प्रलय में क्या संदेश देता है बाल कृष्ण का अंगूठा चूसते हुए चित्र ?

विचार II - दर्शन/गणित/चिकित्सा
28-07-2021 10:22 AM
प्रलय में क्या संदेश देता है बाल कृष्ण का अंगूठा चूसते हुए चित्र ?

धरती पर ईश्वर के अनेक रूपों में विभिन्न अवतार माने जाते हैं, और अपने प्रत्येक अवतार में उन्होंने मानवता का कल्याण किया है। कुछ लीलाओं में निर्माण किया है, कईयों में संहार किया है। अपने हर रूप में ईश्वर ने अनेक लीलाएं रची है, उनकी हर लीला में कोई न कोई गूण और गहरा संदेश छुपा रहता है। धरती पर कृष्ण के रूप में उन्होंने जितनी लीलाएं रची हैं, शायद ही भगवान् विष्णु ने किसी अन्य अवतार में अथवा किसी अन्य देवता ने रची हों। यू तो ईश्वर की हर लीला अद्भुत होती है, उनकी हर छवि हमारे मन को अनायास ही मोहित कर देती है, परंतु बाल्यावस्था में केले (कुछ चित्रों में बरगद) के पत्ते पर तैरते नन्हे बच्चे (भगवान् विष्णु) द्वारा अपने पैर का अंगूठा चूसने का दृश्य, एक अद्भुद और बेहद मासूम कृष्ण का प्रतिनिधत्व करता है। साथ ही इससे जुड़ा किस्सा भी अति प्रेरणादायक और बेहद रोचक है।
श्रीमद्भागवतम के 9वें अध्याय में वर्णन किया गया है कि, ऋषि मार्कंडेय ने भगवान कृष्ण को विशाल समुद्र में बरगद के पत्ते पर तैरते हुए देखा। हिँदू धर्म में मान्यता है कि, जैसे पौधे मरते हैं, जानवर मरते हैं, इंसान मरते हैं, उसी प्रकार दुनिया का भी अंत भी होता है, और यह अंत महासागरों की अपार वृद्धि के परिणाम स्वरूप होता है। अंत के समय समुद्र के जल में महाद्वीपों, पहाड़ों, जंगल, नदी घाटी, रेगिस्तान और द्वीप इत्यादि समेत सब कुछ समुद्र में समां जाता है, इस महाजलप्रलय से कुछ नहीं बचता। इस प्रकार धरती का अंत हो जाता है। चूँकि मार्कंडेय को अमरता प्राप्त थी, इस कारण उन्होंने यह नजारा देखा और डर से भर गए। तभी उन्होंने एक अद्भुद नज़ारा देखा। उन्होंने देखा एक नन्हा सा बालक जिसके चेहरे पर गज़ब का तेज़ था। उन्होंने शिशु को विशाल समुद्र में एक बरगद के पत्ते पर तैरते हुए पाया। अनंत ब्रह्माण्ड में तैरते हुए वह बालक अपने पैर का अंगूठा भी चूस रहा था। तभी उस बालक ने गहरी साँस ली और धीरे- धीरे सब कुछ उसके भीतर समाने लगा। इस ब्रह्मांडीय प्रलय के एकमात्र साक्षी मार्कंडेय ऋषि थे। बच्चे ने गहरी साँस लेकर मार्कंडेय ऋषि को भी अपने अंदर खींच लिया। उन्होंने खुद को भी बच्चे के नथुने में चूसा हुआ पाया।
भीतर का नज़ारा देखकर उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही, उन्होंने देखा की बच्चे के भीतर पूरी दुनिया, सभी क्षेत्र, ऊपर आकाश लोक और नीचे पाताल लोक सब कुछ थे। इन लोकों के चारों ओर महासागर थे। इन क्षेत्रों में पहाड़ और नदियाँ और जंगल और सभी प्रकार के जीवित प्राणी - पौधे, जानवर, मनुष्य, देव, असुर, नागा, यक्ष, राक्षस, अप्सरा, गंधर्व थे। उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था की बच्चे के भीतर जीवन और उसके शरीर के बाहर मृत्यु थी। इस महान घटना के परिदृश्य में उन्होंने महसूस किया कि, उन्हें मूक प्रतीकात्मक संदेश दिया जा रहा है, जिसे समझना उनका काम था।
