भारत पर विश्व युद्धों की छाया: एक ऐतिहासिक दृष्टि से रामपुर की भूमिका

उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
25-08-2025 09:25 AM
भारत पर विश्व युद्धों की छाया: एक ऐतिहासिक दृष्टि से रामपुर की भूमिका

जब हम विश्व युद्धों की बात करते हैं, तो ध्यान अक्सर यूरोप या अमेरिका जैसे बड़े ताक़तवर देशों की ओर चला जाता है। लेकिन भारत, और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश की रामपुर रियासत, इस वैश्विक संकट का एक अनदेखा, परंतु महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। रामपुर के नवाब रज़ा अली खान बहादुर ने न केवल अपने सैनिकों को द्वितीय विश्व युद्ध में भेजा, बल्कि सामाजिक सुधारों और प्रशासनिक विकास के ज़रिए एक प्रगतिशील नेतृत्व की मिसाल भी पेश की। इस लेख में हम पाँच अहम बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि कैसे लाखों भारतीय सैनिकों ने दो-दो विश्व युद्धों में हिस्सा लिया और फिर भी उनके योगदान को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला। इसके बाद, हम देखेंगे कि इन युद्धों ने भारत की राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज को कैसे बदलकर रख दिया। फिर, हम पढ़ेंगे कि रामपुर के नवाब ने युद्धकाल में क्या भूमिका निभाई और किस तरह उन्होंने अपनी रियासत को आधुनिकता की ओर अग्रसर किया। आगे, हम चर्चा करेंगे कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उत्पन्न असंतोष और हिंसा ने विभाजन की पृष्ठभूमि को कैसे प्रभावित किया। अंत में, हम समझेंगे कि कैसे इन युद्धों ने भारत को वैश्विक राजनीति और आर्थिक योजना के एक नए चरण में प्रवेश कराया।

विश्व युद्धों में भारतीय सैनिकों की उपेक्षित लेकिन ऐतिहासिक भूमिका
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की भागीदारी न केवल संख्या में अभूतपूर्व थी, बल्कि साहस, त्याग और अनुशासन की दृष्टि से भी दुनिया के किसी भी सैन्य बल से कम नहीं थी। लगभग 38 लाख भारतीय सैनिकों ने दोनों युद्धों में भाग लिया, जिनमें से कई यूरोपीय युद्धभूमियों पर लड़े और हज़ारों ने अपनी जान भी गंवाई। वे फ्रांस (France) की ठंडी खाइयों से लेकर बर्मा के उष्ण जंगलों तक, अफ्रीका के रेगिस्तानों से लेकर इराक और फिलिस्तीन (Palestine) के मैदानों तक तैनात थे। युद्ध के दौरान भारत में राष्ट्रवादी भावना भी उफान पर थी, लेकिन फिर भी लाखों नौजवानों ने इसे अपने कर्तव्य का हिस्सा मानकर अंग्रेज़ी सेना में सेवा दी। कई युवाओं को तो ज़बरदस्ती भर्ती किया गया, और भर्ती के लिए गांव-गांव अभियान चलाए गए। सेना के भीतर नस्लीय भेदभाव भी गहराई तक था - वेतन, राशन, पदोन्नति, छुट्टियाँ और यहां तक कि युद्ध के बाद मिलने वाले सम्मान में भी भारतीयों को ब्रिटिश (British) सैनिकों से नीचे रखा गया। इसके बावजूद भारतीय सैनिकों ने मोर्चे पर कभी अपनी निष्ठा में कमी नहीं आने दी। उनकी वीरता को पहचान तो कम मिली, लेकिन इतिहास के पन्नों में उनके पराक्रम की छाया आज भी मौजूद है। कोहिमा युद्ध-स्मारक पर खुदी वह मार्मिक पंक्ति, “जब तुम घर जाओगे, उन्हें हमारे बारे में बताना और कहना, तुम्हारे कल के लिए, हमने अपना आज दिया” उनके अदृश्य बलिदान की एक गूंज बनकर आज भी ज़िंदा है।

