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मेरठ और इसके आस-पास आपको कई दर्शनीय स्थान देखने को मिल सकते हैं, जिनमें से श्री दिगंबर जैन बड़ा मंदिर भी एक है। यह मंदिर हस्तिनापुर, उत्तर प्रदेश में स्थित एक जैन मंदिर परिसर है, जोकि यहां का सबसे पुराना मंदिर है और 16वें जैन तीर्थंकर श्री शांतिनाथ को समर्पित है। इस मंदिर को 1801 में बनाया गया था। श्री शांतिनाथ का जन्म हस्तिनापुर में इक्ष्वाकु वंश में हुआ तथा वे राजा विश्वसेन और रानी अचिरा के पुत्र थे। भारतीय कैलेंडर के अनुसार उनका जन्म ज्येष्ठ कृष्ण महीने के तेरहवें दिन हुआ था। जब वे 25 साल के थे तब उनको सिंहासन सौंपा गया किंतु बाद में वे एक जैन साधु बन गये और तपस्या करने लगे। जैन मान्यताओं के अनुसार, वह एक ऐसे सिद्ध, स्वतंत्र आत्मा बने, जिसने अपने सभी कर्मों को नष्ट कर दिया था। श्री शांतिनाथ को हिरण या मृग के साथ आमतौर पर बैठे या खड़े ध्यान मुद्रा में दर्शाया जाता है। हर तीर्थंकर के लिए एक विशिष्ट प्रतीक होता है, जिससे उपासक तीर्थंकरों की मूर्तियों की पहचान कर पाने में सक्षम हो पाता है। श्री शांतिनाथ के प्रतीक मृग को आमतौर पर उनके पैरों की ओर उत्कीर्णित किया जाता है। ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के साथ, श्री शांतिनाथ उन पांच तीर्थंकरों में से एक हैं, जो जैन भक्तों को सबसे अधिक आकर्षित करते हैं। तीसरी शताब्दी ईस्वी में श्वेतांबर के प्रमुख आचार्य मणादेवसूरी द्वारा संकलित शांतिसत्व के अनुसार, श्री शांतिनाथ के मात्र पाठ से सभी बुरे भावों की समाप्ति हो जाती है, जीवन में शांति आती है और समस्याओं का निवारण होता है। शांतिसत्व को चार सबसे सुंदर लिखित छंदों में से एक माना जाता है।
श्री दिगंबर जैन मंदिर में शांतिनाथ की मूर्ति को पद्मासन मुद्रा में स्थापित किया गया है। इस परिसर का त्रिमूर्ति मंदिर 12वीं शताब्दी का पुराना मंदिर है, जहां केंद्र में श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति, एक ओर श्री महावीर स्वामी की मूर्ति तथा दूसरी ओर श्री शांतिनाथ की मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थापित है। कायोत्सर्ग एक योगिक आसन या मुद्रा है, जो जैन ध्यान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसका शाब्दिक अर्थ ‘शरीर को सुविधा या आराम से अलग करना’ है। एक तीर्थंकर को या तो योग मुद्रा में बैठे दिखाया जाता है या फिर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा दिखाया जाता है। छवियों को अक्सर धातु से या तो संगमरमर से या फिर या अन्य उच्च पॉलिश (Polish) पत्थर से उकेरा जाता है। इस प्रकार या तो खड़े रहना या अन्य आसन में स्थिर रहना आत्मा के वास्तविक स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करने को दर्शाता है। इस मुद्रा में मूर्ति के पैरों के बीच चार अंगुल का अंतराल होता है।
शरीर को इस प्रकार से स्थिर किया जाता है कि दोनों भुजाएँ नीचे की ओर लटकती रहती हैं। समस्त अंगों की सक्रियता को समाप्त करके श्वास लेना या प्राणायाम करने पर कायोत्सर्ग मुद्रा बनती है। इस प्रकार से कायोत्सर्ग ध्यान की अवस्था को भी संदर्भित करता है। कायोत्सर्ग दिगंबर भिक्षु के 28 प्राथमिक गुणों तथा एक जैन तपस्वी के 6 मूल आवश्यकताओं में से एक है। कहा जाता है कि इस मुद्रा से जैन धर्म के तीर्थंकरों को मोक्ष प्राप्त होता है।