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होली का त्यौहार साल में ऐसे समय पर आता है, जब मौसम में बदलाव होता है, यह बदलाव अधिकांश रूप में वायरल बुखार और सर्दी का कारण बनता है। ऐसे में आयुर्वेदिक चिकित्सक द्वारा निर्धारित प्राकृतिक गुलाल (यह रंग पारंपरिक रूप से नीम, कुमकुम, हल्दी, बिल्व और अन्य औषधीय जड़ी बूटियों से बने होते हैं) के साथ होली मनाने का एक औषधीय महत्व है।
होली के जश्न में गुलाल एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, बिना गुलाल के होली काफी रूखी सी लगती है, लेकिन यह रंग डालने की प्रथा कहाँ से विकसित हुई होगी? इस प्रश्न का जवाब एक किंवदंती से प्राप्त होता है, ऐसा माना जाता है कि एक बार भगवान कृष्ण ने अपनी माँ यशोदा से अपने सांवले रंग के बारे में शिकायत की और राधा का गोरा रंग होने के पीछे का कारण पूछा। और इस पर माँ यशोदा ने राधा पर रंग डाल दिया। इस प्रकार रंग के त्यौहार को होली के उत्सव के रुप में मनाया जाने लगा।
पहले के समय में, गुलाल को पेड़ों में लगने वाले फूलों (जैसे कि भारतीय प्रवाल वृक्ष) से तैयार किया जाता था, इनमें औषधीय गुण होते थे और ये त्वचा के लिए भी फायदेमंद होते थे। हालांकि समय के साथ, इन प्राकृतिक रंगों की जगह कृत्रिम रंगों ने ले ली है। ऐसे ही गुलाल के कई रंगों को प्राथमिक रंगों से मिलाकर प्राप्त किया जाता था। रंगों के कुछ पारंपरिक प्राकृतिक पौधों पर आधारित स्रोत निम्न हैं:
• मैजेंटा और बैंगनी :- चुकंदर मैजेंटा और बैंगनी रंग का पारंपरिक स्रोत है। रंगीन पानी तैयार करने के लिए अक्सर इन्हें पानी में प्रत्यक्ष रूप से उबाला जाता है।
• लाल - हिंदू धर्म में लाल रंग का उपयोग शुभ अवसरों जैसे कि बच्चे के जन्म, विवाह, त्यौहार और इत्यादि के लिए किया जाता है। विवाह के प्रतीक के रूप में, महिलाएं अपने बालों की मांग पर सिंदूर लगाती हैं और शादी में दुल्हन आमतौर पर लाल रंग की साड़ी पहनती है। लाल रंग को शक्ति के रंग के रूप में भी जाना जाता है।
• सफेद - सफेद सात अलग-अलग रंगों का मिश्रण है, इसलिए इस रंग को कई गुणों का प्रतीक माना जाता है। सफेद रंग पवित्रता, शांति, स्वच्छता और ज्ञान, इन सभी का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं ज्ञान की देवी, सरस्वती को हमेशा सफेद कपड़े पहने, सफेद कमल पर बैठते हुए दर्शाया गया है।
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