रामपुर की पहचान और विरासत: देवनागरी लिपि की ब्राह्मी से डिजिटल युग तक की कहानी

ध्वनि II - भाषाएँ
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रामपुर की पहचान और विरासत: देवनागरी लिपि की ब्राह्मी से डिजिटल युग तक की कहानी

हिंदी दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ!
रामपुरवासियो, हिंदी दिवस के इस अवसर पर देवनागरी लिपि के गौरवशाली इतिहास और उसकी लंबी, समृद्ध यात्रा को जानना वाकई दिलचस्प है। 2011 की जनगणना के अनुसार, रामपुर की एक बड़ी आबादी हिंदी बोलती है, और हिंदी देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है। इस लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी लिपि में मिलती हैं, जिसका सफ़र तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू होकर आज की डिजिटल स्क्रीन (digital screen) और स्मार्टफोन (smartphone) तक पहुँच चुका है। देवनागरी न केवल हिंदी, बल्कि मराठी, नेपाली, कोंकणी और संस्कृत जैसी 120 से अधिक भाषाओं की वाहक है, और इसे दुनिया की चौथी सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली लिपि माना जाता है। यह केवल अक्षरों का समूह नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर, पहचान और पीढ़ियों से जुड़ी भावनाओं का जीता-जागता प्रतीक है। 
इस लेख में हम देवनागरी के उद्भव से लेकर उसके प्रारंभिक मुद्रित रूप, ऐतिहासिक विकास, और ब्रिटिश (British) काल में हुए लिपि सुधार आंदोलनों तक की यात्रा को विस्तार से समझेंगे। हम देखेंगे कि कैसे यह लिपि ब्राह्मी से विकसित होकर नागरी और फिर आधुनिक देवनागरी बनी, किस तरह पहली बार इसे छापाखाने में ढाला गया, और किन चुनौतियों से गुज़रकर यह आज डिजिटल युग की सबसे सक्षम लिपियों में से एक बनी।

देवनागरी लिपि का उद्भव
देवनागरी लिपि की कहानी भारत के प्राचीन सभ्यताओं और सांस्कृतिक विरासत से गहराई से जुड़ी है। इसकी जड़ें ब्राह्मी लिपि में मिलती हैं, जिसका अस्तित्व तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक सिद्ध होता है। ब्राह्मी लिपि से समय के साथ अनेक लिपियाँ विकसित हुईं, और उन्हीं में से एक थी नागरी लिपि। नागरी, जो आगे चलकर नंदिनागरी जैसी क्षेत्रीय शैलियों को जन्म देती है, अपने समय में धार्मिक और प्रशासनिक अभिलेखों में महत्वपूर्ण स्थान रखती थी। 1वीं से 4वीं शताब्दी के बीच गुजरात में मिले नागरी लिपि के शुरुआती अभिलेख बताते हैं कि यह लिपि धीरे-धीरे एक स्थिर रूप लेने लगी थी। लगभग 1000 ईस्वी के आसपास, इसका स्वरूप और परिपक्व हुआ और वही आज की आधुनिक देवनागरी का आधार बना। दिलचस्प बात यह है कि इसकी झलक श्रीलंका, म्यांमार और इंडोनेशिया (Indonesia) जैसे देशों के प्राचीन अभिलेखों में भी दिखाई देती है, जो दर्शाता है कि इसका प्रभाव भारत की सीमाओं से कहीं आगे तक फैला था। शुरुआती दौर में देवनागरी का प्रयोग मुख्यतः विद्वानों, संतों और धार्मिक संस्थानों द्वारा ग्रंथों के लेखन और ज्ञान-विनिमय के लिए किया जाता था, जिससे यह केवल एक लिपि नहीं, बल्कि बौद्धिक और आध्यात्मिक जगत की प्रमुख वाहक बन गई।

