अपने समय में महत्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति की मेरठ घंटाघर मीनार ने, और अब?

वास्तुकला I - बाहरी इमारतें
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अपने समय में महत्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति की मेरठ घंटाघर मीनार ने, और अब?

मेरठ के घंटाघर की आधारशिला 17 मार्च 1913 को रखी गई थी और इसे लगभग एक साल में पूरा किया गया था। इस घड़ी के लगे पेंडुलम की आवाज 15 किलोमीटर दूर तक जाती थी। घंटाघर एक विशिष्ट प्रकार की संरचना होती है जिसमें एक बुर्ज पर घड़ी लगायी जाती है तथा इसके ऊपरी बाहरी दीवारों पर एक या एक से अधिक घड़ी लगी होती हैं। कई घण्‍टाघर फ्रीस्टैंडिंग (freestanding) संरचनाएं भी होते हैं, लेकिन वे किसी अन्य इमारत के ऊपर या उससे सटेहो सकते हैं।
कुछ अन्य इमारतों के बाहरी हिस्से में घड़ी लगी होती हैं लेकिन इन इमारतों में अन्य मुख्य कार्य किए जाते हैं। मेरठ का घण्‍टाघर शहर के लिए एक विशिष्ट मील का पत्थर साबित हुआ और आम तौर पर सबसे लोकप्रिय क्षेत्र बन गया था। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, विभिन्न कस्बों और शहरों में, आमतौर पर शहर के केंद्र में कई घंटाघर बनाए गए थे। भारत में, इस तरह के घण्‍टाघर देहरादून, मेरठ, इंदौर, ग्वालियर आदि में कई अन्य शहरों में ज्यादातर उत्तर भारत में बनाए गए हैं। दुनिया के कई हिस्सों में घंटाघर एक आम दृश्य हैं जिनमें से कुछ प्रतिष्ठित इमारतें हैं। हालाँकि आज घण्‍टा घरों को उनके सौंदर्यशास्त्र के लिए सराहा जाता है, लेकिन उन्होंने अपने समय में एक महत्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति की थी। बीसवीं शताब्दी के मध्य से पहले, अधिकांश लोगों के पास घड़ियाँ नहीं हुआ करती थीं, और अठारहवीं शताब्दी से पहले घर की घड़ियाँ भी दुर्लभ थीं। प्रारंभिक घड़ियों में अग्रभाग नहीं होते थे, लेकिन वे अद्भूत घड़ियाँ थीं, जो आसपास के समुदाय को काम करने या प्रार्थना करने वाले लोगों को जगाने के लिए घंटियाँ बजाती थीं। इसलिए उन्हें टावरों में लगाया जाता था ताकि घंटियाँ लंबी दूरी तक सुनी जा सकें। घण्‍टा घरों को कस्बों के केंद्रों के पास बनाया जाता था और अक्सर वहां ये सबसे ऊंची संरचनाएं हुआ करती थीं।
घंटाघर का उपयोग प्राचीन काल से ही होता आ रहा है। सबसे पुराना घण्‍टाघर एथेंस (Athens) में टॉवर ऑफ द विंड्स (Tower of the Winds) था जिसमें आठ धूपघड़ी शामिल थीं और इसे पहली शताब्दी ईसा पूर्व में रोमन ग्रीस (Roman Greece) काल के दौरान बनाया गया था। इसके आंतरिक भाग में एक पानी की घड़ी (या क्लेप्सीड्रा (clepsydra)) भी थी, जो एक्रोपोलिस (Acropolis) से नीचे बहने वाले पानी से चलती थी।
हमारे मेरठ का शानदार घंटाघर 1914 में बनकर तैयार हुआ था, जिसे अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया था। इस मीनार पर यह घड़ी लगाई गई है, वह मूल रूप से एक गेट हुआ करती थी जिसे कंबो दरवाजा कहा जाता था। अब इस द्वार का नाम सुभाष चंद्र द्वार रखा गया।इस टावर के नाम पर इस जगह को घंटाघर चौक कहा जाता है और इस जगह को जीरो माइल प्वाइंट (Zero Mile Point) भी कहा जाता है। कहा जाता है कि यहां लगने वाली घड़ी जर्मनी से मंगार्इ गर्इ थी, लेकिन जिस समुद्री जहाज से घड़ी लायी जा रही थी, वह जहाज डूब गया था।
