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वन सदियों से ही धरती का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं तथा इनके कारण विश्व की जैव विविधता निरंतरता बनी रहती है। किसी राष्ट्र में विद्यमान वन अथवा जंगल, उस राष्ट्र की न केवल आर्थिक, वरन सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रगति में भी भागीदारी होते हैं। वहीं यह आर्थिक विकास, जैव विविधता, मनुष्य की आजीविका, तथा पर्यावरणीय अनुकूलन प्रतिक्रियाओं के लिए उपयोगी तथा आवश्यक होते हैं।
भारत विश्व के दस सबसे अधिक वन-समृद्ध देशों में से एक है। साथ ही भारत और ये अन्य 9 देश दुनिया के कुल वन क्षेत्र का 67% हिस्सा हैं। कई दशकों तक वन क्षरण एक गंभीर चिंता का विषय होने के बाद भारत का वन आवरण प्रति वर्ष 1990-2000 के दौरान 0.20% और 2000-2010 के बीच 0.7% की दर से बढ़ा था। वहीं संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के अनुमान में कहा गया था कि 2010 में भारत का वन क्षेत्र लगभग 6.8 करोड़ हेक्टेयर या देश के 22% क्षेत्र तक था।
भारत में वानिकी केवल लकड़ी और ईंधन के रूप में महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह एक संपन्न गैर-लकड़ी वन उत्पाद उद्योग भी है, जो गोंद, राल, आवश्यक तेलों, स्वादों, सुगंधों और सुगंध रसायनों, अगरबत्ती, हस्तशिल्प और औषधीय पौधों का उत्पादन करती है। वन ने प्रारंभिक भारतीय साहित्य में भी प्रमुख भूमिका निभाई।
1840 में, ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने क्राउन लैंड ऑर्डिनेंस (Crown Land Ordinance) नामक एक अध्यादेश को बढ़ावा दिया। इस अध्यादेश ने ब्रिटेन के एशियाई उपनिवेशों में वनों को लक्षित किया, और सभी जंगलों, कचरे, निर्जन और अनियंत्रित भूमि को दुबारा से एक नहीं पहल दी। वहीं 1864 में इंपीरियल फॉरेस्ट डिपार्टमेंट (Imperial Forest Department) को भारत में स्थापित किया गया था। 1952 में, सरकार ने उन जंगलों का राष्ट्रीयकरण किया जो पहले ज़मींदारों के पास थे। भारत ने अधिकांश वन लकड़ी उद्योगों और गैर-लकड़ी वन उत्पाद उद्योगों का भी राष्ट्रीयकरण किया और भारत द्वारा कई नियम और कानून पेश किए गए थे।
भारत ने 1988 में अपनी राष्ट्रीय वन नीति का शुभारंभ किया। इससे संयुक्त वन प्रबंधन नाम का एक कार्यक्रम शुरू हुआ, जिसने प्रस्तावित किया कि वन विभाग के सहयोग के साथ विशिष्ट गाँव विशिष्ट वन खंडों का प्रबंधन करेंगे। खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा 2010 में किए गए एक अध्ययन में विश्व के सबसे बड़े वन के आवृत्त क्षेत्र वाले 10 देशों में भारत को भी रखा गया था।
वहीं नॉन-प्रॉफिट वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (Non-Profit World Resources Institute) के एक विश्लेषण के मुताबिक, 2001 से 2018 के बीच भारत में 16 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन के आवृत्त क्षेत्र को नष्ट कर दिया गया। वैसे तो यह भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट के विपरीत है, जो 2005 और 2017 के बीच 2,152 वर्ग कि.मी. के वन और वृक्षों के आवरण में वृद्धि का दावा करती है। वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, क्षणिक वाणिज्यिक वृक्षारोपण को भी जंगलों के रूप में गिना जाता है।
प्राचीन भारत से ही लोगों के निजी वन होने की परंपरा चलती आ रही है, जिसमें पवित्र प्राचीन उपवन और हाल ही में साधना वन जैसी पहल, जो ऑरोविल के समुदाय द्वारा विकसित की गई है, शामिल हैं। निजी वन ज्यादातर शाही परिवारों के स्वामित्व वाले स्थानों में ही पाए जाते थे। स्वतंत्रता के बाद, पहले के निजी वनों को भारत सरकार द्वारा अपने अधिकार में ले लिया गया और उन्हें राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों या आरक्षित वनों में परिवर्तित कर दिया गया था। 1990 के दशक के मध्य जब तेज़ी से हो रहे विकास ने प्रकृति पर अपना प्रभाव डालना शुरू कर दिया तब निजी जंगलों की कटाई शुरू हो गई थी। मुंबई से लगभग 90 कि.मी. दूर 65 एकड़ में फैला हुआ वनवाड़ी, सह्याद्री तलहटी में एक बड़ा निजी जंगल है। लगभग 26 से 27 साल पहले इस जंगल के पेड़ों को पूरी तरह से काट दिया गया था और 1994 में, 24 प्रकृति प्रेमियों द्वारा इसे दुबारा से पुनर्जीवित किया गया।
हाल ही में सरकार द्वारा वनों के संरक्षण के लिए निजी वनों को बढ़ावा दिया गया है और इसने वनों के संरक्षण में भी काफी लाभ प्रदान किया है। लेकिन ये निजी वन भी किसी कानून या नीतिगत ढांचे के समर्थन में नहीं हैं। सोचिए क्या होगा अगर इन संपत्तियों के उत्तराधिकारी इन निजी जंगलों को वाणिज्यिक जंगलों, आवास भूखंड या पर्यटन लॉज (Lodge) में बदलने का निर्णय ले लेते हैं या वे इस वन में जंगली जानवरों का प्रवेश निषिद्ध करते हैं या उन्हें हानि पहुंचाते हैं? इसलिए यह ढांचा अभी भी पूर्ण रूप से सुरक्षित तो नहीं है परन्तु कुछ बदलावों के साथ यह ज़रूर फायदेमंद साबित हो सकता है।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Forestry_in_India
2. https://thewire.in/environment/the-story-of-indias-private-forests
3. https://bit.ly/2D0M96s
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