उतार-चढ़ाव के बावजूत, कायम रही है भारत में एक समृद्ध जहाज़ निर्माण संस्कृति

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उतार-चढ़ाव के बावजूत, कायम रही है भारत में एक समृद्ध जहाज़ निर्माण संस्कृति

वर्ष 1837 में जैसे-जैसे ब्रिटिश साम्राज्य(British Empire) में रानी विक्टोरिया (Queen Victoria) के शासनकाल का उदय हुआ, वैसे-वैसे ईस्ट इंडियामेन (East Indiamen) नामक सशस्त्र व्यापारिक जहाज़ों का अंत करीब आने लगा । ईस्ट इंडियामेन 17वीं से 19वीं शताब्दी में किसी ईस्ट इंडिया व्यापारिक कंपनियों के चार्टर(Charter) या लाइसेंस(Licence) के तहत संचालित होने वाले, नौकायन जहाज़ का सामान्य नाम था। जबकि, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किराए पर लिए गए कुछ ईस्ट इंडियामेन को “टी क्लिपर्स(Tea Clippers)” के रूप में जाना जाता था।
ईस्ट इंडियामेन जहाज़, पूरे सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी तथा उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक, इंग्लैंड(England), भारत और चीन(China) के बीच आवागमन करते थे। हम अक्सर उन्हें लंदन (London), केप टाउन(Cape Town), बॉम्बे(Bombay) अर्थात मुंबई, मद्रास(Madras) अर्थात चेन्नई और विशेष रूप से कलकत्ता और कैंटन(Canton) के बंदरगाहों को दर्शाते कलात्मक मुद्रण सामग्री में देखते हैं। कई कलाकारों ने, विशेष रूप से, रॉबर्ट डोड(Robert Dodd) और विलियम जॉन हगिन्स(William John Huggins) ने इन जहाजों की कला में विशेषज्ञता हासिल की थी। आमतौर पर, ईस्ट इंडियामेन लगभग 30 तोपों के एक डेक(Deck) के साथ काले और सफेद रंग में बने आकर्षक जहाज़ थे। इस कारण, अक्सर उन्हें रॉयल नौसेना(Royal Navy) का फ्रिगेट(Frigate) जहाज़ / युद्धपोत समझ लिया जाता था। ये जहाज़ ईस्ट इंडिया कंपनी(East India Company) का झंडा या फिर एक लाल पताका फहराते थे।
अधिकांश, ईस्ट इंडियामेन जहाजों का निर्माण लंदन में थेम्स(Thames) नदी के बंदरगाह में किया गया था। हालांकि, इनमें से कुछ जहाजों का निर्माण सागौन की लकड़ी से बॉम्बे बंदरगाह में भी किया गया था। इंडियामेन का प्रत्येक जहाज़ हर वर्ष भारत में एक वापसी यात्रा करता था। इन जहाजों की कार्य-पंजी आज भी ब्रिटिश पुस्तकालय(British library) में उपलब्ध हैं, जिन्हें सावधानीपूर्वक ताम्र-पत्र की लिपि में रखा गया है। इस कार्य-पंजी में हमें, प्रत्येक ईस्ट इंडियामेन के चालक दल, यात्रियों, जहाज़ माल से संबंधित और अन्य विवरण मिलते हैं। विशाल समुद्र में निरंतर यात्रा, भयंकर हवाओं और कीड़ों द्वारा जहाज़ के पतवार, मस्तूल और रस्सियों की गुणवत्ता पर असर होने से पहले, एक ईस्ट इंडियामेन जहाज़, भारत में औसतन छह वापसी यात्राओं तक सुरक्षित बना रहता था।
इतिहासकार फर्नांड ब्रौडेल(Fernand Braudel) के अनुसार,18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में, कुछ बेहतरीन और सबसे बड़े ईस्ट इंडियामेन जहाज़ का निर्माण भारत में किया जाता था। इनके निर्माण में भारतीय जहाज़ निर्माण तकनीकों का उपयोग किया जाता था और इन्हें भारतीयों द्वारा ही संचालित किया जाता था। भारतीय सागौन लकड़ी के पतवार, हमारे स्थानीय समुद्र के जल के लिए विशेष रूप से उपयुक्त थे। इन जहाजों का उपयोग चीन यात्रा के लिए किया जाता था। वाष्प शक्ति यानी भाप से संचालित जहाजों के आने तक, पूर्वी समुद्र में ब्रिटिश व्यापारी, भारत में निर्मित इन जहाजों पर ही निर्भर थे। फिर, 1834 में ईस्ट इंडिया कंपनी की समुद्री सेवा ने भारत के साथ व्यापार पर अपना एकाधिकार खो दिया और अतः तीन निम्नलिखितप्रमुख कारक हैं, जो ईस्ट इंडियामेन जहाज़ के भारत में निर्माण के अंत का कारण बने:
