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विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद का महत्व आज भी यथावत बना हुआ है। इसकी उत्पत्ति लगभग 5,000 साल पहले भारत में हुई थी। इसे अक्सर सभी चिकित्सा प्रणालियों की जननी भी कहा जाता है। आयुर्वेद में कहा गया है कि स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती, मन, शरीर और आत्मा के मध्य एक महीन संतुलन पर आधारित है। इसका मुख्य लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देना है, न कि बीमारियों से लड़ना। लेकिन विशिष्ट स्वास्थ्य समस्याओं का उपचार इससे किया जा सकता है। आयुर्वेद रोकथाम पर विशेष बल देता है, यह एक सुखद जीवन के लिए स्वच्छ विचार, श्रेष्ठ जीवनशैली और जड़ी-बूटियों के उपयोग में संतुलन को प्रोत्साहित करता है। आयुर्वेद व्यक्ति को यह समझने में सहायता करता है कि वह अपनी शारीरिक संरचना के अनुरूप शरीर, मन और चेतना में संतुलन कैसे बनाएं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक संरचना भिन्न-भिन्न होती है।
प्रत्येक मानवीय शरीर की रचना पंचतत्वों (आकाश, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी) से मिलकर हुई है। किंतु फिर भी इनमें प्रकृति या स्वभाव की भिन्नता देखने को मिलती है, आयुर्वेद में जिसका मूल कारण त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) को बताया गया है। ये दोष मानवीय शरीर और मन में पायी जाने वाली जैविक ऊर्जा हैं। जो समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी एक व्यक्तिगत भिन्नता प्रदान करते हैं। दोषों की उत्पत्ति पंचतत्वों एवं उनसे संबंधित गुणों के माध्यम से होती है। वात आकाश और वायु, पित्त अग्नि और जल तथा कफ पृथ्वी और जल से मिलकर बना है।
1. वात
शरीर में वात के मुख्य स्थान बृहदान्त्र, जांघों, हड्डियों, जोड़ों, कान, त्वचा, मस्तिष्क और तंत्रिका ऊतक हैं। शुष्क, शीत, प्रकाश, मिनट और गति आदि वात के प्रमुख गुण हैं। वात शरीर में होने वाली सभी प्रकार की गतियों को नियंत्रित करता है, इसलिए इसे दोषों में सबसे श्रेष्ठ दोष माना जाता है। असंतुलित और अनियमित भोजन, मदपान, धूम्रपान, अनियमित दिनचर्या वात को असंतुलित करता है। परिणामस्वरूप पेट फूलना, गठिया, आमवात, शुष्क त्वचा और कब्ज आदि रोग होने लगते हैं।
वात को संतुलित रखने के लिए शांतिपूर्ण वातावरण में वात-संतुलित आहार लें। आरोग्यजनक और मननशील गतिविधियों में संलग्न रहें। रोजाना नियमित दिनचर्या का पालन करें, जिसमें रोज ध्यान लगाना, कठोर व्यायाम करना और समय पर सोना शामिल है।
2. पित्त
यह शरीर में पाचन और चयापचय की ऊर्जा है, जो वाहक पदार्थों जैसे कि कार्बनिक अम्ल, हार्मोन, एंजाइम और पित्तरस के माध्यम से कार्य करता है। ऊष्मा, नमी, तरलता, तीखापन और खट्टापन इसके गुण हैं। ऊष्मा इसका प्रमुख गुण है। शरीर में पित्त के मुख्य स्थान छोटी आंत, पेट, यकृत, प्लीहा, अग्न्याशय, रक्त, आंखें और पसीना हैं। पित्त जटिल खाद्य अणुओं के टूटने के माध्यम से शरीर को गर्मी और ऊर्जा प्रदान करता है तथा शारीरिक और मानसिक रूपांतरण और परिवर्तन से संबंधित सभी प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है। पित्त के असंतुलित होने पर शरीर में संक्रमण, सूजन, चकत्ते, अल्सर, असंतोष और बुखार होने लगता है।
पित्त को असंतुलित करने वाले कारक
• पित्त उत्तेजक भोजन करना।
• क्रोधावस्था में भोजन करना।
• कॉफी, काली चाय और शराब का आवश्यकता से अधिक सेवन।
• सिगरेट पीना।
• आवश्यकता से अधिक काम करना।
