स्वामी दयानंद के आर्य समाज और थियोसोफिकल सोसायटी का एकीकरण एवं अलगाव

विचार II - दर्शन/गणित/चिकित्सा
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स्वामी दयानंद के आर्य समाज और थियोसोफिकल सोसायटी का एकीकरण एवं अलगाव

यदि प्राचीन समय से ही धर्मशास्त्रों और विचारकों द्वारा मानवता का मार्गदर्शन न किया गया होता, तो संभव है की आज इंसानियत अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही होती! वास्तव में समाज को संतुलित करने के लिए केवल संसाधनों की उपलब्धता ही पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि इंसानों को सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए बुद्धिमान और सच्चे मार्गदर्शक का होना भी आवश्यक है। इसके बेहतरीन उदाहरण के तौर पर हम स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज और मैडम ब्लावात्स्की तथा हेनरी ओल्कोट ( Madame Blavatsky and Henry Olcott) द्वारा स्थापित थियोसोफिकल सोसाइटी (Theosophical Society) द्वारा सामाजिक हित एवं परोपकारी कार्यों को ले सकते हैं।
आर्य समाज का इतिहास इसके संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन से शुरू होता है। उनका जन्म 1834 में काठियावाड़ के छोटे से शहर टंकारा में हुआ था। उनके द्वारा स्थापित समाज को भ्रष्ट हिंदू धर्म और हिन्दू धर्म में घुसपैठ करने वाली पश्चिमी विचारधारा के प्रति एक रक्षात्मक हिंदू आंदोलन माना जाता है। फाल्गुन कृष्ण संवत् 1895 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में तब नया मोड़ आया जब उन्हें नया बोध (आत्मज्ञान) की प्राप्ति हुई। जिसके बाद वे सन्यासी बनकर घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उनके गुरु ने उनसे मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। और यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने हिंदू धर्म के अपने दृष्टिकोण का प्रचार करना शुरू किया। 1872 में कुछ ईसाई मिशनरियों (Christian missionaries) और ब्रह्म समाज के नेताओं के साथ बैठक के अलावा उन्हें हिंदू धर्म में सुधार के लिए अपनी रणनीति बदलने के लिए प्रेरित किया। और इस प्रकार, 1875 में उन्होंने बंबई में पहले सफल आर्य समाज की स्थापना की।
दयानंद का उद्देश्य किसी नए धर्म को शुरू करना या स्थापित करना नहीं था, बल्कि वेदों के माध्यम से मानव जाति से सार्वभौमिक भाईचारे आह्वान करना था। आर्य समाज का उद्देश्य हिंदुओं को वेदों की ओर वापस ले जाना और समाज में सदियों से जमा हुए सभी दोषों को दूर करना था।
स्वामी दयानंद ने अपने जीवनकाल के दौरान राष्ट्रीय शिक्षा पर जोर दिया, यही वजह है कि समाज ने कई जगहों पर स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की, जिनमें सबसे सफल और लोकप्रिय लाहौर में दयानंद एंग्लो- वैदिक कॉलेज और कांगड़ी में गुरुकुल थे। इन सभी विद्यालयों में दोनों लिंगों के लिए धार्मिक प्रशिक्षण पर जोर दिया जाता है। आर्य समाज का एक अन्य योगदान कुछ राज्यों में राजभाषा के रूप में और इसके कई संस्थानों में शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी की शुरुआत भी थी। हर साल अक्टूबर के अंत में एक वार्षिक 3-दिवसीय आर्य समाज मेला ऋषि उद्यान में आयोजित किया जाता है, जिसमें वैदिक सेमिनार, वेद संस्मरण प्रतियोगिता, यज्ञ और धवजा रोहन फ्लैग मार्च भी शामिल है। इसका आयोजन एक पारोपकारिणी सभा द्वारा किया जाता है, जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने 16 अगस्त 1880 को मेरठ में की थी।