंग वेतन अंतर भी कम हो रहा है।

अब ज़्यादा महिलाएँ, आकस्मिक मज़दूरी छोड़कर संगठित क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत हो रही है और वे लंबे समय तक आर्थिक रूप से सशक्त बन रही हैं।

स्वरोज़गार में बढ़ोतरी लेकिन चुनौतियाँ अभी भी बरकरार हैं! ताज़ा पीएलएफएस (2022-23) रिपोर्ट के अनुसार 2021-22 में 60% महिलाएँ स्वरोज़गार कर रही थीं, जो 2022-23 में बढ़कर 70.1% हो गई। 
 

चित्र स्रोत : Pexels 

स्वरोज़गार के दो रूप हैं:

  1. स्वयं के खाते पर काम करने वाली या नियोक्ता महिलाएँ।
  2. घरेलू उद्यमों में अवैतनिक सहायक के रूप में काम करने वाली महिलाएँ।

हालांकि, अब भी अधिकांश महिलाएँ पारिवारिक व्यवसायों में अवैतनिक रूप से काम कर रही हैं, जिससे यह साफ़ होता है कि भले ही स्वरोज़गार बढ़ा हो, लेकिन महिलाओं पर घर और परिवार की ज़िम्मेदारियाँ कम नहीं हुई हैं।

आइए अब उन वजहों के बारे में जानते हैं, जो भारत के कार्यबल में महिला भागीदारी सीमित कर रही हैं: 

  • समृद्धि और महिलाओं की कामकाजी दुनिया से दूरी: जब किसी परिवार की आय बढ़ती है, तो अकसर महिलाएँ काम छोड़ देती हैं। इसकी वजह यह है कि अब उन्हें कमाने की मजबूरी महसूस नहीं होती। पहले, कई महिलाएँ खेतों में या अन्य शारीरिक श्रम में जुटी रहती थीं, लेकिन आर्थिक स्थिति सुधरने के बाद वे इससे पीछे हटने लगती हैं। परिवार भी महिलाओं के काम को सिर्फ़ ज़रूरत पड़ने पर किया जाने वाला उपाय मानते हैं। जैसे ही हालात बेहतर होते हैं, उनसे उम्मीद की जाती है कि वे घर संभालें और काम छोड़ दें।
  • पढ़ाई और नौकरी के बीच का संतुलन: आपको जानकर हैरानी होगी कि महिलाओं की शिक्षा बढ़ने से भी उनकी नौकरियों में भागीदारी कम होती है। जब वे स्कूल या कॉलेज में होती हैं, तो पढ़ाई के चलते वे किसी भुगतान वाले काम से दूर रहती हैं। इसका सीधा असर यह होता है कि इस उम्र की महिलाओं की कामकाजी भागीदारी घट जाती है।
  • पारंपरिक सोच और महिलाओं का काम: भारतीय समाज में महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे परिवार को प्राथमिकता दें। खासकर संयुक्त परिवारों में उनकी भूमिका त्याग, देखभाल और बच्चों की परवरिश से जुड़ी होती है। यही वजह है कि समाज में यह आम धारणा बनी हुई है कि महिलाओं को घर से बाहर काम करने की ज़रूरत नहीं है। यह सोच उनकी नौकरी करने की संभावनाओं को सीमित कर देती है।
  • प्रवासन और सुरक्षा की चुनौतियाँ: गाँवों से शहरों की ओर बढ़ते प्रवासन का महिलाओं पर अलग असर पड़ता है। अक्सर पुरुष पहले शहर जाते हैं, जबकि महिलाएँ और बच्चे गाँव में ही रह जाते हैं। इससे उनके लिए काम करने के मौके कम हो जाते हैं, क्योंकि वे घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों में उलझ जाती हैं। अगर वे शहर भी चली जाएँ, तो वहाँ उन्हें सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं का सामना करना पड़ता है। नए माहौल में, अनजान पड़ोसियों और लंबी दूरी तय करने की चुनौती के कारण वे बाहर काम करने से हिचकिचाती हैं। सार्वजनिक परिवहन की सुरक्षा और भरोसेमंद व्यवस्था की कमी भी उनके काम करने की संभावना को और कम कर देती है।
  • महिलाओं के श्रम का सही आकलन न होना: महिलाएँ, घर संभालने या पारिवारिक खेतों में काम करने जैसे कई अवैतनिक कार्य करती हैं, लेकिन इन्हें औपचारिक रूप से श्रम नहीं माना जाता। इसके अलावा, वे ऐसे काम भी करती हैं, जो सीधे पैसे कमाने वाले नहीं होते, लेकिन फिर भी परिवार के लिए फ़ायदेमंद होते हैं, जैसे जलाऊ लकड़ी या ईंधन इकट्ठा करना। ये सारे काम अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं, लेकिन सरकारी आँकड़ों में इन्हें शामिल नहीं किया जाता। यही कारण है कि महिला श्रम भागीदारी की सही तस्वीर सामने नहीं आती।

आइए, अब यह समझते हैं कि भारत में महिला श्रम शक्ति में सुधार कैसे किया जा सकता है ?

महिलाओं को अधिक अवसर देने और सशक्त बनाने के लिए शिक्षा और कौशल विकास को प्राथमिकता देना आवश्यक है। सभी स्तरों पर बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराकर और ड्रॉप- आउट्स (Dropouts) को रोककर, ऐसा संभव हो सकता है। इसके अलावा, भेदभाव-विरोधी कानूनों को मजबूत करना ज़रूरी है। ऐसी नीतियाँ बनाई जानी चाहिए जो कार्यस्थल पर महिलाओं को किसी भी तरह के भेदभाव से बचाएँ। यह सुधार केवल कानून तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि व्यवहार में भी बदलाव लाना ज़रूरी है। महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए कार्यस्थल का बुनियादी ढाँचा सुधारना भी आवश्यक है। इसमें शौचालयों की उपलब्धता, सुरक्षित कार्य वातावरण, मातृत्व सहायता और क्रेच सुविधाओं से संबंधित कानूनों का सख्ती से पालन शामिल है।
 

चित्र स्रोत : wikimedia 

इसके साथ ही, समाज में महिलाओं को लेकर बनी रूढ़िवादी धारणाओं को बदलना होगा। महिलाओं की क्षमताओं को कम आँकने वाली सोच को समाप्त करना ज़रूरी है, क्योंकि यही भेदभाव को बनाए रखती है। इन सभी उपायों से महिला श्रम शक्ति की भागीदारी को बढ़ाने में मदद मिलेगी और वे कार्यस्थल पर अधिक आत्मनिर्भर और सशक्त बन सकेंगी।

 

संदर्भ: 

https://tinyurl.com/yrxxpmng

https://tinyurl.com/2285dl65

https://tinyurl.com/2l7uo9qy

https://tinyurl.com/2bosfmpv

मुख्य चित्र : चाय की खेती करती एक आत्मनिर्भर भारतीय महिला (Pexels)