रामपुर, जानिए कैसे चीन की सभ्यता में चमकती है भारतीय संस्कृति की छाया

विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
28-06-2025 09:20 AM
रामपुर, जानिए कैसे चीन की सभ्यता में चमकती है भारतीय संस्कृति की छाया

भारत और चीन, ये दोनों प्राचीन सभ्यताएँ न केवल भौगोलिक रूप से एक-दूसरे के पड़ोसी रहे हैं, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और दार्शनिक दृष्टि से भी सदियों से एक-दूसरे के गहरे सहयोगी रहे हैं। इतिहास की धारा में इन दोनों देशों के बीच जो संबंध पनपे, वे केवल व्यापार तक सीमित नहीं रहे, बल्कि विचारों, आस्थाओं और जीवन दृष्टिकोणों के स्तर पर भी एक स्थायी सेतु बने। विशेषकर बौद्ध धर्म के माध्यम से भारत की सांस्कृतिक छाया चीन की भूमि तक पहुँची और वहाँ की कला, स्थापत्य, साहित्य और दर्शन में गहराई से समाहित हो गई। चीनी संस्कृति में आज भी भारतीय प्रभावों की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है—कभी मंदिरों की भित्तियों पर, कभी बौद्ध ग्रंथों की भाषा में, तो कभी ध्यान और साधना की परंपराओं में।

इस लेख में हम इस ऐतिहासिक यात्रा को करीब से समझेंगे—कैसे बौद्ध धर्म भारत से चीन पहुँचा और प्रारंभिक भारतीय भिक्षुओं व प्रचारकों ने इसके प्रसार में क्या भूमिका निभाई। हम यह भी देखेंगे कि रेशम मार्ग, जो व्यापार का प्रमुख मार्ग था, किस तरह एक सांस्कृतिक और धार्मिक पुल बन गया। फिर, हम बौद्ध धर्म को चीनी राजसत्ता की स्वीकृति, तारिम बेसिन में उभरे बौद्ध केंद्रों की ऐतिहासिक भूमिका, और इन केंद्रों के माध्यम से फैली कला, शिक्षा और साधना पर ध्यान देंगे। अंततः, हम चीनी यात्रियों—जैसे फाह्यान और ह्वेन त्सांग—की भारत यात्राओं, उनके लाए गए ग्रंथों के अनुवाद, और भारतीय-चीनी बौद्ध कला के समन्वय की उन कहानियों को भी जानेंगे जिन्होंने दो महान सभ्यताओं को आध्यात्मिक स्तर पर जोड़ा।

भारतीय संस्कृति का चीन में प्रवेश और प्रारंभिक बौद्ध प्रचारक

भारतीय संस्कृति के चीन में प्रवेश की गाथा मूलतः बौद्ध धर्म के माध्यम से रची गई एक ऐतिहासिक और आध्यात्मिक यात्रा है। इस यात्रा की शुरुआत लगभग 65 ईस्वी में मानी जाती है, जब भारत के दो महान बौद्ध भिक्षु—कश्यप माटंगा और धर्मरक्ष—चीन पहुंचे। वे केवल तीर्थयात्री नहीं थे, बल्कि भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रतिनिधि थे, जो अपने साथ बौद्ध दर्शन, ग्रंथ और एक गहरी आध्यात्मिक दृष्टि लेकर आए थे।

चीन पहुँचकर उन्होंने बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद करना आरंभ किया, जिससे भारतीय बौद्ध विचारधारा पहली बार चीनी भाषा और समाज में प्रवेश कर सकी। कश्यप माटंगा द्वारा अनूदित ग्रंथों ने चीन में बौद्ध अध्ययन की नींव रखी, और वहाँ की धार्मिक चेतना को एक नया आयाम प्रदान किया। उनकी विद्वता और साधना ने न केवल धार्मिक जगत को, बल्कि आम लोगों की सोच और जीवनशैली को भी प्रभावित किया।

