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हमारे लिए या फिर किसी देश के लिए भी, किसी युद्ध या यूं कहें कि, किसी भी झगड़े में शामिल होना है या नहीं, यह निर्धारित करना एक जटिल निर्णय होता है। यह निर्णय अक्सर ही राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और रणनीतिक विचारों सहित विभिन्न कारकों से प्रभावित होता है। साथ ही ऐसे कुछ तत्व हैं जिनके बारे में युद्ध में शामिल होने से पहले विचार किया जाना अत्यंत आवश्यक है।
आइए, आज ऐसे ही कुछ तत्वों के बारे में जानने की कोशिश करते हैं।
न्यायोचित कारण: कुछ सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक, जो यह निर्धारित करता है कि, युद्ध में शामिल होना है या नहीं, यह विचार करना होता है कि युद्ध करना अथवा लड़ाई झगड़े में शामिल होना या इसके पीछे के कारण न्यायोचित हैं या नहीं। युद्ध केवल और केवल वैध कारणों के लिए ही लड़ा जाना चाहिए, जैसे कि, आत्मरक्षा, मानवाधिकारों की सुरक्षा, या नरसंहार को रोकना।
आनुपातिक प्रतिक्रिया: युद्ध में यदि सैन्य प्रतिक्रिया आवश्यक है, तो यह परिस्थिति के अनुसार आनुपातिक होनी चाहिए। अत्यधिक बल के प्रयोग से फायदे की बजाय अधिक नुकसान हो सकता है तथा स्थिति और भी अधिक अस्थिर हो सकती है।
कूटनीति : सैन्य बल का सहारा लेने से पहले, कूटनीतिक प्रयास करने चाहिए। इसमें, अन्य देशों या पक्षों के साथ बातचीत करना, आर्थिक प्रतिबंधों का उपयोग करना और संयुक्त राष्ट्र (United Nations) जैसे अंतर्राष्ट्रीय निकायों से सहायता पाना शामिल है।
जोखिम और लागत
युद्ध की जोखिम तथा लागत का भी सावधानीपूर्वक मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए। युद्ध के पहले या दौरान, जीवन की हानि, वित्तीय लागत और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव आदि सभी मुद्दों पर विचार किया जाना चाहिए।
युद्ध से बाहर निकलने की रणनीति:
युद्ध में शामिल होने से पहले, इससे बाहर निकलने की एक स्पष्ट निकास रणनीति होनी चाहिए। इसमें उचित लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित करना तथा इसके पश्चात उत्पन्न होने वाले परिणामों के बारे में विचार करना शामिल है।
संक्षेप में, युद्ध में शामिल होने का निर्णय मौजूदा स्थिति, सैन्य कार्रवाई के औचित्य, जोखिम और लागत एवं इसकी सफलता की संभावना पर सावधानीपूर्वक विचार करके किया जाना चाहिए। सैन्य बल का सहारा लेने से पहले, राजनयिक प्रयास भी किए जाने चाहिए, और एक स्पष्ट निकास रणनीति भी लागू होनी चाहिए।
युद्ध में शामिल होने के निर्णय के पक्ष में कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद् भागवत गीता में अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहा है, अतः युद्ध का निर्णय उचित है। किंतु यहां इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि श्री कृष्ण ने अर्जुन से युद्ध करने के लिए किन परिस्थितियों में कहा। तब युद्ध पहले से ही निश्चित था और वह युद्ध अधर्म के विरुद्ध धर्म के पक्ष में था। उस समय श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि एक योद्धा होने के नाते, उसे धर्मयुद्ध या धार्मिक युद्ध में भाग लेने से बड़ा कोई ‘महान’ उद्देश्य उसके जीवन में नहीं मिल सकता है।
