क्यों पृथ्वी के टुंड्रा क्षेत्र में पेड़-पौधों की वृद्धि मुश्किल से हो पाती है?

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क्यों पृथ्वी के टुंड्रा क्षेत्र में पेड़-पौधों की वृद्धि मुश्किल से हो पाती है?

वन हमारी पारिस्थितिकी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, किंतु विश्व में कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां प्रतिकूल स्थितियों के कारण वनों की वृद्धि बहुत कम हो पाती है।भारत में टुंड्रा भी एक ऐसा स्थान है, जहां पेड़-पौधों की वृद्धि मुश्किल से हो पाती है, तथा इसका प्रमुख कारण है, अत्यधिक ठंडा तापमान। यहां की वनस्पतियों में मुख्य रूप से केवल कुछ झाड़ियां, घास और काई या मॉस (Moss), लाइकेन (Lichen) ही शामिल हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि टुंड्रा में लगभग 1,700 विभिन्न प्रजातियां मौजूद हैं, लेकिन जंगलों और घास के मैदानों से इसकी तुलना करें, तो यह आंकड़ा बहुत अधिक नहीं है।
दूसरे शब्दों में जंगलों और घास के मैदानों में वनस्पति प्रजातियों की संख्या टुंड्रा की तुलना में बहुत अधिक है। ठंडे तापमान के कारण यहां की जमीन बहुत ठंडी होती है, जिसकी वजह से पौधों की जड़ें जमीन पर आसानी से नहीं जम पाती। हालांकि कुछ पशु प्रजातियां ऐसी हैं, जो पौधों के बिना भी यहां जीवित रह सकती हैं। टुंड्रा मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों को आवरित करता है, जिनमें आर्कटिक (Arctic) टुंड्रा,अल्पाइन (Alpine) टुंड्रा,और अंटार्कटिक (Antarctic) टुंड्रा शामिल है।आर्कटिक टुंड्रा वर्ष के अधिकांश समय जमा हुआ रहता है। यहां की भूमि में केवल कुछ प्रकार की आर्कटिक वनस्पतियां होती हैं, जिनमें काई, हीथ (Heath) (एरिकेसी (Ericaceae) किस्म जैसे क्रॉबेरी (Crowberry) और ब्लैक बियरबेरी (Black bearberry) और लाइकेन शामिल हैं।आर्कटिक टुंड्रा की उल्लेखनीय वनस्पतियों में ब्लूबेरी (Blueberry) वैक्सीनियम यूलिगिनोसम (Vaccinium uliginosum), क्रॉबेरी (एम्पेट्रम नाइग्रम - Empetrum nigrum), रेनडियर लाइकेन (Reindeer lichen) (क्लैडोनिया रेंजिफेरिना – Cladonia rangiferina), लिंगोनबेरी (Lingonberry) (वैक्सीनियम विटिस-आइडिया - Vaccinium vitis-idaea), और लैब्राडोरटी (Labradortea) (रोडोडेंड्रोन ग्रोनलैंडिकम - Rhododendron groenlandicum) शामिल है।
अंटार्कटिका क्षेत्र का अधिकांश भाग भी वनस्पति की वृद्धि के लिए बहुत ठंडा और शुष्क है, और अधिकांश महाद्वीप बर्फ की चादरों से ढका हुआ है।वर्तमान में यहां की वनस्पतियों में लाइकेन की लगभग 300-400 प्रजातियां, काई की 100 प्रजातियां, लिवरवॉर्ट्स (Liverworts) की 25 प्रजातियां और लगभग 700 स्थलीय और जलीय शैवाल प्रजातियां शामिल हैं। अंटार्कटिका की दो फूलों वाली पौधों की प्रजातियां, अंटार्कटिक हेयर ग्रास (Antarctic hair grass) (डेसचम्पसिया अंटार्कटिका - Deschampsia antarctica) और अंटार्कटिक पर्लवॉर्ट (Antarctic pearlwort) (कोलोबैंथस क्विटेन्सिस – Colobanthus quitensis), अंटार्कटिक प्रायद्वीप के उत्तरी और पश्चिमी भागों में पाई जाती हैं।