• अत्यधिक प्रतिस्पर्धी बनना
पित्त को संतुलित करने वाले कारक
• पित्त संतुलित आहार लें।
• शांतिपूर्ण वातावरण में भोजन करें।
• कृत्रिम उत्तेजक पदार्थों को सेवन न करें।
• शांत गतिविधियों में संलग्न रहें।
• ध्यान लगाना, योग करना, तैरना, चलना इत्यादि को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएं।
3. कफ
कफ एक तरल पदार्थ है, जो शरीर में भारीपन, शीतलता, नरमी, कोमलता, मंदता, चिकनाई और पोषक तत्वों के वाहक के रूप में कार्य करता है। शरीर में कफ के मुख्य स्थान छाती, गला, फेफड़े, सिर, लसीका, वसायुक्त ऊतक, संयोजी ऊतक, स्नायुबंधन और नस हैं। शारीरिक रूप से कफ हमारे द्वारा ग्रहण किए गए भोजन को नमी प्रदान करता है, ऊतकों का विस्तार करता है, जोड़ों को चिकनाई देता है, ऊर्जा को संग्रहित करता है तथा शरीर को तरलता प्रदान करता है। मनोवैज्ञानिक रूप से, कफ स्नेह, धैर्य, क्षमा, लालच, लगाव और मानसिक जड़ता को नियंत्रित करता है। कफ के असंतुलन की स्थिति में वजन घटना या मोटापा बढ़ना, रक्त-संकुलन जैसे विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
कफ को असंतुलित करने वाले कारक
• पित्त उत्तेजक भोजन करना।
• आवश्यकता से अधिक भोजन करना।
• शांत, नम जलवायु में बहुत अधिक समय बिताना
• शारीरिक गतिविधि में संलग्न न होना
• अधिकांश समय घर के अंदर बिताना
• बौद्धिक चुनौतियों से बचना
कफ को संतुलित करने वाले कारक
• आनंदायी वातावरण में भोजन करें
• आनंदपूर्ण आरामदायी जीवन जीएं
• दैनिक जीवन में अनासक्ति पर ध्यान दें।
• ध्यान और लेखन की तरह आत्मनिरीक्षण गतिविधियों के लिए समय दें।
• अच्छा बनने और लाभ प्राप्त करने के मध्य अंतर करें।
• जल्दी सोएं तथा प्रातः जल्दी उठें।
अपनी संतुलित मात्रा में दोष शरीर के लिए लाभदायक होते हैं, जबकि इनकी विकृति मानव शरीर में रोगोत्पत्ति का कारण बनती है अर्थात इनकी साम्यावस्था ही स्वास्थ्य का प्रतीक है और इसमें परिवर्तन होना विकार का कारण है। आयुर्वेद की संपूर्ण चिकित्सा प्रणाली हमारे इन तीन दोषों पर आधारित है। आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली पूर्णतः प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, इसलिए इनके विषय में सूक्ष्म जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है। जब आयुर्वेद में दिए गए उपचारों का वैज्ञानिक निरीक्षण किया गया तो इसमें कुछ उपचार काफी प्रभावी पाए गए किंतु कुछ उपचारों की वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो पायी है। कैंसर जैसी बीमारियों में भी आयुर्वेद के सकारात्मक प्रभाव देखे गए हैं।
अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन चेतावनी देता है कि कुछ आयुर्वेदिक उत्पादों को धातुओं की उपस्थिति संभावित रूप से हानिकारक बनाती है। 2015 के प्रकाशित सर्वेक्षण से पता चला है कि आयुर्वेदिक उत्पादों का उपयोग करने वाले लोगों के रक्त में सीसे और पारे की मात्रा बढ़ी है। अतः आयुर्वेदिक उत्पादों का उपयोग करने से पूर्व चिकित्सीय सलाह अवश्य ले लें।
संदर्भ:
1. https://www.ayurveda.com/resources/articles/ayurveda-a-brief-introduction-and-guide
2. https://www.webmd.com/balance/guide/ayurvedic-treatments#1
3. https://www.webmd.com/balance/guide/ayurvedic-treatments#2
4. https://nccih.nih.gov/health/ayurveda/introduction.htm (Pros and Cons)
5. https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/S2225411016000250 (What is ayurveda)
6. http://ayush.gov.in/research