इस ऐतिहासिक योगदान को सम्मानित करने के लिए भारत सरकार ने चीन के हेनान प्रांत के ऐतिहासिक लुओयांग शहर में ‘श्वेत अश्व मंदिर’ परिसर के भीतर एक भारतीय बौद्ध मंदिर का निर्माण करवाया। मई 2010 में भारत की तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल द्वारा उद्घाटित यह मंदिर आज भी भारत-चीन के आध्यात्मिक रिश्तों का जीवंत प्रतीक है।

कश्यप माटंगा और धर्मरक्ष ने जिस भाषा से ग्रंथों का अनुवाद किया, वह ‘बैक्ट्रियन’ थी, जो उस समय गंधार क्षेत्र में प्रचलित थी और बौद्ध अध्ययन के लिए प्रमुख माध्यम मानी जाती थी। उनका सबसे प्रमुख अनूदित ग्रंथ "सूत्र इन फोर्टी-टू सेक्शन" (四十二章经) आज भी चीन के कई बौद्ध संस्थानों में आदरपूर्वक पढ़ाया जाता है और बौद्ध अनुयायियों की साधना का केंद्र बना हुआ है।

धर्मरक्ष का एक और ऐतिहासिक योगदान था ‘सद्धर्म पुण्डरीक सूत्र’ (Lotus Sutra) का चीनी अनुवाद। यह ग्रंथ महायान बौद्ध परंपरा का आधारशिला बन गया और बाद में जापान, कोरिया तथा अन्य एशियाई देशों में भी विशेष श्रद्धा के साथ ग्रहण किया गया। इन दोनों भारतीय भिक्षुओं द्वारा शुरू किया गया ‘लुओयांग मॉडल’ चीन में बौद्ध शिक्षा की आधारभूत प्रणाली बना, जिसे बाद में विभिन्न मठों और संस्थानों में एक मानक के रूप में अपनाया गया।

रेशम मार्ग के मानचित्र को दर्शाता चित्रण

रेशम मार्ग की भूमिका: व्यापार से संस्कृति तक

रेशम मार्ग केवल व्यापारिक संपर्क का साधन नहीं था, यह विचारों, धर्मों और संस्कृतियों के आदान-प्रदान का भी मार्ग बना। भारत से चीन तक बौद्ध धर्म की यात्रा इसी मार्ग के माध्यम से हुई। यह मार्ग भारत से मध्य एशिया और फिर चीन तक जाता था।

महान सम्राट अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। उनके दूतों और प्रचारकों ने बौद्ध सिद्धांतों को इस मार्ग से यात्रा करते हुए चीन तक पहुँचाया। इस मार्ग के माध्यम से व्यापारियों के साथ-साथ धर्माचार्य और विद्वान भी यात्रा करते थे, जो धार्मिक ग्रंथ, मूर्तियां और चित्रकला की शैली लेकर चलते थे।

रेशम मार्ग पर स्थित नगर जैसे कि हॉटन, यारकंद और काशगर में बौद्ध विहार, ग्रंथालय और मूर्तिकला के केंद्र बने। इस मार्ग से यात्रा कर रहे भिक्षुओं ने हीनयान और महायान शाखाओं के सिद्धांतों को चीन में स्थापित किया।
रेशम मार्ग के पश्चिमी छोर पर भारत की ओर टैक्सिला और वैशाली जैसे प्रमुख शिक्षा केंद्र थे, वहीं चीन की ओर डुनहुआंग, चांगआन और तिब्बत के ल्हासा प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र बने। रेशम मार्ग पर बौद्ध धर्म के प्रसार के प्रमाण चीनी नक्शों, संस्कृत पांडुलिपियों और मध्य एशियाई गुफा चित्रों में मिलते हैं। UNESCO द्वारा कई स्थानों को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है।

बौद्ध धर्म का विस्तार और चीनी राजसत्ता में स्वीकार्यता

बौद्ध धर्म को चीन में वास्तविक मान्यता तब मिली जब उसे राज्य धर्म का दर्जा प्राप्त हुआ। वेई साम्राज्य (386–534 ईस्वी) के दौरान बौद्ध धर्म को राजनैतिक संरक्षण मिला और सम्राटों ने बौद्ध विहारों, मंदिरों और मूर्तियों के निर्माण में उत्साहपूर्वक भाग लिया। चीनी राजवंशों ने बौद्ध धर्म को केवल एक धार्मिक पंथ के रूप में नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने भारतीय बौद्ध परंपराओं को स्थानीय विश्वासों और रीति-रिवाज़ों के साथ समाहित कर लिया। इसी प्रक्रिया में चीनी बौद्ध सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई, जैसे ज़ेन बौद्ध धर्म, जो ध्यान और आत्म-ज्ञान पर केंद्रित था।