युद्धों के दौरान भारत पर पड़े राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रभाव
इन दोनों विश्व युद्धों का भारत पर प्रभाव बहुआयामी था, जिसमें राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था तीनों स्तरों पर दूरगामी बदलाव हुए। युद्धों के दौरान जब लाखों सैनिक विदेशों में तैनात थे और देश की अर्थव्यवस्था ब्रिटिश युद्ध-प्रयासों में झोंक दी गई थी, तब देश के भीतर असंतोष की चिंगारियाँ उठने लगी थीं। जबरन भर्ती और विदेशी मोर्चों पर सैनिकों की मौतों ने खासकर पंजाब, बंगाल और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनाक्रोश को जन्म दिया। यही वह पृष्ठभूमि थी जिसमें नागरिक अवज्ञा, खिलाफत आंदोलन और बाद में भारत छोड़ो आंदोलन जैसे राष्ट्रवादी संघर्ष फले-फूले। सामाजिक रूप से, इन युद्धों ने अप्रत्याशित रूप से महिलाओं और पिछड़े समुदायों को नए अवसर दिए। लाखों पुरुषों के मोर्चे पर होने के कारण महिलाओं को अस्पतालों, प्रशासनिक सेवाओं और सामाजिक कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ी। इससे पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं में दरार आई और महिलाओं को एक नई पहचान मिली। वहीं युद्धों के कारण विदेश जाने वाले सैनिकों को संवाद और रणनीति के लिए पढ़ना-लिखना सीखना पड़ा, जिससे उनके समुदायों में साक्षरता दर में सुधार आया। आर्थिक दृष्टि से देखें तो ब्रिटेन (Britain) ने युद्धकाल में भारत की उत्पादन क्षमता का भरपूर उपयोग किया, जिससे स्थानीय उद्योगों में वृद्धि तो हुई, परंतु खाद्य मुद्रास्फीति और अनाज की कमी जैसी समस्याएँ भी पैदा हुईं। भारतीय सामानों की ब्रिटेन में बढ़ती मांग से व्यापारिक वर्ग को लाभ ज़रूर मिला, लेकिन गरीबों के लिए जीवन और अधिक कठिन हो गया। यह वह समय था जब भारत एक उपनिवेश से एक आत्मसजग राष्ट्र बनने की दिशा में बढ़ रहा था।

रामपुर के नवाब रज़ा अली खान की युद्धकालीन भूमिका और दूरदृष्टि
रामपुर रियासत के नवाब रज़ा अली खान बहादुर, जिनका शासनकाल 1930 से लेकर 1966 तक रहा, एक ऐसे शासक थे जिन्होंने सिर्फ़ अपने क्षेत्र की राजनीति तक सीमित रहना स्वीकार नहीं किया, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं में सक्रिय भागीदारी निभाई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने अपने सैनिकों को ब्रिटिश सेना के समर्थन में भेजा, और उनकी बहादुरी ने रामपुर का नाम न केवल रेजीमेंटल (regimental) इतिहास में दर्ज किया बल्कि वैश्विक युद्ध-इतिहास में भी एक स्थान दिलाया। नवाब रज़ा अली खान केवल सैन्य सहयोग तक सीमित नहीं रहे, उन्होंने अपनी रियासत में आधुनिक बुनियादी ढांचे की नींव भी रखी। उन्होंने सिंचाई परियोजनाओं का विस्तार किया, गांवों में बिजली पहुँचाई, स्कूलों और अस्पतालों की स्थापना की और नगर नियोजन की दिशा में ठोस कदम उठाए। उन्होंने धार्मिक समरसता को भी बढ़ावा दिया, उनकी सरकार में हिंदुओं को बराबर का प्रतिनिधित्व मिला, जिससे सामाजिक सद्भाव का वातावरण बना रहा। भारत की स्वतंत्रता के बाद, नवाब ने बिना किसी टकराव के रामपुर रियासत को भारत डोमिनियन (Dominion) में विलीन करने की सहमति दी, जो 1949 में औपचारिक रूप से हुआ। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य जनहित परियोजनाओं को समर्पित कर दिया। आज जब हम इतिहास को पीछे मुड़कर देखते हैं, तो नवाब रज़ा अली खान की छवि एक ऐसे दूरदर्शी नेता की बनती है, जिन्होंने युद्ध और विकास दोनों के कठिन समय में एक संतुलित नेतृत्व प्रदान किया।

