विश्व युद्धों के प्रभाव: भारत की स्वतंत्रता की दिशा में एक निर्णायक मोड़

औपनिवेशिक काल और विश्व युद्ध : 1780 ई. से 1947 ई.
25-08-2025 09:24 AM
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विश्व युद्धों के प्रभाव: भारत की स्वतंत्रता की दिशा में एक निर्णायक मोड़

बीसवीं शताब्दी के आरंभ में जब दुनिया दो भयंकर विश्व युद्धों से जूझ रही थी, उस समय भारत ब्रिटिश (British) उपनिवेश के रूप में पराधीन था। इन युद्धों ने केवल अंतरराष्ट्रीय राजनीति को नहीं बदला, बल्कि औपनिवेशिक शक्तियों की आर्थिक और सैन्य नींव को भी कमजोर कर दिया। ब्रिटेन (Britain) जैसे साम्राज्य को, जो एक समय ‘सूरज न डूबने वाला देश’ कहा जाता था, अब अपने उपनिवेशों को बनाए रखना भारी पड़ने लगा। इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भारत का स्वतंत्रता संग्राम एक निर्णायक मोड़ पर पहुँचा। देश की जनता, नेताओं और सैनिकों ने इन वैश्विक घटनाओं का लाभ उठाते हुए आज़ादी की मांग को और भी प्रबल रूप दिया।
इस लेख में हम समझेंगे कि कैसे प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों ने ब्रिटिश साम्राज्य को अंदर से कमजोर कर दिया और उपनिवेशों को स्वतंत्रता के अवसर प्रदान किए। सबसे पहले, हम देखेंगे कि इन दोनों विश्व युद्धों ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था और सैन्य ताकत को किस तरह प्रभावित किया। फिर, हम जानेंगे कि भारत ने युद्ध में सैनिकों, संसाधनों और आर्थिक सहायता के रूप में क्या योगदान दिया और इसका स्वतंत्रता संग्राम से क्या संबंध था। इसके बाद, हम गांधीजी द्वारा शुरू किए गए जन आंदोलनों की भूमिका पर चर्चा करेंगे, जिन्होंने जनता को संगठित कर आज़ादी की आवाज़ को बुलंद किया। चौथे भाग में हम 1946 के नौसेना विद्रोह को समझेंगे, जिसने ब्रिटिश शासन की जड़ें हिला दीं। अंत में, हम जानेंगे कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कैसे अंतरराष्ट्रीय दबाव और राजनीतिक बदलावों ने भारत की स्वतंत्रता को लगभग अनिवार्य बना दिया।

विश्व युद्धों से ब्रिटिश साम्राज्य की कमजोरी
बीसवीं सदी के दो भयानक युद्धों, प्रथम (1914–1918) और द्वितीय (1939–1945) विश्व युद्ध, ने न केवल यूरोप की राजनीतिक सीमाओं को बदला, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को भी कमजोर कर दिया। लंबे समय से दुनियाभर में फैले औपनिवेशिक शासन को आर्थिक, सैनिक और नैतिक समर्थन की आवश्यकता होती थी, लेकिन युद्धों ने ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को इस हद तक तोड़ डाला कि उसे अपने ही देश में राशनिंग (rationing) जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ा। हिटलर (Hitler) के नेतृत्व में जर्मनी (Germany) से लड़ी गई महंगी लड़ाइयों ने ब्रिटेन को भारी कर्ज में डुबो दिया और उसकी सैन्य शक्ति भी क्षीण हो गई। इन हालातों में ब्रिटेन के लिए अपने उपनिवेशों को बनाए रखना अब बोझ बन गया था। भारतीय उपमहाद्वीप जैसे विशाल क्षेत्र को नियंत्रित करना आर्थिक रूप से असंभव होता जा रहा था। इस कमजोर होती स्थिति ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक मजबूत मनोवैज्ञानिक बढ़ावा दिया और यह स्पष्ट हो गया कि औपनिवेशिक युग का अंत निकट है।

