क्यों मेरठवासियो, धर्मों की सेवा और करुणा ही हमें सच्ची मानवता की राह दिखाती हैं?

विचार II - दर्शन/गणित/चिकित्सा
13-11-2025 09:14 AM
क्यों मेरठवासियो, धर्मों की सेवा और करुणा ही हमें सच्ची मानवता की राह दिखाती हैं?

मेरठवासियो, क्या आपने कभी ठहरकर सोचा है कि धर्मों की सच्ची शक्ति उनके दिखावे, पूजा-पाठ या रीति-रिवाजों में नहीं, बल्कि उनके भीतर समाई करुणा, प्रेम और निःस्वार्थ सेवा की भावना में बसती है? यही वह भाव है जो हमें इंसान बनाता है और यही वह अदृश्य धागा है जो अलग-अलग धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों को एक सूत्र में बाँधता है। हमारी यह धरती अनेक विश्वासों से सजी है कहीं आरती की मधुर ध्वनि गूंजती है, तो कहीं अज़ान की सुकून भरी पुकार सुनाई देती है; कहीं गुरुद्वारे के लंगर में सब एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं, तो कहीं चर्च में मोमबत्ती की लौ के साथ प्रेम और क्षमा की प्रार्थनाएँ की जाती हैं। जब कोई भूखा व्यक्ति गुरुद्वारे में जाकर निःस्वार्थ लंगर का प्रसाद पाता है, जब कोई मुसलमान ज़रूरतमंद को अपना सदका देता है, जब कोई हिंदू “अहिंसा परमो धर्मः” के सिद्धांत पर चलकर हर जीव में ईश्वर को देखता है, या जब कोई ईसाई अपने शत्रु के लिए भी दया और प्रार्थना करता है - तब मानवता अपने सबसे पवित्र रूप में खिल उठती है। इन क्षणों में धर्म अपनी सीमाओं से ऊपर उठकर केवल एक ही सत्य कहता है - “मनुष्य का मनुष्य से प्रेम ही ईश्वर की सच्ची आराधना है।” मेरठ जैसे जीवंत और बहुरंगी शहर में यह संदेश और भी अर्थपूर्ण हो जाता है। यहाँ मंदिरों की घंटियाँ, मस्जिदों की अज़ान, गुरुद्वारों के कीर्तन और चर्च की प्रार्थनाएँ एक साथ मिलकर उस समरसता का संगीत रचती हैं, जो इस नगर की आत्मा में गूँजता है। गलियों में चलते हुए आप पाएँगे कि चाहे कोई सिख लंगर बाँट रहा हो, कोई मुस्लिम फकीर राहगीरों को पानी पिला रहा हो, कोई हिंदू साधु भूखों को भोजन दे रहा हो, या कोई ईसाई नर्स मरीज की सेवा में लगी हो - हर धर्म यहाँ एक ही बात कह रहा है: “दूसरों के दुख को बाँट लेना ही सबसे बड़ी पूजा है।”
इस लेख में हम समझने का प्रयास करेंगे कि कैसे दुनिया के प्रमुख धर्मों ने करुणा, सेवा और दया को अपने जीवन दर्शन का केंद्र बनाया है। सबसे पहले, हम सिख धर्म की ‘सेवा’ की परंपरा पर नज़र डालेंगे, जहाँ निःस्वार्थ सेवा को ईश्वर की आराधना माना गया है। इसके बाद इस्लाम में ‘सदका’ और ‘दान’ की भावना को समझेंगे, जो इंसानियत और समानता का सच्चा प्रतीक है। फिर हम हिंदू धर्म के ‘अहिंसा’ और दया के सार्वभौमिक संदेश की ओर बढ़ेंगे, जिसने भारत को शांति और करुणा का प्रतीक बनाया। इसके बाद ईसाई धर्म के दृष्टिकोण से प्रेम, क्षमा और दया की उस साधना को देखेंगे जो हर इंसान को ईश्वर के निकट लाती है। अंत में, हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि इन सभी शिक्षाओं में एक साझा सूत्र है - मानवता की एकता और करुणा का अमर संदेश, जो मेरठ जैसे बहुसांस्कृतिक नगर की आत्मा में आज भी जीवित है।