द्वितीय विश्व युद्ध और विभाजन के सामाजिक प्रभाव
द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होते-होते भारत में राजनीतिक अस्थिरता, धार्मिक असुरक्षा और सामाजिक तनाव का वातावरण तैयार हो चुका था। लाखों सैनिक, जो मोर्चे से लौटे थे, अब बेरोज़गार थे, उनके लिए ना रोज़गार था, ना पुनर्वास की योजना। खाद्यान्न संकट, महँगाई और प्रशासनिक असफलता ने जनता को हताश कर दिया। इन हालातों में धार्मिक और सांप्रदायिक मतभेदों ने विकराल रूप ले लिया। युद्ध के दौरान हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच प्रशासनिक पक्षपात और संसाधनों के असमान वितरण ने तनाव को और गहरा कर दिया। ब्रिटिश सरकार की “फूट डालो और राज करो” नीति ने इस टूटते हुए सामाजिक ताने-बाने को और अधिक छिन्न-भिन्न कर दिया। अंततः यही परिस्थितियाँ 1947 के विभाजन की पृष्ठभूमि बनीं, जिसमें लाखों लोग विस्थापित हुए, हज़ारों मारे गए और सम्पूर्ण उपमहाद्वीप ने एक असहनीय पीड़ा का अनुभव किया। द्वितीय विश्व युद्ध ने जहाँ एक ओर भारत को राजनीतिक रूप से जागरूक किया, वहीं दूसरी ओर उसकी सामाजिक एकता को गहरी चोट पहुँचाई। यही वह समय था जब भारत को स्वतंत्रता तो मिली, लेकिन एक भयंकर घाव के साथ।

विश्व युद्धों ने भारत को वैश्विक मंच पर लाने की भूमिका निभाई
विश्व युद्धों के अनुभव ने भारत को वैश्विक राजनीति और कूटनीति के जटिल तंत्र से परिचित कराया। लाखों भारतीय सैनिकों, श्रमिकों और तकनीकी विशेषज्ञों की भागीदारी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की क्षमताओं को सामने रखा। यही वह दौर था जब भारत को न केवल एक उपनिवेश के रूप में, बल्कि एक रणनीतिक शक्ति के रूप में देखा जाने लगा। युद्धों के बाद जब स्वतंत्र भारत की नींव रखी गई, तो योजना आयोग, पंचवर्षीय योजनाओं और संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर भारत की सक्रिय भूमिका में इन अनुभवों की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। रामपुर जैसी रियासतें, जिन्होंने युद्धकाल में अपना योगदान दिया और शांति के समय सामाजिक उत्थान की दिशा में काम किया, वे उस भारत की प्रतीक बन गईं जो विविधता में एकता, त्याग में सम्मान और संघर्ष में भविष्य की तलाश करना जानता था। भारत के सैनिक, नागरिक, और दूरदर्शी नेता, सबने मिलकर यह सुनिश्चित किया कि आने वाली पीढ़ियाँ एक स्वतंत्र और वैश्विक दृष्टिकोण से समृद्ध भारत में सांस लें।

संदर्भ-

https://shorturl.at/wm2b0 
https://shorturl.at/Bsgfs 
https://shorturl.at/UwNkU 

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