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जौनपुरवासियों, हमारा शहर जितना मशहूर है अपनी तहज़ीब, इत्र और शर्की दौर की इमारतों के लिए, उतना ही गहराई से जुड़ा है उत्तर भारत के बड़े इतिहास से भी। आज हम आपको ले चलते हैं मौर्यों के लगभग हजार साल बाद के उस समय में, जब उत्तर भारत की धरती पर एक नई शक्ति उभर रही थी - गुर्जर - प्रतिहार वंश। यह वंश केवल युद्धों में अपनी बहादुरी के लिए ही नहीं, बल्कि कला, साहित्य और भव्य मंदिरों के निर्माण के लिए भी जाना जाता है।
इस लेख में हम गुर्जर-प्रतिहार वंश के इतिहास को पाँच प्रमुख पहलुओं में समझेंगे। सबसे पहले, हम इस वंश की उत्पत्ति, काल और विस्तार पर नज़र डालेंगे, जहाँ यह देखेंगे कि किस तरह कन्नौज से उठी यह शक्ति उत्तर और पश्चिम भारत में फैलकर एक बड़े साम्राज्य का रूप लेती है। इसके बाद, हम इनके प्रशासन और शासन प्रणाली का अध्ययन करेंगे, जिसमें राजा से लेकर स्थानीय स्तर तक की संगठित व्यवस्था शामिल थी। तीसरे भाग में हम उन प्रमुख शासकों के योगदान को जानेंगे, जिन्होंने अपने साहस और नीतियों से इस वंश को शिखर तक पहुँचाया। चौथे हिस्से में हम प्रतिहार काल में कला, वास्तुकला और मंदिर निर्माण के शानदार योगदान को देखेंगे, जिसने इस युग को सांस्कृतिक स्वर्णकाल बना दिया। अंत में, हम साहित्य और सांस्कृतिक गतिविधियों के क्षेत्र में इस वंश की उपलब्धियों को समझेंगे, जिसने भारत की विद्या और संस्कृति को समृद्ध बनाया।
गुर्जर-प्रतिहार वंश की उत्पत्ति, काल और विस्तार
गुर्जर-प्रतिहार वंश का उदय 8वीं शताब्दी में भारतीय इतिहास के एक ऐसे दौर में हुआ जब उत्तर और पश्चिम भारत में सत्ता संघर्ष चरम पर था। लगभग 730 ईस्वी में इस वंश का पहला उल्लेख मिलता है। 1036 ईस्वी तक, लगभग तीन शताब्दियों तक, प्रतिहार शासकों ने उत्तर भारत की राजनीति और संस्कृति को आकार दिया। इस वंश की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर उसे मध्यकालीन भारत की सबसे प्रमुख शक्ति केंद्रों में बदल दिया।
नागभट्ट प्रथम, इस वंश के पहले महान शासक, अपने समय के सबसे दूरदर्शी और साहसी शासकों में माने जाते हैं। उन्होंने अरब आक्रमणकारियों को उत्तर भारत की धरती से खदेड़कर अपने राज्य की नींव मजबूत की और सुरक्षा का माहौल बनाया। कालांतर में यह साम्राज्य पश्चिम में गुजरात और सिंध की सीमाओं तक फैल गया, उत्तर में हिमालय के तराई क्षेत्रों तक इसका प्रभाव पहुंचा, और पूर्व की ओर बंगाल तक इसका विस्तार हुआ। उस समय भारत के तीन बड़े शक्तिशाली राज्यों - पाल, राष्ट्रकूट और प्रतिहार - में त्रिकोणीय संघर्ष चलता रहा। इन परिस्थितियों में भी प्रतिहार साम्राज्य ने अपनी पहचान मजबूत की और उत्तरी भारत की संस्कृति, राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था पर अमिट छाप छोड़ी।
प्रशासन व्यवस्था और शासन प्रणाली
गुर्जर-प्रतिहार वंश की प्रशासनिक व्यवस्था बहुत ही संगठित और सुव्यवस्थित थी। उनके शासन में राजा सर्वोच्च स्थान रखता था और राज्य की समस्त शक्ति और जिम्मेदारी उसी के पास होती थी। राजाओं को ‘परमेश्वर’, ‘महाराजाधिराज’ और ‘परमभतेरक’ जैसी उपाधियाँ दी जाती थीं, जो उनकी सर्वोच्च सत्ता का संकेत थीं। राज्य को प्रशासनिक सुविधा के लिए कई ‘भुक्तियों’ में विभाजित किया गया था। प्रत्येक भुक्ति के अंतर्गत 'मंडल' होते थे और मंडलों में गाँव व नगर आते थे। सामंतों को ‘महा-प्रतिहार’ या ‘महा-सामंतपति’ कहा जाता था। ये सामंत राजा को सैन्य सहायता उपलब्ध कराते थे और युद्ध के समय उनके साथ लड़ते थे। प्रशासनिक ढांचे में गाँव का प्रबंधन स्थानीय बुजुर्गों यानी महत्तर के हाथ में होता था, जबकि ग्रामपति ग्राम स्तर पर राजा का प्रतिनिधित्व करते थे और शासन के कार्यों में सलाह देते थे। शहरों के प्रशासन के लिए गोष्ठी, पंचकुला और उत्तरसोभा जैसी परिषदें कार्य करती थीं, जो स्थानीय निर्णय लेती थीं। इस तरह का बहुस्तरीय और संगठित शासन ढांचा प्रतिहार साम्राज्य की स्थिरता और ताकत का मुख्य कारण बना।