सिख धर्म में ‘सेवा’ की परंपरा: निःस्वार्थ सेवा का जीवन दर्शन
सिख धर्म में “सेवा” केवल सामाजिक कर्तव्य नहीं, बल्कि आत्मिक साधना का मार्ग मानी जाती है। गुरु नानक देव जी ने अपने उपदेशों में कहा - “नाम जपो, कीरत करो, वंड छको” - अर्थात् ईश्वर का स्मरण करो, ईमानदारी से जीवन बिताओ और अपनी कमाई का हिस्सा दूसरों से बाँटो। यही शिक्षा सिख धर्म की आत्मा है, जहाँ सेवा केवल कर्म नहीं, बल्कि श्रद्धा और विनम्रता का प्रतीक है। गुरुद्वारों के लंगर इस सिद्धांत की सबसे जीवंत मिसाल हैं, जहाँ कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, लिंग या वर्ग से हो, बिना किसी भेदभाव के बैठकर भोजन कर सकता है। यह परंपरा सिख समाज के उस समरस दर्शन को दर्शाती है, जिसमें सेवा को ईश्वर की आराधना माना गया है। कोविड-19 (Covid-19) महामारी के समय सिख समुदाय ने निःस्वार्थ मानवता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। महाराष्ट्र के नांदेड़ स्थित गुरुद्वारे ने दस सप्ताह में दो मिलियन से अधिक लोगों को भोजन कराया। दिल्ली, पंजाब और विदेशों में कई गुरुद्वारे अस्पतालों और ऑक्सीजन (Oxygen) लंगरों में परिवर्तित हो गए। यहाँ तक कि अनेक श्रद्धालुओं ने अपने स्वर्ण दान को पिघलाकर जरूरतमंदों के उपचार में लगा दिया। यह सब केवल सहायता नहीं, बल्कि आस्था का जीवंत रूप था। इसी भावना का प्रतीक हैं बलजींदर सिंह, जो पिछले चालीस वर्षों से पंजाब की एक मस्जिद में श्रद्धालुओं के जूते साफ करते हैं। वे कहते हैं, “मेरे लिए धर्म नहीं, मानवता सबसे बड़ा सत्य है।” सिख धर्म में सेवा दूसरों के लिए किए गए कार्यों से कहीं अधिक है; यह स्वयं के भीतर के अहंकार को मिटाने की प्रक्रिया है। सेवा का यही रूप हर कर्म को भक्ति में परिवर्तित करता है और जीवन को आध्यात्मिक ऊँचाई प्रदान करता है।

