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हमारे जीवन में नृत्य की बहुत अहम भूमिका है। प्राचीन काल से ही समाज में अनेकों प्रकार के लोकनृत्यों का अस्तित्व रहा है, जब मानव का नामोनिशन तक नहीं था। माना जाता है कि नृत्य और रंगमंच की कला का कार्यभार भगवान ब्रह्मा ने संभाला था और इस प्रकार ब्रह्मा ने अन्य देवताओं की सहायता से नाट्य वेद की रचना की। बाद में भगवान ब्रह्मा ने इस वेद का ज्ञान पौराणिक ऋषि भरत को दिया, और उन्होंने इस शिक्षण को नाट्यशास्त्र रूप में रच दिया। भरत मुनि की 'नाट्य शास्त्र' नृत्यकला को प्रथम प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसको 'पंचवेद' भी कहा जाता है। इस ग्रंथ का संकलन संभवत: दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व का है, हालांकि इसमें उल्लेखित कलाएं काफी पुरानी हैं। इसमें 36 अध्याय हैं, जिनमें रंगमंच और नृत्य के लगभग सभी पहलुओं को दर्शाया गया है।
नृत्य या अभिव्यक्ति नृत्य, इसमें एक गीत के अर्थ को व्यक्त करने के लिए अंग, चेहरे का भाव, और हाथ के इशारे एवं मुद्राएं शामिल होते हैं। नाट्यशास्त्र में ही भाव और रस के सिद्धांत प्रस्तुत किया था और सभी मानवीय भावों को नौ रसों में विभाजित किया गया – श्रृंगार (प्रेम); वीर (वीरता); रुद्र (क्रूरता); भय (भय); बीभत्स (घृणा); हास्य (हंसी); करुण (करुणा); अदभुत (आश्चर्य); और शांत (शांति)। किसी भी नृत्य का उद्देश्य रस को उत्पन्न करना होता है, जिसके माध्यम से नर्तकी द्वारा भावों को दर्शको तक पहुंचाया जाता है। नाट्यशास्त्र में वर्णित भारतीय शास्त्रीय नृत्य तकनीक दुनिया में सबसे विस्तृत और जटिल तकनीक है। इसमें 108 करण, खड़े होने के चार तरीके, पैरों और कूल्हों के 32 नृत्य-स्थितियां, नौ गर्दन की स्थितियां, भौंहों के लिए सात स्थितियां, 36 प्रकार के देखने के तरीके और हाथ के इशारे शामिल हैं जिसमें एक हाथ के लिए 24 और दोनों हाथों के लिए 13 स्थितियां दर्शाई गई है।
नाट्यशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार नृत्यकला की दो शैलियां होती हैं - तांडव तथा लास्य। तांडव नृत्य में संपूर्ण खगोलीय रचना एवं इसके विनाश की एक लयबद्ध कथा को नृत्य के रूप में दर्शाया गया है। जबकि लास्य नृत्य का आरंभ देवी पार्वती से माना जाता है। तांडव नृत्य में दो भंगिमाएँ होती हैं- रौद्र रूप एवं आनंद रूप। रौद्र रूप काफी उग्र होता है और जबकि तांडव का दूसरा रूप आनंद प्रदान करने वाला होता है। माना जाता है कि शिव के रौद्र तांडव से विनाश होता है और आनंदरूपी तांडव से ही सृष्टि का उत्थान होता है। इस रूप में तांडव नृत्य का संबंध सृष्टि के उत्थान एवं पतन दोनों से है। शिव सिद्धान्त परंपरा में, शिव को नटराज ("नृत्य का राजा") के रूप में नृत्य का सर्वोच्च स्वामी माना जाता है। नटराज, शिव का दूसरा नाम माना जाता है। वस्तुत: नटराज के रूप में शिव एक उत्तम नर्तक तथा सभी कलाओं के आधार स्वरूप हैं। नटराज की मूर्ति में नृत्य के भावों एवं मुद्राओं का समावेश है। माना जाता है कि शिव ने ऋषि भरत को तांडव अपने भक्त तांडु के माध्यम से दिखाया था। कई अन्य विद्वानों का अलग मत भी है, उनके अनुसार तांदु खुद रंगमंच पर कार्य करते होंगे या लेखक होंगे और उन्हें बाद में नाट्य शास्त्र में शामिल किया गया। इसके साथ ही उन्होंने देवी पार्वती के लास्य नृत्य की विधा भी ऋषि भरत को सिखाई थी। लास्य महिलाओं द्वारा किया जाने वाला एक नृत्य है, जिसमें हाथ मुक्त रहते हैं और इसमें भाव को प्रकट करने के लिये अभिनय किया जाता हैं, जबकि तांडव अभिनय नहीं किया जाता है। बाद में शिव के आदेश पर मुनि भरत ने इन नृत्य विधाओं को मानव जाति को सिखाया। यह भी विश्वास किया जाता है कि ताल शब्द की व्युत्पत्ति तांडव और लास्य से मिल कर ही हुई है।
भगवान शिव के अलावा हिन्दू धर्मग्रंथ में विभिन्न अवसरों का भी वर्णन है, जब अन्य देवताओं द्वारा तांडव किया था। भगवान श्रीकृष्ण जी ने द्वापर युग में कालिया नाग के सिर पर तांडव नृत्य किया था, जिसे कृष्ण तांडव का नाम दिया गया है। इसके अलावा आनंद, त्रिपुरा, संध्या, समारा, काली, उमा, गौरी भी तांडव के प्रकार हैं। कथक नृत्य में आमतौर पर तीन प्रकार के तांडवों का उपयोग किया जाता है: कृष्ण तांडव, शिव तांडव और रावण तांडव, लेकिन कभी-कभी इसमें चौथे प्रकार के तांडव अर्थात कालिका तांडव, का भी उपयोग किया जाता है। मणिपुरी नृत्य में नृत्य को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है: तांडव (आमतौर पर शिव, शक्ति या कृष्ण द्वारा रौद्र रूप से लिया जाता है) और लास्य (बेहद कोमल, स्वभाविक एवं प्रेमपूर्ण और आमतौर पर राधा और कृष्ण की प्रेम कहानियों को दर्शाता है)।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार लास्य नृत्य देवी पार्वती ने प्रारंभ किया। इसमें नृत्य की मुद्राएं बेहद कोमल स्वाभाविक और प्रेमपूर्ण होती हैं। लास्य नृत्य में श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की जाती है। यह महिलाओं के नृत्य से जुड़ा हुआ है क्योंकि पार्वती ने यही नृत्य बाणासुर की पुत्री को सिखाया। धीरे-धीरे ये नृत्य युगों और कल्पों को पार कर सर्वत्र फैल गए। लास्य मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं: श्रीखंड, लता, पिंडी तथा भिदेक। संगीत रत्नाकर ने इस नृत्य शैली को कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया है जिसमें कई प्रकार के नृत्य-स्थितियां या डांस स्टेप (Dance Step) होते हैं। लास्य में 10 विभिन्न प्रकार की नृत्य-स्थितियों का वर्णन हमें देखने को मिलता है, जो कि निम्नवत हैं-
चायली
चायलीबाड़ा
उरोजना
लोधी
सुक
धासका
अंगहार
ओयरक
विहास
मन
सभी शास्त्रीय नृत्य या तो तांडव से प्रेरित हैं या लास्य से। तांडव में नृत्य की तीव्र प्रतिक्रिया है, वहीं लास्य मंथर और सौम्य है। वर्तमान में शास्त्रीय नृत्य से संबंधित जितनी भी विधाएं प्रचलित हैं। वह तांडव और लास्य नृत्य की ही देन हैं।