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हाल के दिनों में जाति के नाम पर हो रही हिंसा से जुड़ी खबरें आम हो चली हैं। हालांकि कुछ गिने-चुने लोग ही यह बात स्वीकार कर पाते हैं कि विभिन्न जातियों का निर्माण किसी भी व्यक्ति या वर्ग को छोटा या बड़ा दिखाने के बजाय, समाज को बेहतर ढंग से संचालित करने के लिए किया गया था। वास्तव में तो जातियों का वर्गीकरण एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसका मूल उद्देश्य सभी के जीवन को संतुलित बनाए रखना और एक दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाना था। यदि आप जातियों के वर्गीकरण के मूल उद्देश्य को बेहतर ढंग से समझना चाहते हैं, तो इसके लिए आप संगीत का सहारा ले सकते हैं। जी हाँ, आपको जानकर हैरानी होगी कि, संगीत को भी जातियों में वर्गीकृत किया गया है, जहां संगीत की हर जाति एक दूसरे के स्तर को गिराने के बजाय आपस में एकजुट होकर हमें मंत्रमुग्ध कर देने वाले संगीत का निर्माण कर देती हैं।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में “जाति”, रागों की एक वर्गीकरण प्रणाली को संदर्भित करती है जो उनके आरोह और अवरोह पैमाने में प्रयुक्त स्वरों की संख्या के आधार पर व्यवस्थित होती है। "जाति" शब्द का शाब्दिक अर्थ "वर्ग" या "संग्रह" होता है। आसान शब्दों में समझें तो "जाति" शब्द का उपयोग भारतीय शास्त्रीय संगीत में रागों (मधुर संरचनाओं) को उनके आरोही (बढ़ते हुए क्रम) और अवरोही (घटते हुए क्रम) में उपयोग किए जाने वाले स्वरों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत करने के लिए किया जाता है। यह रागों को अलग-अलग समूहों में वर्गीकृत करती है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में मुख्य रूप से तीन जातियां होती हैं:
१) औडव (औढव)- जिस राग में ५ स्वरों का प्रयोग हो।
२) षाडव- जिस राग में ६ स्वरों का प्रयोग हो।
३) संपूर्ण-जिस राग में सभी सात स्वरों का प्रयोग होता हो।
जाति विभिन्न प्रकार के फूलों की सजावट की तरह होती है। "संपूर्ण जाति" में सभी सात फूल होते हैं, "षाडवजाति" में छह और "औडव जाति" में पांच फूल होते हैं। प्रत्येक व्यवस्था अलग-अलग स्वरों की संख्या के साथ संगीत रागों की तरह ही एक विशिष्ट मनोदशा और सौंदर्य प्रदान करती है।
इनके अलावा, आरोही और अवरोही पैमाने पर विभिन्न संख्या में स्वरों के साथ मिश्रित जातियाँ भी होती हैं।
उदाहरण के लिए:
* संपूर्ण-संपूर्ण जाति:राग यमन, अहीर-भैरव (सा रे गा मा पा धा नी सा) और सभी 7 स्वरों के साथ एक संपूर्ण राग अवरोह (सा नी धा पा मा गा रे सा)
* पूर्ण-सम्पूर्ण-षाडव जाति:राग पूरिया-धनश्री, देव-गांधार
* पूर्ण-शैधव-षाडव जाति:राग मियां की मल्हार
* षाडव-पूर्ण-षाडव जाति:राग कौंसी-कनाडा, अदाना
* षाडव-षाडव जाति: राग नायकी-कनाडा, गुर्जरी-तोड़ी, बहार, ललित
* औढव-औढव जाति:राग सिंधुरा, बिहाग, हमीर
* औढव-पूर्ण जाति:राग कामोद, बसंत, खंबावती
* औढव-औढव जाति:राग शुद्ध-सारंग, देसी
* औढव-औढव (वक्र) जाति:राग गुंकाली, भूपाली, देशकर, मेघ-मल्हार
इन सभी को आसानी से समझने के लिए विभिन्न जाति संयोजन नीचे दी गई तालिका में दिए गए हैं:
यदि आपने कभी गौर किया हो, तो पाया होगा कि कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत कई मायनों में भिन्न प्रतीत होता है। हालांकि,ये दोनों भारतीय शास्त्रीय संगीत के ही रूप हैं, लेकिन, इनमें ज़मीन-आसमान का अंतर होता है।
