भारत की प्रमुख भैंस नस्लें: सुरती, भदावरी और मुर्रा का इतिहास, विशेषताएँ व महत्व

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भारत की प्रमुख भैंस नस्लें: सुरती, भदावरी और मुर्रा का इतिहास, विशेषताएँ व महत्व

भारत में भैंस पालन न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, बल्कि यह देश की डेयरी उत्पादन (Dairy Production) क्षमता का भी एक अहम स्तंभ है। विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली भैंसों की नस्लें अपने-अपने भौगोलिक, जलवायु और पारंपरिक पालन पद्धतियों के अनुसार विशिष्ट पहचान रखती हैं। इनमें सुरती, भदावरी और मुर्रा जैसी नस्लें विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं, जो दूध की उच्च गुणवत्ता, वसा प्रतिशत और स्थानीय परिस्थितियों में अनुकूलन क्षमता के लिए जानी जाती हैं। इन नस्लों का संरक्षण और प्रोत्साहन न केवल किसानों की आय बढ़ाता है, बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा और डेयरी उद्योग की मजबूती में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
इस लेख में हम सुरती, भदावरी और मुर्रा भैंसों की उत्पत्ति, शारीरिक विशेषताओं, दूध उत्पादन क्षमता और किसानों के बीच उनकी लोकप्रियता पर विस्तृत चर्चा करेंगे। साथ ही, हम इन नस्लों के बीच मौजूद प्रमुख अंतर और समानताओं को भी समझेंगे, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि किन परिस्थितियों में कौन-सी नस्ल अधिक लाभकारी हो सकती है। इसके अलावा, भैंस पालन के क्षेत्रीय महत्व और स्थानीय नस्लों के संरक्षण की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला जाएगा, जिससे यह परंपरागत पशुपालन आधुनिक कृषि में एक स्थायी और लाभदायक विकल्प के रूप में अपनी पहचान बनाए रख सके।

सुरती भैंस – उत्पत्ति, पहचान और भौगोलिक वितरण
सुरती भैंस (बुबैलस बुबैलिस - Bubalus bubalis) भारत की प्रसिद्ध दुग्ध नस्लों में से एक है, जिसका मूल स्थान गुजरात है। यह मुख्यतः माही और साबरमती नदियों के बीच फैले उपजाऊ मैदानों में पाई जाती है, विशेषकर कैरा, आनंद और वडोदरा जिलों में। भरूच, खेड़ा और सूरत जिले भी इसके प्रमुख प्रजनन क्षेत्रों में शामिल हैं। इस नस्ल का नाम सूरत शहर से लिया गया है, जो गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित एक ऐतिहासिक वाणिज्यिक केंद्र है। सुरती का शरीर मध्यम आकार का और संतुलित अनुपात वाला होता है। सिर चौड़ा और लंबा होता है, जबकि सींग दरांती के आकार में पीछे की ओर मुड़ते हुए सिरों पर हुक (hook) का रूप बना लेते हैं। इनकी पीठ सीधी और मजबूत होती है, रंग प्रायः काला या गहरा भूरा होता है, और गले व छाती पर दो स्पष्ट सफेद कॉलर (collar) जैसी धारियाँ इसकी पहचान को अलग बनाती हैं। इनके कान मध्यम आकार के और हल्के झुके हुए होते हैं, जो इनके शांत और विनम्र स्वभाव का संकेत देते हैं।

सुरती भैंस की विशेषताएँ और उत्पादन क्षमता
सुरती नस्ल अपने सौम्य स्वभाव, उच्च दूध उत्पादन और असाधारण वसा प्रतिशत के लिए प्रसिद्ध है। इनका दूध 8–10% वसा और लगभग 9–9.15% एसएनएफ (SNF - Solids-Not-Fat) मात्रा के साथ अत्यंत पौष्टिक माना जाता है, जो घी और पनीर निर्माण के लिए उपयुक्त है। एक वयस्क सुरती भैंस औसतन 1,600–1,800 लीटर दूध देती है, जबकि प्रथम स्तनपान में 1,500–1,600 किलोग्राम और बाद में 1,900–2,000 किलोग्राम तक उत्पादन संभव है। इस नस्ल की एक विशेषता यह है कि यह अपेक्षाकृत कम चारे और साधारण देखभाल में भी उच्च गुणवत्ता का दूध दे सकती है, जिससे यह छोटे और सीमांत किसानों के लिए आदर्श विकल्प बन जाती है। इनका प्रजनन मौसमी होता है, जो प्रायः सितंबर से अप्रैल के बीच केंद्रित रहता है। नर सुरती भैंस हल्के कृषि कार्यों और गाड़ी खींचने में भी सहायक होते हैं।

