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                                            आप भारत के किसी भी कोने में चले जाएँ, आपको वहां पर मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल करते लोग ज़रूर मिल जाएँगे। ख़ासकर, रामपुर जैसे इलाक़ों में, लोग आज भी पानी जमा करने और खाने-पीने के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि 'खुर्जा' इन पारंपरिक बर्तनों का एक बहुत बड़ा केंद्र है ? खुर्जा, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले में स्थित है! यह क्षेत्र अपने शानदार मिट्टी के बर्तनों के लिए पूरे देश में मशहूर है। यहाँ बनने वाले मिट्टी के बर्तनों की ख़ासियत इनकी अनोखी बनावट और पारंपरिक तकनीकों में छुपी होती है। इन बर्तनों को ख़ास मिट्टी के मिश्रण से तैयार किया जाता है, फिर कारीगर इन्हें हाथ से सजाते हैं और ख़ूबसूरत डिज़ाइनों में ढालते हैं। यही वजह है कि खुर्जा के बर्तनों को भौगोलिक संकेत (GI Tag) भी मिला हुआ है, जिससे इनकी पहचान और भी ख़ास हो जाती है। लेकिन सवाल यह है कि खुर्जा के ये मिट्टी के बर्तन आखिर बनते कैसे हैं ? इन्हें बनाने की पूरी प्रक्रिया क्या है, और कौन-कौन लोग इसमें जुड़े हुए हैं ? आज के इस लेख में हम इन तमाम सवालों के जवाब तलाशेंगे। हम यह भी जानेंगे कि इस उद्योग में कितने कारख़ाने हैं, कितने लोग यहाँ काम करते हैं और कारीगरों की कमाई कितनी होती है। तो चलिए, इन बर्तनों के इस दिलचस्प सफ़र को क़रीब से समझते हैं!
आइए सबसे पहले जानते हैं कि खुर्जा के मिट्टी के बर्तन कैसे बनते हैं?
खुर्जा के मिट्टी के बर्तन बनाने में एक ख़ास तरह की मिट्टी का इस्तेमाल होता है, जिसे ‘सफ़ेद मिट्टी’ या ‘गोल्डन क्ले (Golden Clay)’ कहा जाता है। यह मिट्टी आम मिट्टी से अलग होती है और बर्तनों को ज़्यादा मज़बूत और टिकाऊ बनाती है। इसके अलावा, इसमें   स्टोन (Quartz stone) और फ़ेल्डस्पार (Feldspar) जैसे तत्व भी मिलाए जाते हैं, जिन्हें गुजरात और राजस्थान से मंगाया जाता है। बर्तन बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले मिट्टी को अच्छे से तैयार किया जाता है। फिर इसे या तो हाथों से या फिर इलेक्ट्रिक मशीनों की मदद से अलग-अलग आकृतियों में ढाला जाता है। कुछ कारीगर इस मिट्टी से बर्तन बनाते हैं, तो कुछ इससे  खूबसूरत फूलदान, टाइल्स और क्रॉकरी तैयार करते हैं। जब बर्तन अपनी आकृति में ढल जाते हैं, तो उनकी सतह को चिकना किया जाता है, ताकि वे देखने में सुंदर लगें। इसके बाद, इन पर हरे, लाल, नीले और भूरे जैसे गर्म रंगों की पेंटिंग की जाती है। कारीगर इन पर हाथ से जटिल (सूक्ष्म) पुष्प डिज़ाइन उकेरते हैं, जिससे ये बर्तन और भी आकर्षक दिखते हैं। अक्सर डिज़ाइनों को उभारने के लिए काले रंग का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे पैटर्न और भी निखरकर सामने आते हैं। आख़िरी चरण में, इन बर्तनों को चमकाने और मज़बूत बनाने के लिए एक ख़ास प्रक्रिया से गुज़ारा जाता है। इन्हें बेहद ऊँचे तापमान पर पकाया जाता है, जिससे उनकी मज़बूती बढ़ती है और उनके रंग और भी जीवंत हो जाते हैं।
खुर्जा के  मिट्टी के बर्तनों के उद्योग से लोगों की आजीविका कितनी है ?