लेख में आगे हम कर्नाटक संगीत में व्याप्त शब्दों को संक्षेप में जानेंगे।
1. नाद:यह शब्द संगीत या संगीत की ध्वनि को संदर्भित करता है, जिसमें एक संगीत वाद्ययंत्र का स्वर भी शामिल है।
2. अनाहत नाद: अनाहत नाद का तात्पर्य मनुष्य के प्रयासों से उत्पन्न ध्वनियों से है (शाब्दिक रूप से वह जो सुनी जाती है)।
3. अहता नाद:यह शब्द मानव प्रयास से उत्पन्न ध्वनियों को संदर्भित करता है। स्रोत के आधार पर इसके छह प्रकार होते हैं।
4. श्रुति:श्रुति संगीतमय स्वर है।
5. स्थाई:कर्नाटक संगीत में स्थाई सप्तक जैसे मध्यम स्थिर (मध्य सप्तक) को संदर्भित करता है।
6. स्वरम्:स्वरम् या स्वर एक एकल स्वर होता है। प्रत्येक स्वर श्रुति के संबंध में स्वर की स्थिति को परिभाषित करता है।
7. राग:पश्चिमी विधाओं के समान, राग, संगीत निर्माण के लिए नियम निर्धारित करता है।
8. आरोहणम्:आरोही स्वरों को गाने के नियमों के साथ राग का आरोही (बढ़ता हुआ) स्तर।
9. अवरोहणम्म्:राग के अवरोही पैमाने के साथ अवरोही (घटते हुए) स्वरों को गाने के नियम।
10. मेलाकार्ता:मेलकर्ता राग वह है, जिसमें सभी सात स्वर (अर्थात् सा, रे, गा, मा, पा, ध और नी (सम्पूर्ण राग) होते हैं। इसे जनक राग (मूल राग) के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि अन्य राग भी इसी से बने हैं।
11. तालम्:तालम् किसी विशेष गीत के लिए लय चक्र या ताल चक्र को संदर्भित करता है।
12. अलापना:एक गीत की प्रस्तावना, गीत के बिना राग की खोज।
13. निरावल:साहित्य विन्यासम / निरावल या नेरावल एक गीत की एक या दो पंक्तियों को बार-बार गाने की प्रक्रिया है।
14. कल्पनास्वरम:कल्पनास्वरम का शाब्दिक अर्थ "कल्पित स्वर" होता है। यह किसी गीत के पूरा होने के बाद, गीत के राग के स्वरों का गायन है।
15. तानम्:तानम् किसी राग का लयबद्ध/लय आधारित सुधार को कहा जाता है।
16. रागमालिका (रागों की माला): यह विभिन्न रागों पर आधारित छंदों वाली रचना होती है।
17. रागमतानमपल्लवी:रागमतनमपल्लवी कर्नाटक संगीत की एक प्रस्तुति होती है। इसमें रागम अलापना (रागम), तानम और एक पल्लवी पंक्ति शामिल है।
18. विरुत्तम:विरुत्तम एक भक्तिपूर्ण छंद या वाक्यांश होता है जिसे आमतौर पर किसी गीत से पहले राग या रागमालिका के तत्काल चयन में (तालम के बिना) गाया जाता है।
29. मनोधर्म:मनोधर्म तात्कालिक या सहज सुधार की अवधारणा है, जो कर्नाटक संगीत के महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक मानी जाती है।
20. कल्पितासंगीतम्:कल्पित संगीतम् वह संगीत है जिसे पहले से ही रचा, सीखा और अभ्यास किया जा चुका है।
इन सभी के अलावा भी कर्नाटक संगीत में लय (टेम्पो) के भी विलाम्बिथा (धीमा), मध्यमा (मध्यम)और धूरिथा (तेज़) जैसे अलग-अलग वर्गीकरण होते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/3tv85aa2
https://tinyurl.com/yeyszrsh
https://tinyurl.com/2mezbn88
https://tinyurl.com/mrxb9sr8
https://tinyurl.com/p8rhv6sh
चित्र संदर्भ
1.राजारानी संगीत समारोह में भारतीय शास्त्रीय गायिका अश्विनी भिड़े-देशपांडे को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. संगीत साधना को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3.प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी जी को दर्शाता चित्रण (wikimedia)