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भारत के अनेकों मंदिर ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़े हुए हैं तथा ऐसा ही एक मंदिर श्री औघड़नाथ शिव मन्दिर भी है, जो भगवान शिव को समर्पित है। श्री औघड़नाथ शिव मन्दिर, उत्तर भारत के प्राचीन शहरों में से एक, मेरठ में स्थित है तथा धार्मिक महत्व के साथ-साथ ऐतिहासिक महत्व भी रखता है। मंदिर की स्थापना के समय के बारे में अभी कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन माना जाता है कि, सन् 1857 से पहले भी यह मंदिर एक ख्याति प्राप्त वंदनीय स्थल के रूप में विद्यमान था। आज इस मंदिर में लाखों लोग दर्शन करने पहुंचते हैं तथा विशेष अवसरों जैसे फाल्गुन और श्रावण माह में यहां भक्तों का तांता लगा रहता है। ऐसा विश्वास है कि, भगवान औघड़नाथ के दर्शन से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। विभिन्न प्रकार के अवसरों जैसे- जन्माष्टमी, अक्षय तृतीया, शिवरात्रि पर्व कांवड़ जलाभिषेक, प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम दिवस इत्यादि, पर भव्य समारोहों का आयोजन किया जाता है तथा समय-समय पर देश के महान संतों, उपदेशकों, कथावाचकों द्वारा प्रवचन, भजन-संध्या आदि का कार्यक्रम भी होता रहता है। मंदिर की संरचना के बारे में बात करें तो, मंदिर के बाहर ही गोपुरम (Gopuram) मुख्य आकर्षणों में से एक है। यहां पश्चिमी, पूर्वी, उत्तरी और दक्षिणी गोपुरम (Gopuram) मौजूद हैं, जिनमें से पश्चिमी गोपुरम सबसे पुराना गोपुरम है। माना जाता है कि, पश्चिमी गोपुरम का आधार वल्लला (Vallala) महाराज ने बनवाया था, जबकि अन्य गोपुरमों का कार्य विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के संरक्षण में हुआ। उन्होंने मंदिर में सौ स्तंभों और हजार स्तंभों वाले हॉल (Hall) का निर्माण भी करवाया।
मंदिर के सम्बंध में किंवदंती है कि, यहां मौजूद 'शिवलिंग' अपने आप उभरा है, इसलिए अपनी स्थापना के बाद से यह भगवान शिव के अनुयायियों को आकर्षित करता रहा है। इस शिवलिंग की पूजा-अर्चना का कार्य प्राचीन काल से होता आ रहा है तथा स्थानीय पुजारियों के अनुसार, महान मराठा शासकों ने भी मंदिर के शिवलिंग की पूजा-अर्चना की। वे किसी भी युद्ध में जाने से पहले मंदिर में आते तथा अपनी जीत के लिए भगवान शिव की उपासना करते। मंदिर को ‘काली पल्टन मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन काल में भारतीय सेना को काली पल्टन कहा जाता था और चूंकि मंदिर भारतीय सेना की बैरक (Barrack) के करीब स्थित था, इसलिए यह 'काली पल्टन मंदिर' के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। सुरक्षा एवं गोपनीयता के लिए उपयुक्त शान्त वातावरण के कारण अग्रेजों ने यहाँ सेना का प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किया। मंदिर ने स्वतंत्रता सेनानियों को एक सुरक्षित आश्रय प्रदान किया, जहां उन्होंने काली पल्टन के अधिकारियों के साथ अपनी गुप्त बैठकें आयोजित की।
श्री औघड़नाथ शिव मन्दिर की भूमिका को 1857 की क्रांति से भी जोड़ा जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि, इसी मंदिर में देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बीज पड़े थे।
1857 के विद्रोह के दौरान मंदिर परिसर के अंदर एक कुआं था, जिसे सैनिक अक्सर पानी पीने के लिए उपयोग किया करते थे। वर्ष 1856 में, अंग्रेजी सरकार ने नए कारतूसों को पेश किया। इन कारतूसों को उपयोग करने से पहले दांतों से इसकी सील (seal) हटानी होती थी। यह सील गाय की चर्बी से बनी थी और चूंकि हिंदू धर्म में गाय को पवित्र माना जाता है, इसलिए पुजारी ने सैनिकों को कुएं का उपयोग करने से मना कर दिया। पुजारी की बात सैनिकों के दिल पर लग गयी और उत्तेजित होकर उन्होंने 10 मई 1857 की क्रांति का बिगुल बजा दिया। इस ऐतिहासिक कुएँ पर ‘शहीद स्मारक’ भी स्थापित किया गया है, जो क्रान्ति के गौरवमय अतीत का ज्वलन्त प्रतीक है। इस स्थान पर प्रति वर्ष 10 मई को स्वतंत्रता सेनानी एकत्रित होकर शहीदों को पुष्पांजली अर्पित करते हैं। इस प्रकार मंदिर जहां धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है, वहीं इसे स्वतंत्रता संग्राम में अपनी विशिष्ट भूमिका के लिए भी पहचाना जाता है। औघड़नाथ शिव मन्दिर के दर्शन करने का सबसे उपयुक्त समय मार्च और जुलाई के महीने में है। इसके अलावा श्रावण माह, शिवरत्रि, होली आदि उत्सवों पर भी मन्दिर के दर्शन किये जा सकते हैं।