भदावरी भैंस - उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की विशिष्ट नस्ल
भदावरी भैंस भारत की एक विशिष्ट नस्ल है, जो मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के आगरा और इटावा जिलों के भदावर क्षेत्र तथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर में पाई जाती है। इसका शरीर मध्यम आकार का और पच्चर आकार का होता है, जिससे यह मजबूत और चपल दोनों प्रतीत होती है। इनका सिर छोटा लेकिन सशक्त, पैर मजबूत और खुर काले व कठोर होते हैं। पूंछ लंबी और लचीली होती है, जिसके सिरे पर काले और सफेद या केवल सफेद बाल पाए जाते हैं। इनकी सबसे अनोखी पहचान इनकी हल्की तांबे के रंग की त्वचा है, जो धूप में चमकदार आभा देती है। भदावरी भैंस दूध में उच्च वसा प्रतिशत के लिए जानी जाती है, हालांकि इसका औसत उत्पादन 800–1,000 किलोग्राम प्रतिवर्ष होता है। यह नस्ल गर्म जलवायु को अच्छी तरह सहन करती है, और नर भैंस भार ढोने, हल जोतने तथा अन्य कृषि कार्यों में दक्ष होते हैं।

सुरती और भदावरी भैंस – मुख्य अंतर और समानताएँ
सुरती और भदावरी दोनों ही भारतीय भैंस नस्लें अपने-अपने क्षेत्रीय परिवेश के अनुरूप अनुकूलित हैं और मध्यम आकार की मानी जाती हैं। हालांकि, इनकी पहचान और उत्पादन क्षमता में कुछ उल्लेखनीय अंतर हैं। सुरती भैंस का रंग प्रायः काला या गहरा भूरा होता है, जबकि भदावरी की त्वचा तांबे जैसी चमक लिए होती है। दूध उत्पादन में सुरती नस्ल स्पष्ट रूप से आगे है और इसके दूध में वसा प्रतिशत भी थोड़ा अधिक होता है, जिससे यह वाणिज्यिक डेयरी व्यवसाय के लिए अधिक आकर्षक बनती है। वहीं, भदावरी भैंस गर्म और शुष्क जलवायु में बेहतर सहनशीलता रखती है, जो इसे मध्य भारत और उत्तर प्रदेश के कुछ शुष्क क्षेत्रों में अधिक उपयुक्त बनाता है। दोनों ही नस्लें कम चारे पर पालन योग्य हैं और छोटे किसानों के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभदायक सिद्ध होती हैं।

मुर्रा भैंस – उत्तर भारत की उच्च उत्पादक नस्ल
मुर्रा भैंस उत्तर भारत की सबसे अधिक लोकप्रिय और उच्च उत्पादक नस्ल है, जो मुख्य रूप से हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाई जाती है। यह अपनी सशक्त शारीरिक संरचना, गहरे काले रंग, घुंघराले छोटे सींग और ऊँचाई के लिए जानी जाती है। मुर्रा नस्ल का दूध उत्पादन क्षमता 2,500 से 3,000 लीटर प्रतिवर्ष तक हो सकती है, और वसा प्रतिशत लगभग 7–8% होता है। यह नस्ल न केवल उच्च उत्पादन देती है बल्कि रोग प्रतिरोधक क्षमता और अनुकूलनशीलता के मामले में भी अग्रणी है।

भैंस पालन में क्षेत्रीय नस्लों का महत्व
भारतीय भैंस नस्लें केवल दुग्ध उत्पादन के दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक विरासत के दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। प्रत्येक नस्ल अपने क्षेत्र की जलवायु, चारे और रोग प्रतिरोधक क्षमता के अनुरूप विकसित हुई है, जिससे उनका पालन लागत कम होती है और स्थायी आय का स्रोत बनता है। छोटे और सीमांत किसान इनसे न केवल दूध पाते हैं, बल्कि कृषि कार्यों के लिए श्रमशक्ति भी प्राप्त करते हैं। उच्च वसा और एसएनएफ मात्रा वाला दूध डेयरी उद्योग को गुणवत्ता और लाभ देता है। यही कारण है कि सुरती, भदावरी और मुर्रा जैसी नस्लों का संरक्षण, संवर्धन और वैज्ञानिक प्रजनन कार्यक्रमों के माध्यम से प्रोत्साहन अत्यंत आवश्यक है, ताकि देश की दुग्ध उत्पादकता और पशुपालन क्षेत्र की स्थिरता बनी रहे।

संदर्भ-

https://shorturl.at/dkD8P 



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