इसी प्रकार से टुंड्रा के अल्पाइन क्षेत्र की बात करें, तो यहां पेड़ प्रजातियों का अभाव है,क्योंकि उच्च ऊंचाई पर मौजूद जलवायु और मिट्टी पेड़ों की वृद्धि के लिए उपयुक्त नहीं है।अल्पाइन टुंड्रा की वनस्पतियों में वे पौधे शामिल हैं, जो जमीन के करीब उगते हैं, जैसे बारहमासी घास, सेज (Sedges), फोर्ब्स (Forbs), कुशन प्लांट (Cushion plants), मॉस और लाइकेन । यहां 3.6 किलोमीटर से अधिक ऊंचाई पर उगने वाली वनस्पति को आमतौर पर अल्पाइन वनस्पति के रूप में जाना जाता है।
टुंड्रा क्षेत्रों में आमतौर पर सालाना 25 सेंटीमीटर (10 इंच) से कम वर्षा होती है, जिसका अर्थ है कि ये क्षेत्र रेगिस्तान के समान है।यहां ठंडी सर्दियों की अवधि बहुत लंबी होती है तथा औसतन, वर्ष के केवल छह से दस सप्ताह ही पर्याप्त गर्म तापमान होता है जो पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक है। टुंड्रा मिट्टी में कई पोषक तत्वों की भी कमी होती है, जो पौधों के विकास को और कम कर देता है। यहां उगने वाली वनस्पति ने खुद को यहां की स्थितियों के अनुकूल बनाया है।साथ ही यहां मौजूद पशु प्रजातियों ने भी यहां की चरम जलवायु से अनुकूलन कर लिया है। टुंड्रा वन्यजीवों में छोटे स्तनधारी जैसे नॉर्वे लेमिंग्स (Norway lemmings), आर्कटिक हेयर्स (Arctic hares), और आर्कटिक ग्राउंड गिलहरी (Arctic ground squirrels) और बड़े स्तनधारी, जैसे कि कारिबू (Caribou) शामिल है। टुंड्रा में वनस्पति प्रजातियों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन यह भारत की वनस्पति में अहम योगदान देती है। वर्तमान समय में वनों की कटाई, अति-चराई, झूम खेती जैसे कई कारकों ने हमारी वनस्पति प्रजातियों को प्रभावित किया है, तथा इन्हें अतिशीघ्र हल करने की आवश्यकता है।झूम खेती जो कि खेती की एक पारंपरिक विधि है, में किसी क्षेत्र विशेष के जंगलों को आग लगाकर कुछ समय बाद वहां दो-तीन साल तक खेती की जाती थी।
इसके बाद इस क्षेत्र को करीब 10-12 साल तक छोड़ दिया जाता था, तथा इस अंतराल के बाद वहां फिर से वही प्रक्रिया दोहराई जाती थी। किंतु जनसंख्या वृद्धि के साथ यह अंतराल कम होता गया,तथा मृदा क्षरण जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगी, साथ ही मिट्टी की उर्वरता शक्ति में भी कमी आने लगी। हालांकि अब भारत सरकार इस समस्या को हल करने की ओर अग्रसर है, तथा वनों के संरक्षण की आवश्यकता के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कई कदम उठा रही है। नीति आयोग ने यह प्रस्ताव दिया है कि स्थानांतरित खेती के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि को कृषि वानिकी के तहत कृषि भूमि के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।भारत सरकार अब आम नागरिकों को भारत में प्राकृतिक वनस्पति की रक्षा के लिए अपनाए जाने वाले कई उपायों के बारे में शिक्षित कर रही है।

संदर्भ:
https://bit.ly/3QLxxeD
https://bit.ly/2OvPj6k
https://bit.ly/3DrB0Mj

चित्र संदर्भ
1. ग्रीनलैंड में टुंड्रा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. आर्कटिक टुंड्रा क्षेत्रों के नक़्शे को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. भारत में वीरान पड़े क्षेत्रो को दर्शाता एक चित्रण (Global Cycling Adventures)
4. कनाडा में वुंटट नेशनल पार्क को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)



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