इस्लाम में दान (सदका) और करुणा का महत्व: पैग़ंबर की हदीसों के संदेश
इस्लाम में “सदका” और “ज़कात” को करुणा, सामाजिक न्याय और इंसानियत की नींव माना गया है। पैग़ंबर मुहम्मद ने कहा, “दान विपत्ति को रोकता है और क़ियामत के दिन मोमिन का साया बनता है।” इस्लाम का यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि जो व्यक्ति दूसरों की मदद करता है, वह न केवल समाज की भलाई में सहभागी बनता है, बल्कि अपनी आत्मा को भी शुद्ध करता है। इस्लाम में दान केवल आर्थिक सहयोग नहीं है; यह भावना का प्रतीक है, जहाँ देने का उद्देश्य आत्मिक संतुलन और ईश्वर की प्रसन्नता होती है। हदीसों में कहा गया है कि हर दिन जब सूरज उगता है, तो इंसान के हर जोड़ पर एक दान बनता है। किसी की सहायता करना, रास्ते से काँटा हटाना, एक मुस्कान बाँटना या किसी को प्रोत्साहित करना - ये सब सदका के रूप माने गए हैं। इस विचार से यह स्पष्ट होता है कि दान केवल धन का लेन-देन नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना का विस्तार है। इस्लाम हमें यह सिखाता है कि इंसान की असल महानता उसकी नीयत में होती है, न कि उसके पास मौजूद संपत्ति में। सदका आत्म-शुद्धि का माध्यम है, जो लोभ, अहंकार और स्वार्थ को मिटाकर व्यक्ति को ईश्वर के और समीप लाता है। जब एक मुसलमान अपने जरूरतमंद भाई की सहायता करता है, तब वह “उम्मा” अर्थात साझा मानवता की उस भावना को जीवंत करता है, जो इस्लाम की आत्मा में रची-बसी है। आज के समय में, जब समाज असमानता और विभाजन की दीवारों से जूझ रहा है, सदका का यह संदेश हमें याद दिलाता है कि देने वाला हाथ तभी पवित्र होता है जब उसके पीछे नीयत सच्ची और मन दयालु हो।

हिंदू धर्म में ‘अहिंसा’ और दया का सार्वभौमिक संदेश
हिंदू धर्म का मूल दर्शन इस विचार पर आधारित है कि समस्त सृष्टि में एक ही चेतना प्रवाहित है। इसी कारण “अहिंसा परमो धर्मः” को केवल एक उपदेश नहीं, बल्कि जीवन की सर्वोच्च नीति माना गया है। अहिंसा का अर्थ केवल हिंसा से दूर रहना नहीं है, बल्कि विचार, वाणी और कर्म में भी करुणा, संयम और सहानुभूति का अभ्यास करना है। हिंदू दर्शन में यह विश्वास गहराई से जुड़ा है कि ईश्वर हर जीव में वास करता है, इसलिए किसी भी जीवन को आहत करना, ईश्वरीय उपस्थिति का अपमान है। महात्मा गांधी ने इसी सिद्धांत को अपने जीवन का आधार बनाया और यह दिखाया कि बिना हिंसा के भी सत्य की रक्षा और परिवर्तन संभव है। भगवान स्वामीनारायण ने भी अपने अनुयायियों को सिखाया कि मोक्ष की प्राप्ति अहिंसा और दया के पालन से ही संभव है। इसी दृष्टि ने भारत को विश्व में शांति और सहअस्तित्व का प्रतीक बनाया। हिंदू शास्त्रों में पशु, वृक्ष, पर्वत और नदियों तक में दिव्यता की स्वीकृति इस सार्वभौमिक दृष्टिकोण का प्रमाण है। यह न केवल आध्यात्मिक, बल्कि पर्यावरणीय सोच भी है, जहाँ प्रकृति और मानव एक दूसरे के पूरक हैं। जब हम किसी वृक्ष को काटने से पहले ठहर जाते हैं या किसी जीव को कष्ट देने से बचते हैं, तब हम अहिंसा को अपने जीवन में उतार रहे होते हैं। आज के समय में जब कटुता, हिंसा और असहिष्णुता बढ़ती जा रही है, हिंदू धर्म का यह संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है - कि सच्ची शक्ति विनम्रता में और सच्चा धर्म दया में निहित है।