इसके बाद 1914 में इलाहाबाद हार्इकोर्ट में लगी घड़ी को यहां लगाया गया। हालाँकि, कुछ साल पहले ही इस टॉवर को एक बार फिर से अपने मूल स्थान पर पुनः स्थापित कर दिया गया था। घंटाघर बाजार क्षेत्र से रेलवे स्टेशन तक एक द्वार के रूप में कार्य करता है। यहां का क्षेत्र इलेक्ट्रॉनिक सामान, कपड़े और हार्डवेयर की दुकानों से संबंधित दुकानों से भरा हुआ है। इस चौक से आगे लाला बाजार है जहां खिलौने और ट्रिंकेट, स्टेशनरी और घरेलू सामान बेचा जाता है। मेरठ शहर के बीचों-बीच इस घड़ी के लगते ही इस क्षेत्र का नाम भी घंटाघर पड़ गया। मेरठ के घंटाघर की यह घड़ी एक्यूरेसी (accuracy) में मिसाल बन गर्इ। चार पीढ़ियों से इस घंटाघर के रखरखाव का जिम्मा उठाने वाले परिवार के 80 वर्षीय शमशुल अजीज का कहना है कि मेरठ काघंटाघर देश का एक मात्र ऐसा घंटाघर है, जिसके नीचे से तीन ट्रक एक साथ गुजर सकते हैं। इन्होंने बताया कि उस दौरान मंदिर-मस्जिद घंटी की आवाज से ही खुलते थे, किसान खेतों के लिए निकलते थे। यहां के स्‍थानीय लोग इस घंटाघर से बहुत खुश थे। उस समय घंटाघर के आसपास सिर्फ टाउन हाल था। घंटाघर के चारों ओर चुनिंदा दुकानें ही थी, लेकिन अधिकतर खाली थी। धीरे-धीरे आसपास की आबादी और दुकानें बढ़ने लगी थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यहां टाउन हाल में अक्सर बैठकें और जनसभाएं हुआ करती थी। इनमें शहर व आसपास के लोग यहां पहुंचते थे।
शमशुल अजीज ने बताया कि 1990 के बाद घंटाघर की घड़ी से लोगों को समय मिलाने में दिक्कतें आनी शुरू हो गयी थी, क्योंकि इस बड़ी घड़ी के पीतल के पार्ट्स चोरी हो गए थे। इसके बाद घंटाघर की घड़ी बंद हो गर्इ। घंटाघर की जिम्मेदारी नगर निगम मेरठ की है, लेकिन तब से यह घड़ी सही से काम नहीं कर रही है। बीच-बीच में कुछ निजी प्रयास किए गए, किंतु कुछ समय के लिए यह ठीक रही, लेकिन फिर बंद हो गर्इ। शाहरूख खान की अभिनीत फिल्म जीरो (Zero) की शूटिंग मेरठ में ही की गयी थी। यह फिल्म मेरठ पर आधारित थी। इसमें मेरठ का घंटाघर केंद्र बिन्दु था, लेकिन घंटाघर की घड़ी बंद थी तो शाहरूख खान ने इसे ठीक कराने के लिए छह लाख रुपये दिए थे। फिल्म जीरो प्रदर्शित भी हो गर्इ लेकिन अभी तक घंटाघर की घड़ी बंद पड़ी हुर्इ है।जब से यह घड़ी बंद हुयी है तब से कुछ कमी सी खल रही है। घंटाघर क्षेत्र भी पूरी तरह से बदल गया है। बढ़ती आबादी, बढ़ते कारोबार और ट्रैफिक जाम से घंटाघर क्षेत्र पूरी तरह बदल गया है, जबकि जरूरत है मेरठ की इस धरोहर को संजोने की। इसके लिए सरकारी मशीनरी को तत्परता से आगे आना होगा।

संदर्भ:
https://bit.ly/3xmcppu
https://bit.ly/3KxFcev
https://bit.ly/3E0zOxX

चित्र संदर्भ
1. मेरठ के घंटाघर को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
2. दूरी से मेरठ के घंटाघर को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
3. सबसे पुराना घण्‍टाघर एथेंस (Athens) में टॉवर ऑफ द विंड्स (Tower of the Winds) को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. नजदीक से मेरठ के घंटाघर को दर्शाता एक चित्रण (prarang)