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“जर्दा” या ज़रदा शब्द को आमतौर पर तंबाकू खाने वाले लोग अधिक सुनते होंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि तंबाकू के जर्दे के अलावा, मीठे चावल से निर्मित "जर्दा" नाम की एक स्वादिष्ट मिठाई भी होती है। अपने नाम की ही तरह इसका स्वाद भी अनूठा होता है। ज़र्दा भारतीय उपमहाद्वीप की एक पारंपरिक मिठाई है, जिसे स्थानीय लोगों के बीच “मीठे चावल” के नाम से भी जाना जाता है। इसे चावल को उबालकर और उसमें दूध, चीनी, इलायची, किशमिश, केसर, पिस्ता और बादाम जैसे खाद्य तत्वों मिलाकर बनाया जाता है। "ज़रदा" शब्द की उत्पत्ति फ़ारसी शब्द "ज़र्द" से हुई है, जिसका अर्थ "पीला रंग" होता है। मीठे चावल का रंग पारंपरिक रूप से पीला होता है, इसलिए इसे ज़र्दा कहा जाता है।
जर्दा (मीठे चावल) बनाने की परंपरा ग्रामीण पंजाब और उत्तर भारत के अन्य प्रांतों में काफी आम हुआ करती थी, जहाँ चावल को मीठा करने के लिए गुड़ का उपयोग किया जाता था। लेकिन समय के साथ, खासतौर पर मुगल काल के दौरान, यह व्यंजन उत्तर भारत में भी लोकप्रिय हो गया। अबुल फज़ल की आइन-ए-अकबरी में “ज़र्द बिरिंज “की विधि बताई गई है, जिसमें चावल, चीनी, मेवे, केसर, दालचीनी और यहां तक कि अदरक का भी प्रयोग किया गया है। आज, ज़र्दा को पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पसंद किया जाता है।
इसे आमतौर पर शादियों और त्योहारों जैसे विशेष अवसरों पर परोसा जाता है। यह व्यंजन कई रूपों में देखने को मिल सकता है, और अलग-अलग क्षेत्रों के आधार पर इसकी पाक विधि यानी रेसिपी (Recipe) भी अनूठी हो सकती है। कुछ लोकप्रिय विविधताओं में ज़र्दा बनाने के लिए इसमें खोया, मुरब्बा, और मेवे का प्रयोग किया जाता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, सड़क किनारे पुलाव/बिरयानी बेचने वाले लोग बिरयानी की प्लेट में थोड़ी मात्रा में जर्दा भी मिलाते हैं।
स्वाद और इसमें प्रयोग होने वाले खाद्य तत्वों के आधार पर लोग अक्सर ज़र्दा को “शीर खुरमा” नामक एक अन्य मीठा व्यंजन समझ बैठते हैं। हालांकि दोनों मीठे व्यंजनों में कई स्पष्ट अंतर हैं। शीर खुरमा एक पारंपरिक मिठाई होती है, जिसे सेंवई, दूध, खजूर और चीनी का प्रयोग करके बनाया जाता है। "शीर खुरमा" के नाम का फ़ारसी में शाब्दिक अनुवाद "खजूर के साथ दूध" होता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के कुछ हिस्सों में रमज़ान इफ्तार के साथ-साथ ईद-अल-फ़ितर (रमज़ान के अंत) के दौरान मुस्लिम घरों में तैयार किया जाने वाला एक लोकप्रिय व्यंजन है।
ऐसा कहा जाता है कि इस व्यंजन की उत्पत्ति अफगानिस्तान में हुई थी, हालाँकि इसका एक अन्य लोकप्रिय संस्करण आधुनिक हैदराबाद और तेलंगाना में उत्पन्न हुआ था। इसे आमतौर पर सफेद चीनी और खजूर के साथ मीठा किया जाता है जिसे पिस्ता, बादाम, किशमिश और केसर से सजाकर परोसा जाता है। चलिए इस स्पष्टीकरण के बाद अब हम वापस जर्दा पर लौटते हैं।
जर्दा का एक लोकप्रिय रूप “मोतिया ज़र्दा” भी होता था, जो एक प्रकार से चीनी, मसालों, केसर और सूखे मेवों से तैयार चावल की एक मीठी मिठाई होती थी। इसकी उत्पत्ति मुगलों के दौर में हुई थी। जर्दा या मीठे चावल हमारे रामपुर में भी खूब प्रसिद्ध हो सकते हैं, क्यों कि रामपुर के लोग शुरुआत से ही खाने पीने के शौक़ीन रहे हैं।