राजकीय संरक्षण के चलते बौद्ध धर्म समाज के विभिन्न वर्गों में लोकप्रिय होता गया। यह शिक्षा, चिकित्सा और समाज सेवा के क्षेत्रों में भी सक्रिय भूमिका निभाने लगा, जिससे इसकी व्यापक स्वीकृति बढ़ी। सम्राट वू (502–549 ई.) ने स्वयं बौद्ध भिक्षु का जीवन अपनाया और बौद्ध मठ में दीक्षा ली। तांग वंश के समय को बौद्ध धर्म का स्वर्ण युग माना जाता है, जब चीन में लगभग 5,000 से अधिक मंदिरों और हजारों भिक्षुओं की उपस्थिति दर्ज की गई।

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शाओलिन मंदिर चीन में स्थित एक प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर है।

तारिम बेसिन: बौद्ध धर्म का सांस्कृतिक केंद्र

चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित तारिम बेसिन प्राचीन काल में बौद्ध धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया। यह क्षेत्र विभिन्न खानाबदोश जातियों द्वारा आबाद था, जिन्होंने न केवल बौद्ध धर्म को अपनाया, बल्कि उसके प्रचार-प्रसार में भी सक्रिय भूमिका निभाई। दूसरी शताब्दी ईस्वी के पश्चात हुए युद्धों के कारण यह क्षेत्र दो भागों में विभाजित हो गया, और यहीं ब्राह्मी लिपि की स्थापना हुई, जो भारतीय ग्रंथों के चीनी अनुवाद में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई। इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म की दो प्रमुख धाराएँ—महायान और हीनयान—ने साथ-साथ सह-अस्तित्व में विकास किया।

तारिम बेसिन के नगर जैसे तुरफ़ान, कोअचांग, और कूचा बौद्ध साहित्य, चित्रकला और मूर्तिकला के विशिष्ट केंद्र बन गए। केवल कोअचांग में ही 10वीं शताब्दी तक लगभग 50 बौद्ध मठों का अस्तित्व था। इन क्षेत्रों की गुफाओं और भित्तिचित्रों में विशेषतः अजंता शैली की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। 20वीं सदी की शुरुआत में ओरिएंटलिस्ट अल्बर्ट ग्रुन्ह्वेडेल और अरेल स्टीन ने तुरफ़ान और डुनहुआंग से सैकड़ों बौद्ध पांडुलिपियाँ, मूर्तियाँ और भित्तिचित्र खोजे। इनमें पाली, संस्कृत, खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपियों में लिखित सामग्री प्राप्त हुई, जो भारत और चीन के गहरे सांस्कृतिक संपर्क का प्रमाण प्रस्तुत करती है।

तुरफान की बेज़ेकलिक गुफाओं में वज्रयान बौद्ध धर्म के प्रारंभिक चिह्न मिलते हैं, जबकि कूचा की संगीत परंपरा और बौद्ध गाथागीतों ने चीन की पारंपरिक बौद्ध स्तुतियों के स्वरूप को प्रभावित किया। यहाँ मिले संस्कृत ग्रंथों की भाषा से यह संकेत मिलता है कि इस क्षेत्र में हाइब्रिड संस्कृत—एक मिश्रित भाषिक रूप—का विकास हुआ था।

चित्र में बोधिसत्व मैत्रेय का चित्रण है।

चीनी यात्रियों की भारत यात्राएं और ग्रंथों का अनुवाद

भारत और चीन के मध्य सांस्कृतिक संबंध केवल एकतरफा नहीं थे। भारत से बौद्ध धर्म का प्रवाह जहाँ चीन की ओर हुआ, वहीं चीन के कई महान बौद्ध भिक्षु भी ज्ञान की खोज में भारत आए। इनमें फाह्यान, ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे विद्वान के नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने भारत की लंबी यात्रा की, यहाँ बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन किया और अनमोल ग्रंथ, मूर्तियाँ और अनुभव साथ लेकर चीन लौटे।

