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कीड़ों को खाने के नाम पर आपको उल्टियां आ सकती हैं लेकिन दुनिया के कई हिस्सों में कीड़ों को
खाना कोई नई बात नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO-Food and Agriculture
Organization) का अनुमान है कि दुनिया भर में क़रीब दो अरब लोग कीट-पतंगों को रोज़ाना अपने खाने
में शामिल करते हैं। लाखों लोग उनको चाव से खाते हैं और कुछ लोगों के लिए यह आहार का मुख्य
स्रोत है। कीट आधारित आहार अधिक से अधिक लोकप्रिय होने के साथ, पोषण से भरपूर भी है सदियों से
लोग अपने पोषण संबंधी लाभों के लिए कीड़ों का सेवन कर रहे हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है
कि दुनिया अब कीड़ों को पोषण के लिए अपने खाद्य श्रृंखला में शामिल कर रही है। ब्राजील में भी
चींटियां एक स्वादिष्ट व्यंजन मानी जाती हैं, विशेष रूप से पंखों वाली किस्म जो अक्टूबर और नवंबर के
महीनों में खूब उड़ती है, इसके पंखों को हटा कर तला, भुना या चॉकलेट में डुबोया जाता है।
13 मई, 2013 को संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने कहा कि भृंग, कैटरपिलर और ततैया
पर्यावरण के अनुकूल खाद्य स्रोत के रूप में दुनिया भर के आहार को पुर्ण कर सकते हैं। 2014 में, संयुक्त
राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने कीड़ों पर पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी आयोजित किया था।
इतिहास में भी झांक कर देखे तो हम पाएंगे कि मनुष्यों द्वारा कीड़ों का सेवन सदियों से चला आ रहा
है। कहा जाता है कि प्राचीन यूनानियों और रोमन लोगों ने कीड़ों का भोजन किया था। रोमन कुलीन वर्ग,
कथित तौर पर आटे और शराब के साथ भृंग लार्वा खाना पसंद करते थे।
भारत में भी कीड़ों को खाना कोई नई बात नहीं है। कीड़ों का यह आहार कई जनजातियों को अपने
पूर्वजों से विरासत में मिला है। मध्य प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, मेघालय, नागालैंड, असम,
मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में कीड़ों को खाने का चलन है। भारत के पूर्वोत्तर में कई समुदायों केपारंपरिक आहार में पोषण, आर्थिक और पारिस्थितिक लाभों के लिए कीड़ो को शामिल किया जाता हैं।
भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में कीड़ों को सबसे अधिक खाया जाता है। असम के स्थानीय समुदायों द्वारा
कई पीढ़ियों से उनके प्रमुख वसंत उत्सव बोहाग बिहू के दौरान लाल चींटी के लार्वा का सेवन किया जाता
आ रहा है। 'अमरोली पोरुआर तुप' (Amroliporuar tup) लाल चींटी के लार्वा हैं, ये फूले हुए चावल जैसे
दिखते हैं और खट्टे स्वाद वाले होते हैं। लोग इन्हें कभी-कभी कच्चा या नमक और मिर्च के साथ भी
खाते हैं। असम राज्य के मूल निवासी बोड़ो लोग आमतौर पर कीड़ों को धूप में सुखाने के बाद खाते हैं।
यह उनके लिए सदियों पुरानी परंपरा है।
मध्य भारत में, स्वदेशी जनजातियाँ अपने आहार में प्रोटीन की कमी की पूर्ति चींटियाँ और झींगुर खाकर
करती हैं। वे चीटियों को लहसुन, अदरक और मिर्च के साथ पीसकर चटनी बनाते हैं। ब्रह्मपुत्र के उत्तरी
तट (डिब्रूगढ़ के पास) में धेमाजी के रहने वाले जतिन कुली बताते है कि “लोग यहां मौसम की कुछ