रामपुरी और अवधी दोनों ही व्यंजन, मुगल व्यंजनों का विस्तार माने जाते हैं। रामपुर में विभिन्न और स्वादिष्ट व्यंजनों को बनाया जाता है। हालांकि रामपुरी और अवधि पाक शैली में बड़ा अंतर यही होता है कि रामपुर के व्यंजनों में गुलाब या केवड़ा पानी जैसे किसी भी इत्र का उपयोग नहीं किया जाता है। इसके अलावा रामपुरी व्यंजनों में मसालों का उपयोग भी कम मात्रा में किया जाता है।
बहुत कम लोग यह बात जानते हैं कि रामपुर के खानसामों ने ही सबसे पहले मटन को नरम करने के लिए पपीता और लौकी का उपयोग किया था। वहीं भोजन पर वरक़ (Leaf) का उपयोग भी रामपुर के खानसामों का आविष्कार था और इसका उपयोग रामपुर के प्रसिद्ध हलवे को सजाने के लिए किया जाता है। खानसामों द्वारा आज भी कई व्यंजन पकाने के लिए मिट्टी के बर्तन का उपयोग किया जाता है। हालांकि, अन्य व्यंजनों के विपरीत, ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से रामपुर का भोजन अपने जन्मस्थान तक ही सीमित रह गया। 'देग टू दस्तरख्वान: किस्सास एंड रेसिपीज फ्रॉम रामपुर' (Degh to Dastarkhwan: Qissas and Recipes from Rampur) की लेखिका और सांस्कृतिक इतिहासकार तराना हुसैन खान के अनुसार “आजादी के बाद रियासत की आर्थिक गिरावट ने व्यंजनों के प्रसार को सीमित कर दिया।” इस दौरान नवाबों द्वारा स्थापित उद्योग बंद हो गए, और हर तरफ बेरोजगारी फैल गयी।
रसोइयों को भी शाही रसोई छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। हालांकि उनका कोई ऐसा प्रयोजन नहीं था, बल्कि राजघराने के पास शाही खानसामा का समर्थन करने के लिए पर्याप्त संसाधन ही नहीं थे । इसलिए, धीरे-धीरे रामपुर के व्यंजनों और रहस्यों को भुला दिया गया और वे खो गए। हालांकि, रामपुर के राजघराने के नवेद मियां इस बात पर ज़ोर देते हैं कि,रामपुर के नवाब भी नहीं चाहते थे कि, व्यंजनों को सार्वजनिक किया जाए। आज ऐसे बहुत कम रसोइये हैं, जो रामपुर शैली में कलछी चलाना जानते हैं। पिछले कुछ समय में रामपुरी भोजन वास्तव में लगभग गायब सा हो गया था, लेकिन इसे दोबारा पुनर्जीवित करने और बढ़ावा देने के लिए काफी प्रयास किया जा रहा है।
चित्र संदर्भ
1. ज़रदा को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
2. ज़रदा के चावलों को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
3. ज़रदा के चावलों में डलने वाले खाद्य रंगों को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
4. ज़रदा में पड़ने वाली खाद्य सामग्रियों को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
5. तैयार हो चुके ज़रदा को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
6. परोसे जा रहे ज़रदा को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
7. भारतीय व्यंजनों और तराना हुसैन खान जी की पुस्तक को दर्शाता चित्रण (Youtube, Pexels)
संदर्भ
http://tinyurl.com/2ty96nc6
http://tinyurl.com/24sab6ej
http://tinyurl.com/5x5w9x9j
http://tinyurl.com/55fkdd38
http://tinyurl.com/4kjwzchh