वर्ष 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने मुंबई में हिंदू सुधार आंदोलन आर्य समाज की स्थापना की। उसी वर्ष, मैडम ब्लावात्स्की और हेनरी ओल्कोट ने न्यूयॉर्क में थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना भी की थी। वर्ष 1870 ओल्कोट की मुलाकात एक भारतीय हिन्दू मूलजी ठाकुरशी (मूलजी ठाकरे) से हुई, लेकिन शीघ्र ही उन दोनों का एक-दूसरे से संपर्क टूट गया। पुनः 1877 में ओल्कॉट ने ठाकुरशी को एक पत्र लिखा, और उन्हें थियोसोफिकल सोसायटी और उसके लक्ष्यों का वर्णन किया। वहीँ ठाकुरशी ने भी ओल्कोट को पत्र का उत्तर दिया, और उन्हें आर्य समाज के बारे में बताया, तथा उन्होंने इसके लक्ष्यों का वर्णन किया और ओल्कोट को मुंबई में अपने अध्यक्ष हरि चंद चिंतामणि का पता दिया। चिंतामणि तब थियोसोफिकल सोसाइटी के सदस्य बन गए थे, और ओल्कोट ने दयानंद सरस्वती के साथ एक पत्राचार शुरू किया। आखिर उन्होंने दोनों समाजों को एकजुट करने का सुझाव दिया और 22 मई, 1878 को न्यूयॉर्क में थियोसोफिकल सोसाइटी की एक बैठक में प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया था। थियोसोफिकल सोसाइटी की एक शाखा की स्थापना 27 जून, 1878 को चार्ल्स कार्लेटन मैसी (Charles Carleton Massey) ने लंदन में की थी। इसका नाम ब्रिटिश थियोसोफिकल सोसायटी ऑफ आर्यावर्त (British Theosophical Society of Aryavarta) था।
1877 में समाज की स्थापना के दो साल बाद थियोसोफिकल सोसाइटी के संस्थापक भारत आए और स्वामी दयानंद से मिले। उन्होंने प्रस्तावित किया कि दोनों को उस पवित्र कार्य को पूरा करने के लिए एकजुट होना चाहिए जिस पर वे लगे हुए थे। इस तरह 22 मई, 1878 को न्यूयॉर्क में दोनों समाज एक साथ आए। लेकिन एक या दो साल में दोनों समाज के बीच मतभेद पैदा हो गए और 1881 में पूरी तरह टूट गया। इसमें कोई शक नहीं कि आर्य समाज एक सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन था और समाज कई बदलाव लाने में सफल रहा था। स्वामी दयानंद सरस्वती की व्यक्तिगत दृष्टि एक आंदोलन में बदल गई और यह प्रेरक भी थी। समाज द्वारा शुरू किए गए शैक्षिक कार्यक्रम, सांप्रदायिक रक्षा, सामाजिक उत्थान और समाज सेवा का भी समाज में बहुत बड़ा योगदान था। दूसरी ओर, थियोसोफिकल सोसायटी न तो हिंदुओं और न ही ईसाइयों को प्रभावित करने में सफल रही। समाज के नेताओं में समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में एकरूपता नहीं थी। हालांकि, एनी बेसेंट (Annie Beasant) का प्रयास और श्रम हिंदुओं के लिए अविश्वसनीय रूप से फायदेमंद था।

संदर्भ
https://bit.ly/3JIdsmu
https://bit.ly/3LWqAGs
https://bit.ly/3vd019Y
https://bit.ly/3HflHVh
https://bit.ly/3hdt4lJ

चित्र संदर्भ   
1. स्वामी दयानंद के आर्य समाज और थियोसोफिकल सोसायटी को दर्शाता एक चित्रण (facebook ,wikimedia)
2. थियोसोफिकल सोसायटी, बसवनगुडी, बैंगलोर को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. आर्य समाज द्वारा किये जा रहे एक हवन को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. थियोसोफिकल सोसायटी, अड्यार, भारत की स्मारक पट्टिका को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. ॐ को दर्शाता चित्रण (wikimedia)