1. सबसे पहला कारक, वाष्प शक्ति का आविष्कार था। 1825 में वाष्प शक्ति से चलने वाली एसएस एंटरप्राइज(SS Enterprises) ने मुंबई तक अपनी पहली यात्रा की थी। और इसके बाद वाष्प शक्ति पर चलने वाले कई अन्य जहाजों का निर्माण और उपयोग जारी रहा ।
2. दूसरा कारक, व्यापार के लिए भारत में पहुंचने हेतुस्थल मार्ग को अपनाना था। 1835 से भारत आने हेतु, ट्राइस्टे(Trieste), अलेक्जेंड्रिया(Alexandria), काइरो(Cairo) और स्वेज़(Suez) के माध्यम से गुजरने वाला लघु यात्रा मार्ग अपनाया जा रहा था।
3. तीसरा कारक, 1834 में भारत में परिवहन पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार का अंत था। तब, पेनिंसुलर और ओरिएंट लाइन्स(Peninsular and Orient Lines) और ब्रिटिश इंडिया लाइन्स(British India Lines) जैसी नई वाणिज्यिक कंपनियों ने इन मार्गों पर संचालन शुरू कर दिया था।
ईस्ट इंडियामेन जहाज़ के कार्यकाल के पश्चात, भारत में जहाज़ निर्माण उन्नीसवीं सदी में गति पकड़ने लगा। तब ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा शुरू की गई, बॉम्बे डॉकयार्ड(Bombay Dockyard) ने ईस्ट इंडिया कंपनी और रॉयल नेवी(Royal Navy) दोनों के लिए जहाज़ बनाना शुरु किया । 3000 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व की अवधि तक भी, भारत में एक समृद्ध जहाज़ निर्माण संस्कृति थी। आज, हमारे देश में प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ जहाजों का विकास और जहाज़ निर्माण एक सतत प्रक्रिया बनी हुई है।
असल में, लगातार की गई समुद्री युद्धों और जहाजों के तेजी से निर्माण के कारण ब्रिटेन(Britain) में बलूत की लकड़ी की कमी हो गई थी ।जिससे, ब्रिटेन अपने विदेशी उपनिवेशों में जहाज़ बनाने के लिए मजबूर हो गया। इसलिए, ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में जहाज़ बनाने की मंजूरी दी गई। बॉम्बे डॉकयार्ड में निर्मित जहाजों ने न केवल ईस्ट इंडिया कंपनी की अंतर-महाद्वीपीय यात्राएं की, बल्कि इंग्लैंड(England) द्वारा इनका युद्धों में भी इस्तेमाल किया गया था। 1839 और 1857 के बीच बॉम्बे डॉकयार्ड ने दुनिया के सामने वाष्प शक्ति युग में प्रवेश करने एवं जहाज़ निर्माण के लिए सागौन लकड़ी के बजाय लौह अयस्क का उपयोग करने की घोषणा की । वाष्प शक्ति युग के दूरगामी परिणाम हुए, और बॉम्बे जहाज़ निर्माण उद्योग, भारत और उसकी अर्थव्यवस्था के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ । पश्चिमी तट पर अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के अलावा, बॉम्बे जहाज़ निर्माण उद्योग ने कलकत्ता और मद्रास के लिए भी जहाज़ भी बनाए।
बॉम्बे के इस उद्योग की भारी सफलता की वजह से ब्रिटेन के जहाज़ निर्माण और परिवहन एकाधिकार में बाधा पड़ी । इसके परिणामस्वरूप, ईस्ट इंडिया कंपनी ने गलत नीतियां अपनाकर, बॉम्बे जहाज़ निर्माण उद्योग को खत्म कर दिया था। हालांकि, फिर हमारे देश की स्वतंत्रता के बाद, जल्द ही जहाज़ निर्माण भारत में पुनः गति पकड़ने लगा। और आज, हम न जाने कितने ही महत्वपूर्ण और बड़े जहाजों का निर्माण अपने देश में करते हुए, काफी हद तक इस उद्योग में आत्म निर्भर हैं ।

संदर्भ
https://tinyurl.com/yuv9wskt
https://tinyurl.com/bdcrc4ez
https://tinyurl.com/44erfujh

चित्र संदर्भ
1. पनडुब्ब्बी के उद्घाटन को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. ईस्ट इंडियामेन के जहाजों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. 40-गन ईस्ट इंडियामैन वेर्गेलिजकिंग एम्स्टर्डम के मॉडल को दर्शाता चित्रण (PICRYL)
4. ईस्ट इंडिया कंपनी के जहाज के शुभारंभ के दृश्य को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. समुद्र से बॉम्बे डॉकयार्ड को दर्शाता चित्रण (wikimedia)