चंदन: प्रकृति का सुगंधित खजाना और सांस्कृतिक धरोहर

वृक्ष, झाड़ियाँ और बेलें
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चंदन: प्रकृति का सुगंधित खजाना और सांस्कृतिक धरोहर

चंदन का पेड़ न केवल अपनी सौम्य सुगंध और शीतलता के लिए जाना जाता है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और औषधीय परंपराओं में भी एक विशेष स्थान रखता है। इसका वैज्ञानिक नाम संतालम एल्बम(Santalum album) है और यह विशेष रूप से दक्षिण भारत के कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल क्षेत्रों में पाया जाता है। हालांकि अब इसे देश के अन्य हिस्सों में भी उगाया जा सकता है, लेकिन इसके संरक्षण और खेती को लेकर अब भी कई चुनौतियाँ मौजूद हैं।

इस लेख में आप जानेंगे कि चंदन का पेड़ कैसे उगाया जाता है, इसकी खेती के लिए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, इसके औषधीय और व्यावसायिक लाभ क्या हैं, और यह भारतीय संस्कृति और विभिन्न धर्मों में इतना महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है। साथ ही, हम यह भी जानेंगे कि इस दुर्लभ पेड़ के संरक्षण की आज क्यों विशेष आवश्यकता है।

चंदन की खेती: एक दीर्घकालिक लेकिन लाभकारी प्रक्रिया

चंदन (Santalum album) को उगाना जितना आकर्षक है, उतना ही इसमें धैर्य भी जरूरी होता है। यह पेड़ आमतौर पर 13–16 मीटर ऊँचाई तक बढ़ता है और परिपक्व होने में 15 से 20 वर्ष का समय लेता है। जैविक तरीकों से उगाए जाने पर यह 10 से 15 वर्षों में लकड़ी देने लगता है। इसकी जड़ें ‘अर्ध परजीवी’ होती हैं, यानी यह अपने पास की घास या पौधों की जड़ों से पोषण लेता है, इसलिए इसे अकेले नहीं उगाया जाना चाहिए।

अच्छी धूप, हल्की दोमट या बलुई मिट्टी, और थोड़ी सूखी जलवायु इसकी खेती के लिए अनुकूल मानी जाती है। इसके बीज आसानी से ऑनलाइन या नर्सरी से उपलब्ध हैं। इसके पौधों को जैविक खाद से समय-समय पर पोषण देना जरूरी है, और इसकी सिंचाई हल्के पानी से की जानी चाहिए। एक हेक्टेयर में लगभग 400 पौधे लगाए जा सकते हैं और एक पेड़ से परिपक्व अवस्था में 15 से 20 किलो लकड़ी प्राप्त हो सकती है, जो बाज़ार में लाखों रुपये में बिक सकती है।

औषधीय और व्यावसायिक उपयोग: सुगंध से स्वास्थ्य तक

चंदन की लकड़ी और इससे प्राप्त तेल का प्रयोग सदियों से औषधीय गुणों के लिए किया जाता रहा है। आयुर्वेद में यह गर्मी कम करने, त्वचा रोगों, सिरदर्द, बेचैनी और अनिद्रा जैसी समस्याओं के उपचार में प्रयोग किया जाता है। चंदन का तेल जीवाणुरोधी और सूजनरोधी गुणों से भरपूर होता है, जिससे यह त्वचा के लिए अत्यंत लाभकारी है।

वाणिज्यिक दृष्टि से चंदन का उपयोग इत्र, साबुन, धूपबत्ती, सौंदर्य प्रसाधन और अरोमा थेरेपी में होता है। इसकी लकड़ी से मूर्तियाँ और धार्मिक प्रतीक भी बनाए जाते हैं। एक किलो शुद्ध चंदन की लकड़ी की कीमत ₹10,000 से भी अधिक हो सकती है, जिससे यह किसानों के लिए एक अत्यधिक लाभकारी फसल बन जाती है।

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व: पूज्य और पवित्र

चंदन का उपयोग केवल व्यावसायिक नहीं, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। भारत के प्रमुख धर्मों में चंदन को विशेष स्थान प्राप्त है:

  • हिंदू धर्म: चंदन के पेस्ट का उपयोग भगवान शिव की पूजा, मूर्तियों के अभिषेक और ध्यान के दौरान किया जाता है। माना जाता है कि यह मन को शांत करता है और ईश्वर के समीप ले जाता है।
  • जैन धर्म: तीर्थंकरों की पूजा में केसर मिला चंदन लगाया जाता है और दाह संस्कार में शव को चंदन माला पहनाई जाती है।
  • बौद्ध धर्म: ध्यान में स्थिरता और मानसिक शुद्धता के लिए चंदन की खुशबू महत्वपूर्ण मानी जाती है।
  • सूफी परंपरा: सूफियों की कब्रों पर भक्ति और सम्मान के प्रतीक के रूप में चंदन लगाया जाता है।
  • पारसी धर्म: अग्नि मंदिर में अग्नि को जीवित रखने हेतु चंदन की लकड़ी अर्पित की जाती है।
  • पूर्वी एशियाई संस्कृति: चंदन और अगरवुड को जापानी, कोरियाई और चीनी धार्मिक अनुष्ठानों में धूप के रूप में उपयोग किया जाता है।

यह विविध धार्मिक मान्यताएँ चंदन को एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्थापित करती हैं, जो समय, भूगोल और आस्था से परे जाकर मानवता को जोड़ती है।

संरक्षण की आवश्यकता: एक कीमती धरोहर संकट में

बीते कुछ दशकों में चंदन के पेड़ों की अत्यधिक कटाई, अवैध तस्करी और सरकारी नीतियों के कारण इसकी संख्या में भारी गिरावट आई है। 1970 के दशक में भारत में चंदन का वार्षिक उत्पादन लगभग 4,000 टन था, जो अब घटकर 300 टन से भी कम रह गया है। इसकी उच्च मांग के कारण तस्कर इसकी लकड़ी की चोरी करते हैं, जिससे भारत में लगभग 90% पेड़ नष्ट हो चुके हैं।

2002 तक निजी रूप से चंदन उगाना प्रतिबंधित था। अब हालांकि इसे उगाया जा सकता है, परंतु उसकी कटाई के लिए अभी भी सरकारी अनुमति अनिवार्य है। इन प्रतिबंधों ने आम किसानों और उद्यमियों को इससे दूर कर दिया है, जिससे ऑस्ट्रेलिया जैसे देश अब चंदन उत्पादन में भारत को पीछे छोड़ रहे हैं।

यदि भारत में इसके प्रति नीतिगत बदलाव और खेती को बढ़ावा दिया जाए, तो हम न केवल इसकी दुर्लभता को खत्म कर सकते हैं, बल्कि आर्थिक रूप से भी अत्यधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।