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भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती होती है। इन्हीं में से एक है कपास, जो न केवल एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है, बल्कि इससे जुड़ी उद्योग श्रृंखला भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था, रोजगार और वस्त्र उद्योग की रीढ़ भी मानी जाती है। कपास का उपयोग कपड़ा निर्माण के लिए प्रमुख रूप से किया जाता है, और इससे जुड़े सभी क्षेत्र – जैसे कि खेती, प्रसंस्करण, बुनाई, रंगाई और निर्यात – करोड़ों लोगों की आजीविका का साधन बनते हैं। भारत विश्व में कपास उत्पादन, खपत और निर्यात – तीनों में अग्रणी है। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भारत में कपास की खेती का क्या महत्व है। हम जानेंगे कि कपास की कौन-कौन सी किस्में और प्रकार भारत में प्रचलित हैं, और उनकी विशेषताएँ क्या हैं। इसके साथ ही, यह भी देखेंगे कि कपास का क्षेत्र किस प्रकार बड़े पैमाने पर रोजगार उत्पन्न करता है और कितने स्तरों पर लोग इससे जुड़े हैं। इसके बाद, हम उत्तर प्रदेश में कपास की खेती की वर्तमान स्थिति और भविष्य की संभावनाओं पर ध्यान देंगे। साथ ही, कपास उत्पादन से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ जैसे—कीट प्रकोप, जलवायु परिवर्तन, और बढ़ती लागत—भी चर्चा में शामिल होंगी। अंत में, हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि सरकार किस प्रकार की योजनाएँ और प्रयास कर रही है।
भारत में कपास की खेती का महत्व
भारत में कपास एक प्रमुख नकदी फसल है, जो न केवल वस्त्र उद्योग की रीढ़ है, बल्कि देश की कृषि अर्थव्यवस्था में भी इसकी गहरी भागीदारी है। कपास की खेती का ऐतिहासिक महत्व भी है, और यह सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आज तक भारतीय कृषि संस्कृति का हिस्सा रही है। यह फसल देश के लाखों किसानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आजीविका प्रदान करती है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां सिंचाई की सुविधा सीमित होती है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ-साथ घरेलू और निर्यात बाजार में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है।
भारत में उगाई जाने वाली कपास की किस्में
भारत में कपास की चार प्रमुख प्रजातियाँ उगाई जाती हैं: गॉसिपियम हिर्सूटम (G. hirsutum), गॉसिपियम बारबाडेंस (G. barbadense), गॉसिपियम अर्बोरियम (G. arboreum), और गॉसिपियम हर्बेसियम (G. herbaceum)। इनमें से G. hirsutum को अपलैंड या अमेरिकन कॉटन कहा जाता है और यह सबसे अधिक उत्पादित किस्म है जो वैश्विक उत्पादन का लगभग 90% हिस्सा देती है। भारत उन गिने-चुने देशों में है जहां इन सभी किस्मों की व्यावसायिक खेती की जाती है। इन किस्मों की खेती देश की विभिन्न जलवायु परिस्थितियों के अनुसार की जाती है, जो इसे एक कृषि विविधता का अनूठा उदाहरण बनाता है।
भारत में कपास को फाइबर की लंबाई और गुणवत्ता के आधार पर तीन प्रमुख वर्गों में बांटा गया है - लॉन्ग स्टेपल, मीडियम स्टेपल और शॉर्ट स्टेपल। लॉन्ग स्टेपल कॉटन की लंबाई 24-27 मिमी तक होती है और इससे उच्च गुणवत्ता के वस्त्र बनते हैं, जो निर्यात के लिए आदर्श होते हैं। मीडियम स्टेपल कॉटन की लंबाई 20-24 मिमी होती है और यह भारतीय बाजार में सर्वाधिक प्रयोग होता है क्योंकि यह संतुलित गुणवत्ता और कीमत प्रदान करता है। शॉर्ट स्टेपल कॉटन की लंबाई 20 मिमी से कम होती है और इसका उपयोग निम्न गुणवत्ता के उत्पादों के लिए किया जाता है। यह वर्गीकरण भारतीय वस्त्र उद्योग की बहुपरतीय आवश्यकता को पूरा करता है।
कपास से मिलने वाला रोजगार
भारत में कपास उद्योग लगभग 6 मिलियन किसानों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार देता है और 40-50 मिलियन लोग इसके प्रसंस्करण, विपणन और व्यापार में संलग्न हैं। यह फसल ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से महिलाओं और भूमिहीन मजदूरों को आजीविका का साधन प्रदान करती है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे राज्यों में कपास उद्योग ने ग्रामीण श्रमिकों के लिए बड़ी संख्या में रोज़गार के अवसर पैदा किए हैं। कपास से जुड़े कार्य जैसे जिनिंग, स्पिनिंग, बुनाई और वस्त्र निर्माण से लेकर परिवहन और निर्यात तक लाखों परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार आता है।
कपास उत्पादन में आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ
भारत में कपास उत्पादन के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ हैं जैसे – जलवायु परिवर्तन, कीट प्रकोप (विशेषकर सफेद मक्खी), उच्च रासायनिक उपयोग और पारंपरिक खेती की पद्धतियाँ। किसानों को अक्सर कम उपज, अधिक लागत और विपणन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। साथ ही, गुणवत्ता युक्त बीजों की अनुपलब्धता और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में पारदर्शिता की कमी भी एक बड़ी समस्या है। इन समस्याओं का समाधान किये बिना कपास की उत्पादकता और किसानों की आय में सुधार नहीं किया जा सकता।
सरकार द्वारा की जा रही पहलें और योजनाएँ
सरकार ने कपास उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए टेक्नोलॉजी मिशन ऑन कॉटन (TMC), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM) जैसी योजनाएँ शुरू की हैं। इन योजनाओं के माध्यम से उन्नत बीज, सिंचाई तकनीक, जैविक कीटनाशकों का उपयोग, और किसानों को प्रशिक्षण दिया जाता है। साथ ही, क्षेत्रीय स्तर पर कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से तकनीकी सलाह और फसल निगरानी की व्यवस्था की गई है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर किसानों को जागरूक बनाने और उन्हें आधुनिक कृषि तकनीकों से जोड़ने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं।
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