खुर्जा  के मिट्टी के बर्तनों का उद्योग, हज़ारों लोगों के लिए रोज़गार का मुख्य साधन है। इस उद्योग में क़रीब, 25,000 लोग काम करते हैं, जिनमें से 5,000-7,000 लोग सहायक सेवाओं से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में  यहाँ 500 से ज़्यादा पॉटरी  कारखाने हैं। इनकी पारंपरिक कला, अनोखी सुंदरता और उपयोगिता का ऐसा मेल है, जिसने खुर्जा की  इस कला को दुनिया भर में प्रसिद्ध बना दिया है। खुर्जा में मिट्टी के बर्तन बनाने वाली छोटी इकाइयों में 50-100 मज़दूर काम करते हैं, जबकि बड़ी इकाइयों में 200-250 मज़दूर काम करते हैं। एक कुशल मज़दूर हर महीने लगभग 40,000 रुपये कमाता है, जबकि एक अकुशल मज़दूर 15,000 से 18,000 रुपये तक कमाता है। हालाँकि बहुत कम लोग इस बात को जानते होंगे कि उत्तर प्रदेश का यह महत्वपूर्ण शहर, 'खुर्जा' एक समय में न केवल यू पी, बल्कि बिहार, पश्चिम बंगाल और असम के लोगों को भी रोज़गार देता था। लेकिन आज इसकी हालत दयनीय हो चुकी है। यहाँ के लोग अब बेहतर नौकरी और मदद की उम्मीद में दूसरे शहरों की ओर रुख़ कर रहे हैं। सबसे बड़ा झटका इस उद्योग को 2016 में नोटबंदी से लगा। फिर 2017 में जी एस टी (GST) लागू हुआ, जिससे श्रमिकों और छोटे कारख़ाने मालिकों को भारी परेशानी हुई। उद्योग अभी इन झटकों से संभल ही रहा था कि मार्च 2020 में कोविड-19 के चलते लॉकडाउन लग गया। इसके बाद एक के बाद एक   कारखाने बंद होने लगे। पहले जो कारख़ाने के मालिक अपने कर्मचारियों को हर दस दिन में वेतन देते थे, वे अब चार-चार महीने तक भुगतान नहीं कर पा रहे हैं। 
उनकी हालत ऐसी हो गई है कि जब तक बाज़ार से पैसा नहीं आएगा, वेतन देना नामुमकिन है। लेकिन बाज़ार या तो ठप पड़ा है या फिर भारी नुकसान में चल रहा है। महंगाई ने भी स्थिति को और बिगाड़ दिया है। उत्पादन लागत बढ़ गई है, लेकिन बिक्री में भारी गिरावट आई है। सिरेमिक उत्पादों को पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाली सीएनजी की क़ीमत पहले 30 रुपये प्रति लीटर थी, जो अब बढ़कर 90 रुपये प्रति लीटर हो गई है। इससे लागत और बढ़ गई, लेकिन मुनाफ़ा लगातार कम होता जा रहा है। हालाँकि हाल ही में हमें इस क्षेत्र से जुड़ी एक अच्छी  खबर सुनने को मिली है !
कैसे 3D डिज़ाइन स्टूडियो ने खुर्जा के पॉटरी उद्योग को डिजिटल बनाया ?
इंडिया एक्ज़िम बैंक ने अपने ग्रासरूट इनिशिएटिव्स फ़ॉर डेवलपमेंट (Initiatives for Development) कार्यक्रम के तहत खुर्जा पॉटरी मैन्युफ़ैक्चरर्स एसोसिएशन (Khurja Pottery Manufacturers Association) के साथ मिलकर एक नया थ्री डी (3D) डिज़ाइन स्टूडियो शुरू किया है। इस स्टूडियो से 250 से ज़्यादा स्थानीय पॉटरी इकाइयों को फ़ायदा मिलने की उम्मीद है। अब कारीगर नए डिज़ाइनों के साथ आसानी से प्रयोग कर सकते हैं। इससे उत्पादन लागत कम होगी और उत्पाद की गुणवत्ता बेहतर बनेगी। स्टूडियो में मिलने वाले प्रशिक्षण से कारीगर जटिल डिज़ाइन बनाना सीखेंगे, जो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उनकी माँग बढ़ाएँगे। पहले से ज़्यादा  खुर्जा की पॉटरी को दुनियाभर में पहचान मिल रही है। अंतरराष्ट्रीय ब्रांड्स से ऑर्डर आ रहे हैं और काला घोड़ा कला महोत्सव जैसे प्रतिष्ठित आयोजनों में भागीदारी बढ़ रही है।
संदर्भ :
https://tinyurl.com/2bocoeep
https://tinyurl.com/2d3ev43o
https://tinyurl.com/29q9p869
https://tinyurl.com/25sd7fcc
https://tinyurl.com/2a6fpux6
 
मुख्य चित्र: खुर्जा में बने मिट्टी के बर्तन (Wikimedia)