शिशु की निर्भय मुस्कान प्रलय (ब्रह्मांडीय जलप्रलय) की क्रूरता को नकार रही थी। उसकी करुणामय दृष्टि मार्कंडेय को संकेत दे रही थी कि, जीवन चलता रहेगा, दुनिया कभी खत्म नहीं होती, बल्कि केवल बदलती है। मार्कंडेय ने महसूस किया कि प्रलय वास्तविक भी थी और केवल कल्पना मात्र भी। वस्तुगत(objective) भी थी और आत्मनिष्ठ (subjective) भी। यहां प्रलय उस क्षण को चिह्नित करती है, जब हमारे चारों ओर सब कुछ ढह जाता है, जब हमारे पास कुछ भी नहीं बचा होता है। केवल एक चीज जो हमें लहरों पर तैरते बरगद के पत्ते की तरह पार लगा सकती है, वह है हमारा विश्वास। संभव है की सभी ने इस आध्यात्मिक वास्तविकता का अनुभव न किया हो, लेकिन हर कोई इसकी कल्पना कर सकता है। यह एक ऐसी अवस्था है जहां कोई मृत्यु नहीं है, कोई परिवर्तन नहीं है, कोई बेचैनी नहीं है - केवल शांति, मौन, और अमरता है। ईश्वर का बच्चे के रुप में आना यह प्रतीकात्मक संदेश देता है कि, जब भी मासूमियत और पवित्रता का नाश होता है तो दुनिया ख़त्म हो जाती है। लेकिन दुनिया का निर्माण फिर से होगा, ताजा और निर्दोष। अब बच्चे के पैर के अंगूठे को चूसने के संदर्भ में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में, मार्कंडेय बताते हैं की, सिर का गठन ब्राह्मणों (दार्शनिकों) द्वारा किया गया था, भुजाएँ क्षत्रियों (योद्धाओं) द्वारा, सूंड वैश्यों (व्यापारियों) द्वारा और पैरों को शूद्रों (मजदूरों) द्वारा गठित किया गया था। अतः बुद्धि को श्रेष्ट माना गया है और पैरों की उपेक्षा की गई है। मासूम बच्चा पैर के अंगूठे को चूसता है वह पैरों को नीच या गंदा या अशुभ नहीं देखता है। हमारा समाज उन मूल्यों पर चलता है जहाँ सिर शीर्ष माना जाता है, और पैरों का शोषण एवं उपेक्षा की जाती है। जब ऐसा होता है तो समाज का पतन हो जाता है, और प्रलय आती है। यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि बच्चे द्वारा दाहिने पैर का अंगूठा चूसा जा रहा है न कि बाएं पैर का ।
प्रतीकात्मक शब्दों में, शरीर का बायाँ भाग जो हृदय का भाग होता है, वह वास्तविकता से जुड़ा होता है। और दायाँ भाग आध्यात्मिक वास्तविकता से जुड़ा होता है। दाहिना अंगठा चूसने से यह संदेश मिल रहा है कि बच्चा आध्यात्मिक पक्ष की और झुका हुआ है। वह दर्शाता है कि दार्शनिकों, योद्धाओं, व्यापारियों और मजदूरों के बीच मतभेद सिर्फ क्षणिक है। सब कुछ अस्थाई है ,केवल आत्मा ही सामान्य और स्थायी है। मूर्ख शरीर पर ध्यान केंद्रित करता है, बुद्धिमान आत्मा पर ध्यान केंद्रित करता है। इसलिए मूर्ख खुद को शरीर के बाहर प्रलय में पाएंगे और, बुद्धिमान हमेशा देवत्व के भीतर शांति का आनंद लेंगे।

संदर्भ
https://bit.ly/3y1K3hD
https://bit.ly/3yjjB2Y
https://bit.ly/2WmNWQm
https://bit.ly/3zAt4U0

चित्र संदर्भ
1. अपने पैर का अंगूठा चूसते बाल कृष्ण का एक चित्रण (flickr)
2. विष्णुपद मंदिर गया में पैर का अंगूठा चूसते बाल कृष्ण का एक चित्रण (flickr)
3. बालकृष्ण का एक चित्रण (flickr)