विशेष परिस्थितियों में व्यंजनों के रूप में कीड़े इकट्ठा करते हैं और खाते हैं, लेकिन लॉकडाउन के दौरान
ऐसा करना मुश्किल हो गया था। यहां जो कीट बड़ी संख्या में उपलब्ध होती थी वो है जेबांगकोरी
(jebangkori), उर्फ पानी की विशाल बग (giant water bug) (लेथोसेर्कस इंडिकस) (Lethocercus indicus),
लेकिन अब वे उतनी मात्रा में नहीं मिलते हैं जितने पहले हुआ करते थे। अंधाधुंध शिकार ने कीट की
आबादी को सीमित कर दिया है। आमतौर पर खाए जाने वाले अन्य कीड़ों में झींगुर (cricket) भृंग
(beetles), मधुमक्खियां (bees), ततैया (wasps), टिड्डे (grasshoppers), टिड्डियां (locusts), दीमक (termites)
और ड्रैगनफ्लाई (dragonflies) शामिल हैं। रेशम के कीड़े भी लोकप्रिय हैं: एरी पोलु (eripolu) (फिलोसोमिया
रिसिनी) (Philosomiaricini) और मुगा पोलु (mugapolu) (एन्थेरिया एसामा (Antheraea assama)) जैसी
किस्मों के लार्वा (larvae) और प्यूपा (pupae) को स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है और इन्हें तला, भुना या
कच्चा खाया जाता है।”
भारत में भोजन के रूप में कीड़ों का पारंपरिक उपयोग व्यापक है क्योंकि वे असम, नागालैंड, मणिपुर,
अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम में ग्रामीण समुदायों को महत्वपूर्ण पोषण और आर्थिक लाभ प्रदान करते
हैं। आहार के रूप में कीड़ों को प्रोत्साहित करने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला ये पर्यावरण के अनुकूल
होते हैं, दूसरा पोषण गुण और तीसरा जीवनयापन के अवसर उपलब्ध कराने के कारण। कीड़ों में मनुष्यों
के लिए उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट और अमीनो एसिड होते हैं। जो मानव आहार के
लिए ज़रूरी हैं। खाने लायक़ कीड़ों को अगर बड़े पैमाने पर पाला जाए तो वे पशुओं से मिलने वाले प्रोटीन
के बराबर प्रोटीन दे सकते हैं। इसमें पोल्ट्री (Poultry) उत्पादन से बहुत कम प्राकृतिक संसाधन लगते हैं।
लेकिन यहां सिर्फ़ पौष्टिकता का मामला नहीं है। कीटपालन पर्यावरण के भी अनुकूल है साथ ही,
ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बहुत कम होता है, साथ ही साथ इससे कृषि क्षेत्र में इससे बड़ा बदलाव
आ सकता है, क्योंकि उन्हें भूमि और पानी के केवल एक अंश की आवश्यकता होती है। FAO के मुताबिक़
दुनिया भर में बीटल्स और कैटरपिलर सबसे ज्यादा खाए जाने वाले कीड़े हैं, मगर विकसित देशों में
झींगुर ने मुख्यधारा के व्यंजनों में अपनी जगह बना ली है।
जानवरों की मांग और उनके चारे के लिए खेती करने की वजह से जंगल काटे जा रहे हैं, जिससे प्रदूषण
बढ़ा, पानी की कमी हुई और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ा है। कृषि नेताओं का मानना है कि यदि
कीड़ों को पशु चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो उसके बड़े पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ होंगे।
कीटपालन बहुत पौष्टिक चारा उपलब्ध करा सकता है जबकि सोया, मक्का और दूसरे मोटे अनाज वाले
चारे को उगाने की तुलना में इसमें बहुत कम संसाधनों की ज़रूरत होती है। कीड़ों से मिलने वाले पोषक
तत्वों को देखते हुए इनका व्यवसायिक महत्व बढ़ रहा है।