भारतीय सैनिकों और संसाधनों का युद्ध में योगदान
दोनों विश्व युद्धों में भारत ने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य का वफादार सहयोगी बनकर कार्य किया, बल्कि मानवशक्ति, खाद्य सामग्री, पशु, जूट, कपड़ा और आर्थिक सहायता के रूप में विशाल योगदान भी दिया। प्रथम विश्व युद्ध में लगभग 15 लाख भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश सेनाओं के साथ यूरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका में लड़ाइयाँ लड़ीं, जिनमें से हज़ारों ने बलिदान दिया। द्वितीय विश्व युद्ध में यह संख्या और भी अधिक थी, लाखों सैनिक, टनों राशन, और आर्थिक ऋण भारत ने ब्रिटेन को बिना किसी शर्त के उपलब्ध कराया। यह सब उस आशा से किया गया था कि युद्ध के बाद भारतीयों को स्वशासन का अधिकार मिलेगा। लेकिन जब युद्ध समाप्त हुआ और ब्रिटिश शासन ने अपने पुराने रवैये को जारी रखा, तो भारतीय जनमानस में असंतोष गहराने लगा। यह महसूस होने लगा कि अंग्रेज सिर्फ भारत की क्षमता का दोहन कर रहे हैं, न कि उसे भागीदार बना रहे हैं। इस भावना ने स्वतंत्रता के आंदोलन को और भी व्यापक बना दिया।

गांधीजी और जन आंदोलनों का प्रभाव
महात्मा गांधी का भारत में आगमन और उनका शांतिपूर्ण प्रतिरोध का दृष्टिकोण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था। उन्होंने न केवल एक नेता की भूमिका निभाई, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन को एक जनआंदोलन में बदल दिया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जैसे ही अंग्रेजों ने अपने वादे तोड़े, गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया जिसने अंग्रेजों की प्रशासनिक शक्ति को पहली बार चुनौती दी। इसके बाद खिलाफत आंदोलन ने हिंदू-मुस्लिम एकता का दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किया। 1930 के दशक में सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन ने अंग्रेजों की नींव हिला दी। गांधीजी ने भारतीयों में आत्मबल और अहिंसा के माध्यम से अधिकार छीनने की भावना पैदा की। देश के ग्रामीण क्षेत्रों तक यह आंदोलन पहुँच गया, जिससे यह केवल एक राजनीतिक विचार नहीं, बल्कि जनता की सामूहिक चेतना बन गया। गांधीजी का नेतृत्व भारतीय आत्मनिर्णय की भावना का सबसे बड़ा प्रतीक बन गया।

1946 नौसेना विद्रोह और ब्रिटिश शासन पर दबाव
द्वितीय विश्व युद्ध के ठीक बाद 1946 में रॉयल इंडियन नेवी (Royal Indian Navy) के सैकड़ों नाविकों ने बंबई में ब्रिटिश अफसरों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह केवल वेतन या सुविधाओं की बात नहीं थी, यह भारतीय सैनिकों के अंदर उपनिवेशवादी मानसिकता के खिलाफ उठ रही बेचैनी की अभिव्यक्ति थी। यह असंतोष तेजी से फैलने लगा और सेना के अन्य अंगों, विशेषकर वायुसेना और थलसेना के कुछ हिस्सों तक जा पहुँचा। ब्रिटिश सरकार के लिए यह स्थिति अत्यंत खतरनाक थी क्योंकि अब उसकी अपनी सेना में ही वफादारी संदेहास्पद हो गई थी। इससे यह संकेत स्पष्ट हो गया कि अब भारतीयों को केवल भाषण या कानूनी वादों से शांत नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश प्रशासन को यह समझ में आ गया कि अब भारत पर नियंत्रण बनाए रखना उनकी शक्ति से बाहर की बात है। यह विद्रोह स्वतंत्रता के दरवाजे खोलने वाले निर्णायक क्षणों में से एक बन गया।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्वतंत्रता की अनिवार्यता
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ ही वैश्विक स्तर पर उपनिवेशवाद के खिलाफ विचारधारात्मक संघर्ष शुरू हो चुका था। अमेरिका, जो स्वयं स्वतंत्रता के सिद्धांत पर बना था, ने ब्रिटेन पर दबाव डाला कि वह भारत जैसे उपनिवेशों को आज़ादी दे। इसी समय ‘अटलांटिक चार्टर’ (The Atlantic Charter) नामक समझौता हुआ जिसमें यह स्वीकार किया गया कि हर राष्ट्र को आत्मनिर्णय का अधिकार है। ब्रिटेन में सत्ता परिवर्तन हुआ और लेबर पार्टी (Labour Party) की सरकार आई, जो उपनिवेशवाद के पक्ष में नहीं थी। इस सरकार ने भारत में चुनावों की घोषणा की, कांग्रेस से प्रतिबंध हटाए और अंततः स्वतंत्रता के लिए वार्ताएँ शुरू कीं। आर्थिक रूप से थके हुए और राजनैतिक रूप से दबाव में आए ब्रिटेन के पास अब भारत को स्वतंत्रता देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। यही वह क्षण था जब दशकों का संघर्ष निर्णायक रूप लेने लगा।

संदर्भ-

https://shorturl.at/76Wjp 
https://shorturl.at/Y3gQJ 
https://short-link.me/1amCU