लखनऊ की चिकनकारी और ज़रदोज़ी: पूरब का स्वर्णिम हस्तशिल्प

स्पर्शः रचना व कपड़े
14-06-2025 09:23 AM
लखनऊ की चिकनकारी और ज़रदोज़ी: पूरब का स्वर्णिम हस्तशिल्प

लखनऊ, जिसे अपनी नवाबी विरासत, ऐतिहासिक स्मारकों और गंगा-जमुनी संस्कृति के लिए जाना जाता है, एक और विशिष्ट पहचान रखता है जिसने इसे "पूरब का स्वर्ण" की उपाधि दिलाई है - यहाँ की उत्कृष्ट चिकनकारी और ज़रदोज़ी कढ़ाई। भारत के समृद्ध वस्त्र उद्योग में इस शहर का एक अद्वितीय और महत्वपूर्ण स्थान है, जहाँ सदियों से चली आ रही यह कला न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाए हुए है। कपास उत्पादन में भारत की वैश्विक पहचान के बावजूद, लखनऊ ने इन जटिल और सुंदर कढ़ाई शैलियों के माध्यम से अपनी एक अलग पहचान स्थापित की है।
इस लेख में, हमने चिकनकारी और ज़रदोज़ी की उत्पत्ति और भारत में उनके आगमन पर प्रकाश डाला। इसके बाद, हमने उन विशिष्ट कारणों का विश्लेषण किया जिनके कारण लखनऊ इन दोनों कलाओं का एक प्रमुख केंद्र बन गया। फिर, हमने चिकनकारी की नाज़ुक शिल्प कौशल और ज़रदोज़ी की भव्य अलंकरण कला की तकनीकों और उनके महत्व पर विस्तार से चर्चा की।


                                                   
कब और कहाँ से आयीं चिकनकारी और ज़रदोज़ी?
चिकनकारी, जिसका शाब्दिक अर्थ 'कढ़ाई' होता है, की उत्पत्ति के बारे में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह कला फारस से भारत आई और मुगल काल में इसे संरक्षण मिला। विशेष रूप से मुगल बादशाह जहांगीर की पत्नी नूरजहाँ को चिकनकारी को बढ़ावा देने का श्रेय दिया जाता है। लखनऊ में इस कला का विकास 18वीं और 19वीं शताब्दी में अवध के नवाबों के शासनकाल में हुआ, जिन्होंने इसे शाही संरक्षण प्रदान किया।
ज़रदोज़ी, जिसका अर्थ फ़ारसी में 'सोने की कढ़ाई' होता है, भी भारत में प्राचीन काल से मौजूद है। ऋग्वेद में सोने के धागों से बने वस्त्रों का उल्लेख मिलता है, जो इस कला की प्राचीनता को दर्शाता है। मुगल काल में ज़रदोज़ी अपनी चरम सीमा पर थी, जब सोने और चांदी के तारों से शाही वस्त्रों और सजावटी सामानों को अलंकृत किया जाता था। लखनऊ, वाराणसी और हैदराबाद जैसे शहर ज़रदोज़ी के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरे।

किस कारण लखनऊ बना इन कलाओं का केंद्र?
लखनऊ इन दोनों ही उत्कृष्ट कढ़ाई कलाओं का प्रमुख केंद्र बनने के कई कारण हैं। अवध के नवाबों का कला और संस्कृति के प्रति गहरा प्रेम और उदार संरक्षण ने कारीगरों को प्रोत्साहित किया और उन्हें अपनी रचनात्मकता को निखारने का अवसर प्रदान किया। लखनऊ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और कलात्मक माहौल ने भी इन शिल्पों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त, लखनऊ में उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे माल की उपलब्धता और कुशल कारीगरों की पीढ़ियों ने इस शहर को इन विशिष्ट कलाओं का गढ़ बना दिया। आज भी, लखनऊ में इन पारंपरिक तकनीकों का उपयोग करके उत्कृष्ट गुणवत्ता वाले उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जिनकी देश और विदेश में भारी मांग है।