असम में मूगा (muga) रेशम कीट से मुगा या 'सुनहरा रेशम' प्राप्त किया जाता है। लेकिन कामरूप जिले
के एक मुगा किसान बाल बहादुर छेत्री ने कहा कि पिछले कुछ महीनों में उन्होंने कोकूनों की तुलना में
मुगा के लार्वा और प्यूपा को अधिक बेचा था, जो खुद उनके रेशम के लिए बेशकीमती थे। साथ ही साथ
उन्होंने यह भी बताया की जब भोजन में इनकी मांग आपूर्ति से अधिक हो जाती है तो खरीदार अक्सर
अधिक भुगतान करने को तैयार होते हैं। बाज़ार से मिल रहे संकेत भी नई उम्मीद जगाते हैं, एक अनुमान
के मुताबिक, 2023 तक खाद्य कीट बाजार 1.18 अरब डॉलर (92 खरब ) का हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र
खाद्य और कृषि संगठन ने 2013 में अनुमान लगाया था कि दुनिया भर में कम से कम दो अरब लोग
कीड़े की 1,900 से अधिक प्रजातियों को भोजन के रूप में खाते हैं। भारत जैसे देशों में खा सकने वाले
कीड़ों के व्यवसाय की बहुत संभावनाएं हैं क्योंकि यहां मधुमक्खी और रेशम कीट काफी समय से पाले जा
रहे हैं। हालांकि भारत में अभी कीड़ों का व्यवस्थित बाजार विकसित नहीं हुआ है। लेकिन स्थानीय स्तर
पर कहीं-कहीं इनकी बिक्री होती है। शहरी कृषि, कीड़ों से प्राप्त होने वाले प्रोटीन के उत्पादन का प्रभावी
तरीका हो सकता है। औद्योगिक स्तर पर कीड़ों की खेती भी संभाव्य है, खासकर उन शहरों में जहां
परंपरागत खेती मुश्किल है।
मैसूर का केंद्रीय रेशमकीट अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (Central Sericultural Research and Training
Institute of Mysore) रेशमकीट प्यूपा को भोजन में परिवर्तित करने के लिए प्रयोग कर रहा है। केंद्र उनके
प्रसंस्करण नुसखे (processing formulae) को पेटेंट (patents) कराने के अंतिम चरण में है। केंद्र की
वैज्ञानिक कनिका त्रिवेदी जो खुद शाकाहारी हैं, का कहना है कि उनकी टीम के लोग रिपोर्ट करते हैं कि
प्यूपा रेसिपी का स्वाद झींगे की तरह होता है, यह लार्वा बहुत पौष्टिक होते हैं, उनमें से कुछ में 50-60%
प्रोटीन होता है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता है। मध्य प्रदेश सिल्क फेडरेशन (Silk Federation)
1946 से आम उपभोग के लिए डिब्बाबंद रेशमकीट प्यूपा बेच रहा है। हालांकि अभी लोग इसे नहीं
खरीदते हैं क्योंकि यह लोकप्रिय नहीं है, केवल पूर्वोत्तर के लोग ही इन्हे खरीदते हैं। परन्तु फेडरेशन के
वैज्ञानिक रवींद्र सिंह कहते हैं, एक बार जब लोग अपने भोजन में इनका सेवन शुरू के देंगे तो लोग
निश्चित रूप से इसे खरीदना शुरू कर देंगे। हो सकता है कि इसमें दशकों लग जाएं, लेकिन लगता है कि
एक दिन सभी कीड़ों को अपना लेंगे और सभी लोग उनको चाव से खाएंगे।
संदर्भ:
https://bit.ly/39FaBhA
https://bit.ly/39A0niI
https://bit.ly/3xxq1MR
चित्र संदर्भ
1. कीड़ों के व्यंजन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. टमाटर सूप से साथ कीड़ों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. चींटियों के व्यंजन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. बाजार में बिक रहे कीड़ों के व्यंजन रेशमकीट प्यूपा व्यंजन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. रेशमकीट प्यूपा व्यंजन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)