प्रमुख शासक और उनके योगदान
प्रतिहार वंश के इतिहास को जानने के लिए इसके प्रमुख शासकों का योगदान सबसे महत्वपूर्ण है।
नागभट्ट प्रथम (730 - 760 ईस्वी): उन्होंने प्रतिहार शक्ति की नींव रखी। उस समय अरब आक्रमण उत्तर-पश्चिम से लगातार बढ़ रहे थे। नागभट्ट प्रथम ने गुजरात और ग्वालियर तक फैले अपने साम्राज्य में अरब सेनाओं को करारी शिकस्त देकर भारत को सुरक्षित रखा।
नागभट्ट द्वितीय (800 - 833 ईस्वी): वत्सराज के उत्तराधिकारी नागभट्ट द्वितीय ने साम्राज्य को नए सिरे से संगठित किया। उन्होंने सिंध, आंध्र, विदर्भ और कलिंग तक विजय प्राप्त की और कन्नौज को भी अपने अधीन कर लिया।
मिहिर भोज (836 - 885 ईस्वी): प्रतिहार इतिहास के स्वर्णिम अध्याय का आरंभ इन्हीं के समय होता है। 46 वर्षों के उनके शासनकाल में साम्राज्य ने नई ऊँचाइयों को छुआ। उन्होंने न केवल सैन्य शक्ति को सुदृढ़ किया बल्कि संस्कृति, कला और साहित्य का संरक्षण भी किया।
महेंद्रपाल (885 - 910 ईस्वी): उनके समय में साम्राज्य का विस्तार उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक हुआ। वे विद्या और कला के महान संरक्षक थे। संस्कृत कवि राजशेखर उनके दरबार को सुशोभित करते थे।
यशपाल (1024 - 1036 ईस्वी): प्रतिहार वंश के अंतिम शासक माने जाते हैं। उनके काल में गढ़वाल वंश ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया, और इस तरह प्रतिहार साम्राज्य का अंत हुआ।
कला, वास्तुकला और मंदिर निर्माण में योगदान
गुर्जर-प्रतिहार काल में कला और स्थापत्य का उत्कर्ष अपने चरम पर था। इस काल की स्थापत्य शैली को ‘महु-गुर्जर शैली’ के नाम से जाना जाता है। इस वंश के संरक्षण में बने मंदिर आज भी उनकी कलात्मक उत्कृष्टता का प्रमाण हैं। राजस्थान के ओसियां स्थित महावीर जैन मंदिर, मध्य प्रदेश के बटेश्वर समूह के मंदिर और चित्तौड़गढ़ के बारोली मंदिर प्रतिहार वास्तुकला के अद्भुत उदाहरण हैं। इन मंदिरों में पत्थर की नक्काशी, शिल्पकला और मूर्तियों का सौंदर्य अद्वितीय है। इन मंदिरों में शिव, विष्णु और शक्ति जैसे देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ स्थापित की गईं। मिहिर भोज ने अपने शासनकाल में सुंदर मुद्रा-सिक्कों का निर्माण भी कराया, जिन पर विष्णु के अवतार और सूर्य के प्रतीकों की छवियाँ उकेरी गईं। ये सिक्के उनके सांस्कृतिक दृष्टिकोण और कलात्मक अभिरुचि को दर्शाते हैं।
साहित्य और सांस्कृतिक योगदान
गुर्जर-प्रतिहार काल में विद्या, साहित्य और संस्कृति का अद्भुत विकास हुआ। इस वंश के शासक स्वयं कला और साहित्य के संरक्षक थे। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि राजशेखर ने इस समय कई अमूल्य कृतियाँ दीं - जिनमें ‘कर्पूरमंजरी’, ‘काव्यमीमांसा’, ‘बाल-रामायण’ और ‘विद्धशालभंजिका’ प्रमुख हैं। विदेशी यात्री सुलेमान ने भी प्रतिहार साम्राज्य का उल्लेख करते हुए लिखा कि उनके राज्य में विशाल सेना थी, ऊँट और घोड़ों की भरमार थी, और यह राज्य इतना सुरक्षित था कि यहाँ लूटपाट की कोई घटना नहीं होती थी। यह टिप्पणी इस बात का प्रमाण है कि यह राजवंश न केवल शक्तिशाली था बल्कि जनता के लिए सुरक्षित और समृद्ध वातावरण प्रदान करता था।
संदर्भ-
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