ईसाई दृष्टिकोण से करुणा और दया: प्रेम की सच्ची साधना
ईसाई धर्म में प्रेम और करुणा को ईश्वर की सबसे महान देन माना गया है। यीशु मसीह ने अपने उपदेशों में कहा, “अपने शत्रु से भी प्रेम करो और जो तुमसे घृणा करता है उसके लिए प्रार्थना करो।” यह संदेश न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि मानवता के गहरे अर्थों में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यीशु ने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि सच्चा प्रेम केवल शब्दों में नहीं, बल्कि कर्म में प्रकट होता है। उन्होंने ज़कियस जैसे पापी को भी प्रेम से अपनाया और उसे सुधार का अवसर दिया। उन्होंने समाज के तिरस्कृत लोगों में ईश्वर की झलक देखी, और दिखाया कि करुणा हर व्यक्ति को बदल सकती है। बाइबिल (Bible) के पात्र बोअज़ (Boaz) और डॉर्कस (Dorcas) इस विचार के सशक्त उदाहरण हैं, जिन्होंने अपने छोटे-छोटे दयालु कर्मों से समाज में गहरा परिवर्तन लाया। ईसाई परंपरा में करुणा को दुर्बलता नहीं, बल्कि साहस का रूप माना गया है। किसी को क्षमा करना आसान नहीं होता, लेकिन यही मनुष्य को ईश्वर के और निकट लाता है। आधुनिक युग में, जब लोग असहमति को शत्रुता समझने लगे हैं और “कैंसल कल्चर” (Cancel Culture) का चलन बढ़ गया है, तब यीशु का यह संदेश पहले से अधिक प्रासंगिक हो जाता है - कि प्रेम ही सबसे बड़ा प्रतिरोध है। ईसाई धर्म यह सिखाता है कि प्रेम कोई भावना मात्र नहीं, बल्कि एक सक्रिय साधना है, जिसे हर दिन जीना पड़ता है। यही प्रेम जब समाज में फैलता है, तो मनुष्य और मनुष्य के बीच की दूरी मिट जाती है, और पृथ्वी सच में “भगवान के राज्य” का रूप लेने लगती है।

मानवता का साझा सूत्र: सभी धर्मों में करुणा की एकता
जब हम सिख धर्म की सेवा, इस्लाम की दानशीलता, हिंदू धर्म की अहिंसा और ईसाई धर्म की प्रेमपूर्ण करुणा को एक साथ देखते हैं, तो स्पष्ट होता है कि सभी धर्म एक ही दिशा में ले जाते हैं - मानवता और करुणा की ओर। गुरु नानक का “सर्बत दा भला”, पैग़ंबर मुहम्मद का “सदका”, महात्मा गांधी का “अहिंसा” और यीशु मसीह का “लव थाय नेबर” (Love Thy Neighbor - अपने पड़ोसी से प्रेम करो) - ये चारों शिक्षाएँ एक ही सूत्र में बंधी हैं। प्रत्येक धर्म सिखाता है कि दूसरों के दुःख को अपना समझना ही सच्ची भक्ति है। करुणा कोई सैद्धांतिक विचार नहीं, बल्कि व्यवहार में उतरा हुआ प्रेम है, जो समाज को एकता के धागे में बाँधता है। आज जब दुनिया विभाजन, असहिष्णुता और आत्मकेंद्रिता से ग्रस्त है, तब धर्मों का यह साझा संदेश हमें यह याद दिलाता है कि इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है। सेवा, दान, अहिंसा और प्रेम वे चार स्तंभ हैं, जो समाज को सुदृढ़ और जीवन को अर्थपूर्ण बनाते हैं। यही भाव मेरठ जैसी ऐतिहासिक नगरी की आत्मा में भी बसता है - जहाँ मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च एक ही संदेश देते हैं: “ईश्वर एक है, और उसका स्वरूप करुणा है।”

संदर्भ-
https://tinyurl.com/yjkpfyd3 
https://tinyurl.com/43wpmw2h 
https://tinyurl.com/5eeu3cyk 
https://tinyurl.com/2xveps54 



Definitions of the Post Viewership Metrics

A. City Readerships (FB + App) - This is the total number of city-based unique readers who reached this specific post from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App.

B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.

C. Messaging Subscribers - This is the total viewership from City Portal subscribers who opted for hyperlocal daily messaging and received this post.

D. Total Viewership - This is the Sum of all our readers through FB+App, Website (Google+Direct), Email, WhatsApp, and Instagram who reached this Prarang post/page.

E. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.