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इत्र, केवल एक सुगंध नहीं बल्कि संस्कृति, विरासत और परंपरा की महक है। लखनऊ, जिसे नवाबों का शहर कहा जाता है, वहां इत्र न केवल एक सजावटी वस्तु रहा है, बल्कि एक जीवनशैली का हिस्सा भी। वहीं दूसरी ओर, अउद तेल—जो दुनिया का सबसे महंगा प्राकृतिक इत्र तेल माना जाता है—भारत सहित दक्षिण एशिया की परंपरा और भव्यता का प्रतीक रहा है। यह लेख लखनऊ की इत्र परंपरा, अउद की उत्पत्ति, उपयोग और वैश्विक पहचान, तथा इन दोनों के आपसी संबंध पर विस्तार से प्रकाश डालता है।
इस लेख में सबसे पहले हम लखनऊ में इत्र के ऐतिहासिक महत्व और इसकी सांस्कृतिक जड़ों को जानेंगे। इसके बाद हम अउद तेल की उत्पत्ति, उसका वैज्ञानिक निर्माण और व्यावसायिक मूल्य समझेंगे। लेख में लखनऊ की विशेष इत्र परंपराओं—जैसे ‘शम्मा’ और ‘मजमुआ’—का भी उल्लेख होगा, जो इस शहर की अनूठी पहचान हैं। अंत में हम आज के आधुनिक दौर में लखनऊ के इत्र व्यवसाय की स्थिति और प्रसिद्ध दुकानों पर भी चर्चा करेंगे।
लखनऊ और इत्र का ऐतिहासिक रिश्ता
लखनऊ की पहचान अगर तहज़ीब, अदब और शायरी है, तो इत्र उसकी आत्मा है। इस नवाबी शहर में इत्र न केवल सौंदर्य का प्रतीक रहा है, बल्कि यह धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी महत्वपूर्ण रहा है। माना जाता है कि भारत में इत्र का प्रयोग सिंधु घाटी सभ्यता (3000 ईसा पूर्व) से होता आया है। धर्मग्रंथों, पुराणों, और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भी इत्र के प्रयोग का वर्णन मिलता है। मुगल काल में विशेषकर गुलाब जल और इत्र के अनेक प्रकारों का प्रचलन हुआ। लखनऊ में हजरतगंज के पास स्थित 'इत्र साज' आज भी उन ऐतिहासिक इत्रों को जीवित रखे हुए है। यहाँ मिलने वाले इत्रों में 'गुलाम', 'मलक', 'नेमत', 'चाहत', आदि लोकप्रिय हैं।
अउद तेल: तरल सोने जैसी कीमती सुगंध
अउद तेल, जिसे अगरवुड या एलोसवुड तेल भी कहा जाता है, विश्व के सबसे महंगे इत्र घटकों में से एक है। यह तेल अगर के पेड़ से प्राप्त होता है, जो मूलतः भारत, बांग्लादेश, चीन और जापान जैसे एशियाई देशों में पाया जाता है। इसकी खासियत यह है कि जब पेड़ की लकड़ी पर एक विशेष प्रकार का कवक (फिआलोफोरा पैरासिटिका) हमला करता है, तब उसमें एक गाढ़ी सुगंधित राल उत्पन्न होती है। यही राल बाद में आसवन (डिस्टिलेशन) प्रक्रिया द्वारा तेल में बदली जाती है। इस प्रक्रिया की कठिनाई, पेड़ की दुर्लभता और सुगंध की विशिष्टता के कारण इसकी कीमत प्रति पौंड लगभग $5000 तक पहुंच जाती है। इसीलिए इसे 'तरल सोना' भी कहा जाता है।
धार्मिक, सांस्कृतिक और चिकित्सीय महत्व
अउद और इत्र का प्रयोग केवल सजावटी या व्यक्तिगत उपयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह धार्मिक और चिकित्सकीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। भारत में इसे देवताओं की पूजा में धूप और अगरबत्ती के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस्लामी दुनिया में यह व्यक्तिगत इत्र के रूप में अत्यधिक लोकप्रिय है। आयुर्वेद में भी इसकी सुगंध को मानसिक शांति और शारीरिक संतुलन के लिए उपयोगी माना गया है। यही कारण है कि यह सिर्फ एक व्यापारिक उत्पाद नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव का माध्यम भी बन चुका है।
लखनऊ का योगदान: ‘शम्मा’ और ‘मजमुआ’ जैसे इत्र का आविष्कार
लखनऊ ने इत्र की दुनिया को कई अनूठे और आकर्षक प्रकार दिए हैं। इनमें से 'शम्मा' और 'मजमुआ' विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। ‘शम्मा’ में मोहक, मीठी और सुलगती हुई सुगंध का संगम होता है, जबकि ‘मजमुआ’ चार अलग-अलग इत्रों का मिश्रण है जो एक परिष्कृत और परतदार सुगंध बनाता है। इन इत्रों में तीव्रता और सौम्यता का संतुलन लाजवाब होता है, जो लखनऊ की सांस्कृतिक बारीकी को दर्शाता है। यह इत्र न केवल घरेलू उपयोग में आते हैं, बल्कि विदेशों में भी उपहार और संग्रहणीय वस्तुओं की तरह खरीदे जाते हैं।
आधुनिक युग में लखनऊ का इत्र व्यवसाय
आज के समय में जहां रासायनिक परफ्यूम का चलन बढ़ा है, वहीं लखनऊ ने अपने पारंपरिक इत्र निर्माण को जीवित रखा है। शहर के प्रतिष्ठित इत्र प्रतिष्ठान जैसे ‘सुगंधकों’, ‘फ्राग्रंटो अरोमा लैब’ और ‘सुगंध वाइपर’ न केवल इत्र बेचते हैं, बल्कि संस्कृति और परंपरा को भी संजोए हुए हैं। यहाँ 150 रुपए से लेकर 12,000 रुपए तक के इत्र उपलब्ध हैं, जो ग्राहकों की अलग-अलग पसंद और बजट के अनुसार खरीदे जा सकते हैं। लखनऊ का इत्र आज केवल एक उत्पाद नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक धरोहर और यादगार उपहार बन चुका है।
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