चिकनकारी और ज़रदोज़ी: तकनीकें और उनका महत्व
चिकनकारी: नाज़ुक शिल्प कौशल
चिकनकारी, जिसका अर्थ है 'कढ़ाई', एक सदियों पुरानी हस्तकला है जो अपनी नाज़ुक और जटिल सिलाई के लिए प्रसिद्ध है। इस कला में, पहले कपड़े पर लकड़ी के ब्लॉक से डिज़ाइन छापा जाता है। फिर, कुशल कारीगर विभिन्न प्रकार के लगभग 36 विशिष्ट टाँकों का उपयोग करके इन छापों को जीवंत करते हैं। इनमें टप्पा, बखिया ('शैडो वर्क' जो कपड़े के उल्टी तरफ से किया जाता है और जिसकी छाया सीधी तरफ दिखती है), हूल (बारीक अलग किए गए आईलेट स्टिच), ज़ंजीरा (चेन स्टिच), जाली (खुली जाली जैसा काम जिसमें धागा कपड़े से पूरी तरह नहीं निकाला जाता), और टेपची (लंबा रनिंग स्टिच) प्रमुख हैं। कारीगर कपड़े की बनावट, डिज़ाइन की बारीकियों और वांछित प्रभाव के अनुसार इन टाँकों का चुनाव करते हैं। चिकनकारी मुख्य रूप से हल्के और आरामदायक कपड़ों जैसे मलमल, रेशम, शिफॉन और जॉर्जेट पर सफेद या हल्के रंग के धागों से की जाती है, हालांकि आजकल फैशन के रुझानों के अनुसार रंगीन धागों का भी प्रयोग होने लगा है। इस कढ़ाई में अक्सर फूलों, पत्तियों और बेलों के प्राकृतिक रूपांकनों का उपयोग किया जाता है, जो इस पर फारसी सौंदर्यशास्त्र के गहरे प्रभाव को दर्शाते हैं। तैयार कपड़े को धोकर ब्लॉक प्रिंट के निशान हटा दिए जाते हैं, फिर स्टार्च करके इस्त्री किया जाता है, जिससे यह बाज़ार में बिक्री के लिए तैयार हो जाता है। चिकनकारी के वस्त्र अपनी सुंदरता, आरामदायकता और गर्मियों के लिए उपयुक्तता के कारण बहुत लोकप्रिय हैं।

ज़रदोज़ी: भव्यता और अलंकरण की कला
ज़रदोज़ी, जिसका फ़ारसी में अर्थ 'सोने की कढ़ाई' है, एक अत्यंत अलंकृत और भव्य कढ़ाई शैली है। इस तकनीक में सोने और चांदी के असली या नकली तारों के साथ-साथ मोती, कीमती और अर्ध-कीमती पत्थर, सितारे और अन्य चमकदार तत्वों का उपयोग किया जाता है। ज़रदोज़ी मुख्य रूप से रेशम, मखमल, साटन और ऑर्गेंज़ा जैसे भारी और समृद्ध कपड़ों पर की जाती है, जो इसे एक शाही और शानदार रूप प्रदान करती है। इस कढ़ाई में जटिल फूलदार पैटर्न, ज्यामितीय आकृतियाँ और दरबारी रूपांकन प्रमुखता से दर्शाए जाते हैं।
ज़रदोज़ी की प्रक्रिया में, सबसे पहले कपड़े को एक लकड़ी के फ्रेम पर कसकर बांधा जाता है। फिर, डिज़ाइन को कपड़े पर ट्रेस किया जाता है। कुशल कारीगर एक विशेष प्रकार की सुई का उपयोग करके धातु के तारों और अन्य अलंकरणों को कपड़े पर टाँकते हैं। इस काम में काफ़ी कुशलता, धैर्य और समय लगता है, जिसके परिणामस्वरूप एक उत्कृष्ट और प्रभावशाली कलाकृति तैयार होती है।
ज़रदोज़ी का उपयोग ऐतिहासिक रूप से शाही वस्त्रों, दरबार की सजावट, हाथी के हौदे और धार्मिक वस्त्रों को सजाने के लिए किया जाता था। आज भी, यह दुल्हन के लिबास, उत्सव के परिधान, घर की सजावट की वस्तुओं और फैशन एक्सेसरीज़ में अपनी भव्यता और शानदार उपस्थिति के कारण बहुत लोकप्रिय है। लखनऊ, वाराणसी और कुछ अन्य शहर आज भी ज़रदोज़ी के महत्वपूर्ण केंद्र बने हुए हैं, जहाँ कुशल कारीगर इस पारंपरिक कला को जीवित रखे हुए हैं।
 

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