जब अर्जुन युद्ध के परिणाम को लेकर भ्रांत थे, तो कृष्ण अर्जुन को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि, युद्ध से दूर भाग जाना ही वास्तविक हानि होगी, क्योंकि, तब वह युद्ध के लिए बुलाए जाने पर, शत्रु से न लड़कर अपने धर्म को त्याग देगा। तब श्रीकृष्ण अर्जुन से आग्रह करते हैं और आश्वस्त करते हैं कि, एक क्षत्रिय होने के नाते, युद्ध लड़ना अर्जुन का धर्म है, फिर चाहे, इसके परिणाम दर्दनाक हों। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को सबसे पहले अपने धर्म, कर्तव्य या नैतिकता को समझना चाहिए। इसके बाद यदि आवश्यक हो, तो 'धर्म के लिए' युद्ध छेड़ना चाहिए। गीता में युद्ध में जाने के लिए नैतिक कारण को महत्व प्रदान किया गया है।
वास्तव में गीता अधर्म की स्थिति में शांतिवादी बनने का समर्थन नहीं करती है, जिसमें निष्क्रियता महान शांतिवाद को तुच्छ नपुंसकता में बदल देती है। सुधार न किए जा सकने वाले अपराधियों से निपटते समय यह सहजता से हिंसा सहित मुखर कार्रवाई करने का उपदेश देती है।
तब अर्जुन के लिए, कृष्ण के उपदेश ने ‘बुद्धिमान स्मृति’ का मार्ग प्रशस्त किया था। और इस प्रकार, उसने युद्ध में जाने के लिए अपनी तत्परता की घोषणा की, जो उसका सच्चा धर्म है।
वर्तमान एवं समकालीन न्यायसंगत युद्ध सिद्धांत की उत्पत्ति विभिन्न प्राचीन और मध्ययुगीन विचारकों के विचारों और लेखन के साथ-साथ धार्मिक परंपराओं से भी हुई है। इन विचारकों द्वारा युद्धों की नैतिकता और वैधता से संबंधित प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया गया है।
आज दुनिया आतंकवाद से त्रस्त है। कभी-कभी यह आतंकवाद धार्मिक पुस्तकों को आधार बनाकर खुद को तर्कसंगत बताता है। और युद्ध जैसी परिस्थितियों को उचित मानता है। किंतु वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक युद्ध के पीछे के कारण ही निश्चित करते हैं कि वह युद्ध उचित है अथवा नहीं ।
इसी से संबंधित, अंतर्राष्ट्रीय संधियों और प्रथागत कानूनों का एक प्रयास, अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून(International Humanitarian Law), सशस्त्र संघर्ष के दौरान जुझारू लोगों के आचरण पर केंद्रित है। मानवीय कानून के विकास में मील का पत्थर, वर्ष 1949 में जिनीवा सम्मेलन(Geneva Convention) को अपनाने के साथ आया था। जिनीवा सम्मेलन की चार संधियां तथा उनके अतिरिक्त औपचारिक शिष्टाचार या प्रोटोकॉल(Protocol), आचरण के लिए, किसी भी युद्ध के दौरान, वैश्विक मानकों को निर्धारित करते हैं, जिसे यह परस्पर रूप से ‘सशस्त्र संघर्ष’ के रूप में भी परिभाषित करता है।
आज हमारी दुनिया आतंकवाद से ग्रस्त है।गीता के परिदृश्य में, सत्ता-हथियाने वाले दुष्ट कौरवों के खिलाफ पांडवों एवं कृष्ण की विचारशील दृढ़ता, रक्षाहीन और निर्दोष लोगों पर आतंकवादी हमलों से पूरी तरह से अलग है।
वास्तव में, युद्ध के पहले मौजूद विकल्पों पर परिपक्व विचारों में असंवेदनशील आध्यात्मिक चिंतन का एक प्रतिरूप, जो गीता प्रदर्शित करती है, शामिल है। आतंकवाद को जन्म देने वाली अज्ञानता तथा उसे पोषित करने वाली शक्तिहीनता दोनों का ही मुकाबला करने के लिए, इस तरह का चिंतन आज महत्वपूर्ण है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/yc3f2v2t
https://tinyurl.com/bdbdhrk4
https://tinyurl.com/4ksx6vn6
चित्र संदर्भ
1. श्री कृष्ण को शस्त्र उठाने से रोकते अर्जुन को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
2. पांडवों को अपनी मृत्यु का भेद बताते पितामह भीष्म को दर्शाता एक चित्रण (
Creazilla)
3. श्री कृष्ण से सलाह लेते दुर्योधन एवं अर्जुन को दर्शाता एक चित्रण (
Creazilla)
4. अपने घोड़ों को धोते श्री कृष्ण को दर्शाता एक चित्रण (Creazilla)
4. दुर्योधन एवं द्रोण को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)