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मेरठ पीतल से निर्मित साज़ का अंतरराष्ट्रीय गढ़ है । पूरे देश के कोने-कोने में इनकी पहुंच का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। इतनी मांग और शोहरत के बावजूद, यह आज भी मेरठ की तंग सकरी गलियों में ही निर्मित हो रहे हैं। आजादी के बाद से आज तक शादियों में बारात के आगे बजाए जाने वाले इन साज़ों का निर्माण जली कोठी नाम की पतली गली के आसपास की फैक्ट्रियों में होता है। उत्पादित सामग्री की जांच के लिए कोई साधन नहीं है, केवल इन साज़ों को बजाने वाले साज़िंदे इन्हे बजा कर,कानों से सुन कर ही इनकी कमी बता सकते हैं। ज्यादातर मामलों में गलतियां पकड़ी ही नहीं जा पाती। पीतल के यह साज़ और इन्हें प्रयोग करने वाले बैंड के बारे में आमतौर पर सभी जानते हैं। लेकिन इस बारे में जानकारी लोगों में कम है कि मेरठ में कितनी कुशलता से यह साज़ बनाए जाते हैं। यहां की नादिर अली एंड कंपनी तुरही (Trumpet) और यूफोनियम (Euphonium) बनाने के लिए मशहूर हैं। बशीर भाई और जली कोठी के साबिर अली का तुरही बनाने में काफी नाम है। इन वाद्यों की खासियत है कि पूरे ऑर्केस्ट्रा (Orchestra) में यह बहुत तेज आवाज में बजते हैं और बहुत दूर से सुनाई दे जाते हैं। शादी ब्याह के अलावा इनका प्रयोग विशेष आयोजनों खेल और राष्ट्रीय दिवस की परेड या राष्ट्रगान में सेना में कार्यरत संगीतज्ञ द्वारा किया जाता है। एक तरफ उत्सव है तो दूसरी तरफ शहीदों की अंतिम विदाई की धुन में भी यह बजाए जाते हैं।
130 साल पुराना इतिहास
1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजाने वाले मंगल पांडे की मूर्ति के ठीक सामने स्थित जली कोठी गली बैंड बाजे का व्यापार करने वाली दुकानों से भरी हुई है। सभी तरह के साज़ और ड्रम यहां बनते हैं। साज़ों के अलावा यहां साज़ों को ठीक करने वाले कारीगर और बैंड वालों की पोशाक सिलने वाले दर्जी भी रहते हैं। साज़ों की आवाज और बैंड वालों की चमचमाती रंगीन पोशाक का जादू बड़ी से बड़ी बारात की रौनक बढ़ाता है। ब्रास बजा: स्टोरीज फ्रॉम दि वर्ल्ड ऑफ़ वेडिंग बैंड्स (Brass Baja : Stories from the World of Wedding Bands) के लेखक ग्रेग बूथ (Greg Booth) ने लिखा है कि इन बैंड्स में विदेशी वाद्यों को देसी कलेवर में ढालने की अद्भुत ताकत है। मेरठ 1885 से इस व्यापार से जुड़ा है, जब नादिर अली, ब्रिटिश सेना के एक संगीतकार ने अपने भाई के साथ ब्रास वाद्यों का आयात शुरू किया। 1920 में इस कंपनी ने भारत में साज़ बनाने शुरू किए। कोठी अटानस (Atanas) में बड़ी फैक्ट्री खोली गई। कुछ दशकों बाद छोटे-छोटे और भी प्रतिस्पर्धी बाजार में आ गए, जो जली कोठी गली में नादिर अली एंड कंपनी के पीछे बस गए।
नादिर अली एंड कंपनी को दूसरे विश्व युद्ध के समय जबरदस्त मुनाफा हुआ, जब यूरोप से सामान की लदान रुक गई। कंपनी ने होमगार्ड के लिए पीतल की सीटियां और बिगुल 1 दिन में 200 की दर से बनाने शुरू किए। 1947 में सियालकोट ने मेरठ को टक्कर दी लेकिन विभाजन के बाद नादिर अली और जली कोठी के उनके पड़ोसियों ने भारतीय बाजार पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया। आजकल इस फार्म को 78 साल के आफताब अहमद, एक भौतिकी स्नातक, संभाल रहे हैं, जिनके कान दूर से साज़ की आवाज़ जांच लेते हैं। इसके लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। टर्की की एक फैक्ट्री में उन्होंने इस बारे में 1959 में गहरा अध्ययन किया। आज नादिर अली एंड कंपनी 11 प्रकार के ब्रास के साज़ बनाते हैं। इन्होंने बहुत से अंतरराष्ट्रीय मुकाबले भी जीते। दुनिया की सेनाओं, जिनमें यूके की रॉयल नेवी (Royal Navy of UK) और सऊदी अरब की रॉयल गार्ड (Royal Gaurd of Saudi Arabia) शामिल हैं, में इनके बनाए बिगुल बजते हैं।