शुरुआती मुद्रित उदाहरण
देवनागरी के मुद्रण का इतिहास भी उतना ही रोमांचक है जितना इसका प्राचीन विकास। इसका पहला ज्ञात मुद्रित उदाहरण 1667 में जर्मन मिशनरी (German missionary) अथानासियस किर्चर (Athanasius Kircher) की पुस्तक चाइना इलस्ट्रेटा (China Illustrata) में मिलता है, जिसमें देवनागरी के अक्षरों, मात्राओं और छोटे वाक्यांशों के नमूने छपे थे। यह एक समय था जब यूरोप में भारत की भाषाओं और लिपियों के प्रति गहरी जिज्ञासा थी। इसके कुछ वर्षों बाद, 1678 में प्रकाशित हॉर्टस इंडिकस मालाबारिकस (Hortus Indicus Malabaricus) में कोंकणी भाषा का देवनागरी में लिखा अंश दिखाई देता है, जो इस लिपि की बहुभाषी क्षमता का प्रमाण है। तकनीकी दृष्टि से, पहला धातु प्रकार (metal type) 1740 में रोम में ढाला गया, और 1771 में अल्फाबेटम ब्राह्मणिकम (Alphabetum Brahmanicum) में इसे मुद्रित किया गया। यह सब उस युग में हो रहा था जब हाथ से लिखी पांडुलिपियों से छपे अक्षरों में बदलना एक सांस्कृतिक क्रांति जैसा अनुभव था। यूरोप और भारत दोनों में यह नया प्रयोग भाषा और तकनीक के मेल का शुरुआती कदम था, जिसने आगे चलकर आधुनिक मुद्रण जगत की नींव रखी।

ऐतिहासिक विकास
7वीं सदी के बाद से देवनागरी ने एक स्थिर और परिष्कृत रूप लेना शुरू किया। संस्कृत के साथ इसकी गहरी संगति ने इसे एक अद्वितीय प्रतिष्ठा दिलाई, क्योंकि यह न केवल धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों का माध्यम बनी, बल्कि विद्वानों के बीच भी ज्ञान-विनिमय की प्रमुख लिपि रही। समय के साथ, देवनागरी ने कई नई लिपियों को जन्म दिया, जैसे गुजराती, जो क्षेत्रीय भाषाओं की ध्वन्यात्मक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए विकसित हुई। भारतीय लिपियों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इनके अक्षर-रूप पीढ़ी दर पीढ़ी धीरे-धीरे बदलते रहे, जबकि रोमन (Roman) या अरबी जैसी लिपियाँ अपेक्षाकृत स्थिर रहीं। यूरोप में लैटिन लिपि (Latin script) का विकास मुद्रण तकनीक के आने के बाद स्थिर हुआ, और भारत में भी कुछ ऐसा ही हुआ, छापाखाने और मुद्रण कला के प्रसार ने देवनागरी के स्वरूप को मानकीकृत करने और पीढ़ियों तक एकरूप बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई। इस मानकीकरण ने इसे शिक्षा, प्रशासन, साहित्य और कला सभी क्षेत्रों में स्थायी स्थान दिलाया।

ब्रिटिश भारत में लिपि सुधार और तकनीकी बदलाव
जब भारत में मैकेनिकल प्रेस (mechanical press), मोनोटाइप (monotype), लिनोटाइप (linotype) और टाइपराइटर (typewriter) जैसी तकनीकें आईं, तो देवनागरी की जटिल संरचना तकनीशियनों और टाइप डिजाइनरों के लिए चुनौती बन गई। संयुक्ताक्षरों और विविध मात्राओं के कारण, एक पूर्ण टाइप सेट (type set) तैयार करने के लिए हज़ारों मैट्रिक्स (matrix) की आवश्यकता होती थी। इस जटिलता ने मुद्रण और टाइपिंग को धीमा और महंगा बना दिया।
इस कठिनाई से निपटने के लिए लिपि सुधार आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें तीन प्रमुख विचार सामने आए—

  1. देवनागरी का उपयोग करने वाली भाषाओं में रोमन लिपि अपनाना।
  2. देवनागरी के रूप में संशोधन करके इसे तकनीक-अनुकूल बनाना।
  3. मशीनों को देवनागरी के अनुकूल ढालना।

इन प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि एक मानकीकृत, संतुलित और तकनीकी रूप से व्यावहारिक देवनागरी विकसित हुई, जो टाइपराइटर से लेकर कंप्यूटर (computer) और स्मार्टफोन तक सहजता से प्रयोग की जा सकती है।

संदर्भ-

https://shorturl.at/ReGH8