इनमें सबसे प्रसिद्ध यात्रा ह्वेनसांग की रही। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और बौद्ध ग्रंथों का विशाल संग्रह एकत्र कर चीन लौटे। उनका यात्रा वृत्तांत ‘द ग्रेट तांग रिकॉर्ड ऑफ द वेस्टर्न रीजन’ (Da Tang Xiyu Ji) चीन में भारत की सांस्कृतिक छवि का आधार बना। उनके योगदान के सम्मान में भारत सरकार ने नालंदा में ह्वेनसांग स्मारक की स्थापना की, जिसका उद्घाटन फरवरी 2007 में हुआ।

इन यात्राओं के माध्यम से सैकड़ों बौद्ध ग्रंथ चीनी भाषा में अनूदित हुए, जिससे बौद्ध दर्शन को चीन की पारंपरिक धार्मिक सोच में समाहित करने में सहायता मिली।

फाह्यान ने अपने प्रसिद्ध यात्रा वृत्तांत “फो-गुओ जी” "ए रिकॉर्ड ऑफ बुद्धिस्ट किंगडम्स" (Record of the Buddhist Kingdoms) में गुप्तकालीन भारत की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था का सजीव चित्र प्रस्तुत किया। वहीं इत्सिंग ने पालि भाषा के व्याकरण और विनय ग्रंथों का अनुवाद कर चीन में पाली शिक्षण की विधिवत शुरुआत की। उनके कार्यों ने चीन में बौद्ध अनुशासन (विनय) को एक सशक्त बौद्धिक आधार दिया।

ह्वेनसांग के वृत्तांत से भारत के 100 से अधिक नगरों, नदियों और मठों की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। इत्सिंग के ग्रंथ ए रिकॉर्ड ऑफ बुद्धिस्ट रिलिजन (A Record of the Buddhist Religion) में भारतीय भिक्षुओं के दैनिक आचार, आहार, और धार्मिक परंपराओं का अत्यंत सूक्ष्म वर्णन मिलता है। उन्होंने बोधगया और श्रीविजय साम्राज्य की सांस्कृतिक तुलना भी की, जो भारत-चीन के बौद्ध संवाद का एक अनूठा पक्ष प्रस्तुत करती है।

बौद्ध कला का विकास और भारतीय-चीनी शैली का समन्वय

छठी शताब्दी में जैसे-जैसे बौद्ध धर्म चीन में गहराई से पैठ जमाने लगा, वहाँ की कला में भी बदलाव आने लगे। भारतीय और फारसी प्रभावों को समाहित करते हुए चीनी कलाकारों ने एक नई शैली विकसित की। मूर्तियों की मुद्राएं, भाव, वस्त्र, और स्थापत्य कला में यह मेलजोल स्पष्ट दिखाई देता है।

7वीं शताब्दी तक तारिम बेसिन में स्थापित विभिन्न बौद्ध केंद्रों ने इस कला को संरक्षित और संवर्धित किया। यह शैली केवल धर्म तक सीमित नहीं रही, बल्कि चीनी चित्रकला, कविता और साहित्य में भी भारतीय प्रभाव देखा गया।

दुनहुआंग की गुफाएं इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जहां की चित्रकला में बुद्ध के जीवन प्रसंगों के साथ-साथ भारतीय प्रतीकों और रंग योजना का प्रयोग किया गया है। यहीं से बौद्ध धर्म तिब्बत और कोरिया होते हुए जापान तक पहुँचा।
दुनहुआंग की मोगाओ गुफाओं में भारतीय गंधार शैली का सीधा प्रभाव देखा जा सकता है। यहां की मूर्तियों में बुद्ध की "अभय मुद्रा" और "धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा" साफ तौर पर अजंता और सारनाथ की मूर्तिकला से प्रेरित हैं। गुफाओं में प्रयुक्त “टेंपेरा” चित्रकला की तकनीक भारत से आई।

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